आदिवासियों के सम्मान की चिंता क्यों नहीं होती ?
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राजेश बादल
यह हादसा आदिवासी डिंडोरी ज़िले का है। वहां राज्य सरकार की कन्या विवाह योजना के तहत सामूहिक विवाह संपन्न कराए गए । योजना के तहत ब्याह रचाने वाले आदिवासी दंपत्ति को सरकार छह हज़ार रूपए का गृहस्थी का सामान और 49 हज़ार रूपए नक़द देती है। समारोह में 224 आदिवासी युगल आमंत्रित किए गए । लेकिन अफसरों को संदेह हुआ कि आदिवासी नक़दी और उपहार के लालच में दोबारा ब्याह न कर डालें। इसलिए उन्होंने सभी आदिवासी लड़कियों का गर्भावस्था परीक्षण कराया। परीक्षण में पाँच लड़कियों को विवाह से रोक दिया गया क्योंकि वे माँ बनने की तैयारी कर रही थीं। उन लड़कियों को वहाँ से भगा दिया गया।यह आदिवासी युवक - युवतियाँ अपनी परंपरा के मुताबिक़ बिना विवाह रचाए एक दूसरे को समझने के लिए साथ रहने लगते हैं। कुछ समय बाद यदि वे पाते हैं कि उन्होंने सही साथी का चुनाव किया है तो फिर ब्याह रचा लेते हैं। यह परंपरा सदियों से चली आ रही है और माता -पिता समेत पूरे समाज की इसमें सहमति होती है।आधुनिक समाज ने भी इसी तर्ज़ पर लिव इन शैली को एक तरह से मान्यता दे दी है।
यहाँ इस निष्कर्ष को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए कि शेष 219 जोड़ों के अलावा सैकड़ों परिजनों और अधिकारियों, राजनेताओं तथा पत्रकारों को जानकारी मिल चुकी थी कि अमुक पाँच युवतियाँ माँ बनने की तैयारी कर रही हैं।यह साफ़ साफ़ निजता के अधिकार का उल्लंघन है। ये युवतियाँ उपस्थित लोगों के बीच बिना ब्याह के वापसी से उपहास का विषय बन गईं और इसकी इजाज़त भारतीय संविधान नहीं देता।विडंबना ही है कि दस बरस पहले भी सरकार की इस योजना के तहत बैतूल और डिंडोरी ज़िलों में भी बड़ी तादाद में आदिवासियों के सामूहिक विवाह कराए गए थे और उस वक़्त भी लड़कियों का गर्भावस्था परीक्षण कराया गया था। इसका बड़ा विरोध हुआ था। मामला संसद तक पहुँचा था। मजबूरी में सरकार ने मजिस्ट्रेटी जांच कराई थी। पर,कोई नहीं जानता कि उस रिपोर्ट का क्या हुआ और आरोपी अफसरों के साथ क्या सुलूक किया गया ?
गंभीर प्रश्न यह है कि आज़ादी के दशकों बाद भी मुल्क़ के क़रीब पंद्रह करोड़ आदिवासियों के सम्मान और अधिकारों को लेकर समाज संवेदनशील क्यों नहीं है ? भारत की अनेक जनजातियों में ऐसी प्रथाएँ प्रचलित हैं ,जो अपने जीवनसाथी के साथ बिना ब्याह किए साथ रहने को अनुचित नहीं मानतीं। छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में घोटुल और मध्यप्रदेश में झाबुआ इलाक़े में भगौरिया ऐसे पर्व हैं ,जिनमें नौजवान युवक युवतियाँ जीवन साथी का चुनाव करते हैं। उनका विवाह महीनों बाद उनके घर वाले करते हैं। तब तक यह जोड़ा साथ रहता है।छत्तीसगढ़ ,महाराष्ट्र ,झारखंड,ओडिशा और मध्यप्रदेश में आज भी हर साल ऐसे अनगिनत मामले सामने आते हैं,जिनमें बिना विवाह के आदिवासी सारी उमर काट देते हैं । कुछ तो ऐसे भी होते हैं ,जिनमें आदिवासी माता - पिता की शादी उनके बच्चे धूमधाम से कराते हैं। ये बच्चे पढ़े लिखे हैं और उन्हें जानकारी होती है कि जब उनके माता पिता ने साथ रहना शुरू किया तो उनके लिए विवाह नाम की संस्था से अधिक एक दूसरे में विश्वास और प्यार ज़रूरी था।
छत्तीसगढ़ में क़रीब साठ - पैंसठ साल पहले एक अनोखा मामला सामने आया था। एक उत्साही ज़िला कलेक्टर ने आदिवासियों के उत्थान के लिए अपने मातहत सरकारी कर्मचारियों को प्रेरित किया कि वे आदिवासी लड़कियों से शादी करें और उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का काम करें। सैकड़ों कर्मचारियों ने आदिवासी लड़कियों से ब्याह किया ,उनसे बच्चे भी पैदा किए और पत्नी का दर्ज़ा भी दिया। हद तो तब हुई ,जब उन कर्मचारियों के तबादले हो गए। ये कर्मचारी अपनी पत्नियों और बच्चों को यह कहकर छोड़ गए कि वे नए शहर में मकान मिलते ही आकर ले जाएँगे। मासूम आदिवासी पत्नियों ने भरोसा कर लिया। कर्मचारी चले गए और कभी लौटकर नहीं आए। आज भी ऐसी कुछ बूढ़ी पत्नियाँ अपने पतियों के लौटने की बाट जोह रही हैं। उनके बच्चों के विवाह तक हो चुके हैं ।इसे क्या कहा जाए ? सभ्य समाज के पढ़े लिखे सरकारी तबके ने विवाह जैसी पवित्र संस्था के नाम पर भोले भाले आदिवासियों को ठगा और उनका मज़ाक़ बनाया।जब यही आदिवासी अपने ढंग से जीना चाहते हैं तो यही नौकरशाही उनका मख़ौल उड़ाती है। इन गंभीर सामाजिक अपराधों के लिए किसे ज़िम्मेदार माना जाए ?
भारतीय संविधान के कम से कम एक दर्ज़न अनुच्छेद आदिवासियों के अधिकारों से भरे पड़े हैं। उनमें इन्हें अनुसूचित जनजाति कहा गया है। किसी भी अन्य भारतीय की तरह उन्हें भी अभिव्यक्ति और सम्मान की रक्षा का हक़ दिया गया है। उनकी परंपराओं ,रीति रिवाज़ों ,रहन सहन और भाषा की हिफाज़त भी संविधान करता है। उन्हें बेदख़ली ,बंधुआ मजदूरी और शारीरिक शोषण से बचाता है।लेकिन इन प्रावधानों का वास्तविक लाभ आदिवासी वर्ग को नहीं मिल रहा है। महानगरों में घरेलू काम के नाम पर ओडिशा,झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की हज़ारों लड़कियों का शोषण होता है।उन्हें विवाह नहीं करने दिया जाता। पुलिस में ऐसे सैकड़ों मामले दर्ज़ हैं। कई राज्यों में पुलिस ने उन्हें मुक्त कराया है।सभ्य समाज का यह दोहरा चरित्र है कि वह आदिवासी लड़कियों का शोषण तो करता है ,लेकिन उन्हें प्राप्त संवैधानिक अधिकारों से वंचित रखता है।हक़ से महरूम रखना एक बार स्वीकार भी कर लिया जाए क्योंकि अभी भी आम आदमी को संविधान में वर्णित सारे अधिकार नहीं मिले हैं। मगर यह कैसे स्वीकार किया जा सकता है कि बालिग़ दंपत्तियों का मख़ौल उड़ाया जाए और उनके कौमार्य या गर्भावस्था की स्थिति ढोल बजाकर सार्वजनिक की जाए।