राजेश बादल
भारतीय लोकतंत्र परिपक्व और समझदार हो रहा है। इसे नहीं मानने का कोई कारण नहीं है। साक्षरता का प्रतिशत बढ़ने के साथ साथ आम मतदाता भी सोच के स्तर पर जागरूक हो रहा है। यह स्वीकार करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। फिर भी इस जम्हूरियत के साथ कुछ विरोधाभास चिपके हुए हैं। विरोधाभासों का यह गुच्छा सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा है। यह भारतीय लोकतंत्र में न तो लोक के लिए बेहतर है और न ही तंत्र के लिए। चुनाव के दिनों में तो यह और भी विकराल तथा विकृत स्वरूप में हमारे सामने उपस्थित है। चुनाव से पहले राजनेताओं को पता होता है कि वे जो लालच दे रहे हैं या जो वादे जनता के साथ कर रहे हैं ,वे कभी पूरे नहीं होंगे। दूसरी ओर मतदाता भी अब इतना मासूम और भोला नहीं रहा। वह समझता है कि उम्मीदवार ,मंत्री और मुख्यमंत्री जो वचन दे रहे हैं या घोषणाएँ कर रहे हैं ,उनमें से एक प्रतिशत भी पूरी होने वाली नहीं हैं। पर वह क्या करे ? दोनों पक्ष हक़ीक़त जानते हुए भी इस व्यवस्था को चलने दे रहे हैं।इस बिंदु पर आकर लोकतांत्रिक सेहत को नुक़सान तो होना ही है।
पाँच प्रदेशों में इन दिनों विधानसभा चुनाव सिर पर हैं। कभी भी निर्वाचन आयोग तारीख़ों की घोषणा कर सकता है।इसके बाद आचार संहिता के चलते सरकारी योजनाओं के तहत नए निर्माण,ठेकों ,अनुदान और उनके क्रियान्वयन पर विराम लग जाएगा। पाँच में से दो राज्यों राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकारें हैं ,मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है ,तेलंगाना में तेलंगाना राष्ट्र समिति सत्ता में है और मिजोरम में मिजो नेशनल फ्रंट की हुक़ूमत है।चुनाव जीतने और अपनी सरकार बचाए रखने के लिए ये दल एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। इस होड़ में वे ऐसे ऐसे वादों को मतदाताओं के सामने रख रहे हैं ,जो सिर्फ़ हवा हवाई हैं। वे कभी भी पूरे नहीं किए जा सकते।यदि उसी दल की सरकार दुबारा बन जाए तो भी ये राजनेता अपने वादे पूरे नहीं कर सकते। संविधान की शपथ लेकर सरकार चलाने वाले मंत्री और मुख्यमंत्री शायद भूल जाते हैं कि वे पद पर रहते हुए आखिरी पल तक शपथ से बंधे होते हैं। वे जो भी घोषणा करते हैं ,उसे पूरा करना उनका संवैधानिक दायित्व है। यदि वे ऐसा नहीं करते तो यक़ीनन यह संवैधानिक विश्वासघात की श्रेणी में आता है।कुछ समय पहले एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि चुनाव पूर्व घोषणाओं में बमुश्किल चार या पाँच फीसदी पर अमल हो पाता है। बाक़ी सब ठन्डे बस्ते में चली जाती हैं।
यहाँ एक पेंच को भी समझना आवश्यक है।चुनाव से कुछ महीने पहले जो वादे किए जाते हैं घोषणाओं की झड़ी लगाईं जाती है ,उसमें से नब्बे फ़ीसदी बजट में पास नहीं कराए जाते और न ही बजट का हिस्सा होते हैं । चुनाव के साल में जो बजट पारित किया जाता है ,उसे चुनावी या लोक लुभावन बजट इसीलिए तो कहते थे। राजनीतिक दल अपनी सरकारों को निर्देश देते थे कि चुनावी साल के मद्दे नज़र मतदाताओं को पसंद आने वाली योजनाओं पर धन आवंटन कर दिया जाए। चुनाव आते आते वह निर्धारित धन खर्च कर दिया जाता था। नियम तो यह कहता है कि किसी प्रदेश का वित्त विभाग वही धन जारी कर सकता है ,जो विधानसभा में पारित बजट का हिस्सा हो।चाहे वह कैसा भी ख़र्च करने के लिए हो। मगर,देखा गया है कि विधायक ,मंत्री और मुख्यमंत्री अपनी ओर से रैलियों में या सभाओं में अपने इलाक़े की किसी भी समस्या का निदान करने का एलान कर देते हैं। चुनाव के बाद हार गए तो कोई स्पष्टीकरण नहीं माँगता। यदि पार्टी जीत गई तो फिर वह वादा जब तक बजट का हिस्सा नहीं बनता ,पूरा नहीं हो पाता। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि आपात स्थितियों में भी यदि सरकार पैसा ख़र्च करना चाहे तो उसकी निर्धारित प्रक्रिया होती है। घोषणा से पहले मंत्रिमंडल की मंज़ूरी अनिवार्य है।मंत्रिमंडल की औपचारिक मंज़ूरी के बाद इसका गज़ट नोटिफिकेशन होता है। उसके बाद ही वित्त विभाग धन जारी कर सकता है।पर यह भी नहीं होता।
हाल के दिनों में हमने यह भी देखा है कि निर्धारित प्रक्रिया और राजकोष में जमा ख़ज़ाने की समीक्षा किए बिना ही अनेक प्रदेश जनता को लुभाने के लिए अनाप शनाप पैसा ख़र्च करने लगते हैं। इसके लिए भी वे हर महीने ऋण भी लिया करते हैं। मध्यप्रदेश में अनेक योजनाएं क्रियान्वित नहीं हो पा रही हैं क्योंकि विभागों के पास पैसा ही नहीं है।वेतन बांटने के लिए सरकार प्रत्येक माह लगभग तीन से पाँच हज़ार करोड़ रूपए का क़र्ज़ लेती है। क़र्ज़ लेने की यह प्रवृति विकास की प्राथमिकताओं को प्रभावित करती है। दूसरी ओर हर महीने 130 करोड़ रूपए महिलाओं के ख़ाते में डाले जा रहे हैं ,बुजुर्गों को हवाई जहाज़ से तीर्थ यात्रा कराई जा रही है ,अविवाहित लड़कियों की शादी में हज़ारों रूपए का दहेज़ सरकार देती है। यह धन का दुरूपयोग ही कहा जाएगा।इसका मक़सद निश्चित रूप से चुनाव जीतने के लिए मतदाताओं को लालच देना है। विडंबना है कि चुनाव के बाद जो भी पार्टी सरकार बनाती है ,वह क़र्ज़ के जाल में बुरी तरह फँस चुकी होती है।क़र्ज़ का ब्याज चुकाने के लिए भी क़र्ज़ लेना पड़ जाए तो उसे आप क्या कहेंगे ? सियासत में बढ़ती अनैतिकता आने वाली पीढ़ियों के लिए ख़तरनाक़ संकेत दे रही है। चुनाव आयोग इसमें चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता।
सवाल यह है कि इस बीमारी का इलाज़ क्या है।हिंदी के विद्वान चिंतक और विचारक राजेंद्र माथुर कहते थे कि भारत में जब तक उपभोक्ता संस्कृति के साथ साथ मतदाता संस्कृति नहीं पनपती ,तब तक चुनाव प्रक्रिया में दाख़िल इन कुरीतियों का समाधान नहीं मिल सकता।मतदाता संस्कृति से उनका आशय यही था कि हर गाँव ,क़स्बे और शहर के मतदाता अपने क्षेत्र के नेताओं की चुनावी घोषणाओं का दस्तावेजीकरण करें और उनके जीतने पर इलाक़े के बाहर एक बड़े बोर्ड में उन्हें लिख दिया जाए। जब नेताजी आएँ तो उन्हें वह बोर्ड दिखाया जाए और जब उन वादों पर अमल हो जाए ,तभी उनकी बात सुनी जाए और उन्हें नई घोषणा करने दी जाए। संभवतया इससे कुछ समाधान मिल सके। ki