राजेश बादल
पाकिस्तानी विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी कहते हैं कि वे चार मई को भारत के साथ बातचीत करने के लिए नहीं जा रहे हैं। वे शंघाई सहयोग परिषद की बैठक में हिस्सा तो लेंगे ,मगर परिषद के अध्यक्ष भारत से संवाद नहीं करेंगे।वे तो यहाँ तक कहते हैं कि यह भारत यात्रा संबंधों को सुधारने के लिए नहीं है। जब एक संप्रभु राष्ट्र का विदेश मंत्री इस तरह नकारात्मक बयान देता है तो स्पष्ट हो जाता है कि अपने वैदेशिक संबंधों को सुधारना पाकिस्तान की प्राथमिकता सूची में नहीं है। विदेश मंत्री के इस कथन का एक अर्थ यह भी निकलता है कि इस पड़ोसी मुल्क़ की हुक़ूमत में अभी भी फ़ौजी दख़ल और रुतबा बरक़रार है।यद्यपि बीते दिनों के घटनाक्रम से आंशिक संकेत मिला था कि शायद दुनिया भर में बिगड़ती छबि के कारण पाकिस्तान की सेना अपने को नेपथ्य में रखते हुए सियासत की मुख्य धारा से अलग कर सकती है।पर यह नामुमकिन सा ही है और इस देश में एक बड़ा वर्ग आज भी फ़ौजी दबदबे का समर्थक माना जाता है । ऐसे में प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ चाहे कितना ही दावा कर लें, हिन्दुस्तान से बेहतर रिश्तों की बात बेमानी है।अलबत्ता उनके भाई नवाज़ शरीफ़ हिन्दुस्तान के साथ संवाद के खुले पक्षधर रहे हैं।सन 2014 में वे प्रधानमंत्री के शपथ समारोह में हिंदुस्तान आए थे ।उसके बाद भारतीय प्रधानमंत्री अनौपचारिक और निजी यात्रा पर पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ के परिवार में एक विवाह समारोह में शामिल होने पाकिस्तान गए थे ।उसके बाद से कोई पाकिस्तानी प्रधानमंत्री भारत नहीं आया ।
असल में पाकिस्तानी राजनेताओं के साथ बड़ा दिलचस्प विरोधाभास है। वे जब सत्ता में नहीं होते तो अवाम के बीच हिन्दुस्तान से बेहतर संबंधों की हिमायत करते हैं। पर, जैसे ही सरकार में आते हैं तो उनके सुर बदल जाते हैं और वे सेना के दबाव में आक्रामक भाषा बोलने लगते हैं और भारत के साथ बातचीत से बचते हैं। कई बार तो वे बेवजह संवाद तोड़ने की पहल करते हैं।पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान पद छोड़ने के बाद कई बार हिन्दुस्तान की तारीफ़ में कशीदे पढ़ चुके हैं।
सवाल यह है कि अपनी मौजूदा कंगाली और बदहाली के कारण जानते हुए भी पाकिस्तान भारत के साथ बातचीत की मेज़ पर आने से परहेज़ क्यों करता है।समय समय पर उसने संवाद की ओर बढ़ते क़दम वापस खींचे हैं। कश्मीर से अनुच्छेद 370 के विलोपन के बाद से उसने रिश्ते तोड़ने का इकतरफ़ा ऐलान कर दिया था। यहाँ तक कि रोज़मर्रा की वस्तुओं के कारोबार पर भी अपनी ओर से बंदिश लगा दी थी।उसने एक अनोखी शर्त रखी थी कि जब तक भारत सरकार अनुच्छेद 370 बहाल नहीं करती ,तब तक उसके साथ कोई संवाद या व्यापार नहीं होगा। इस घोषणा से पहले पाकिस्तानी जनता के लिए छोटी छोटी चीज़ें भारत से सस्ते दामों पर मिल जाती थीं।यह औसत पाकिस्तानी की जेब के माफ़िक़ था और वह किसी तरह कम आमदनी में भी अपना पेट भर लेता था।सड़क मार्ग से आधा घंटे में ही वस्तुएँ पाकिस्तान पहुँच जाती थीं।भारतीय उत्पादों की ख़ास बात यह है कि वे संसार के अनेक देशों की तुलना में अपेक्षाकृत सस्ते होते हैं और पिछड़े तथा विकासशील राष्ट्रों की आर्थिक स्थिति के अनुकूल होते हैं। इस प्रकार व्यापार ख़त्म करने का पाकिस्तान का यह इकतरफा निर्णय आत्मघाती साबित हुआ और मुल्क़ में मँहगाई आसमान पर जा पहुँची। यह विश्व का अनूठा मामला है ,जब किसी देश ने अपने फ़ैसलों से अपने ही नागरिकों को मुसीबत में डाला हो।दूसरी तरफ भारतीय पक्ष को देखें तो उसने अपनी ओर से कारोबार रोकने का कभी कोई उपक्रम नहीं किया।अनेक आतंकवादी वारदातों में पाकिस्तान का सीधा हाथ होने के चलते बातचीत नहीं करने के निर्णय तो याद आते हैं ,लेकिन निर्दोष नागरिकों के पेट पर लात मारने का काम हिन्दुस्तान ने नहीं किया।इतना ही नहीं ,पाकिस्तान ने जब अपने क़ब्ज़े वाले कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा चीन को उपहार के रूप में दिया तब भी भारत ने सख्त विरोध तो किया लेकिन संवाद के दरवाज़े बंद नहीं किए। इसके बाद जब उसने अनधिकृत तौर पर कश्मीर को अपना सूबा बनाने का प्रयास किया ,तब भी हिन्दुस्तान ने अपनी ओर से कुट्टी नहीं की।यही एक परिपक्व लोकतांत्रिक सोच का नमूना है।लेकिन पाकिस्तान अपनी विदेश नीति को लट्टू की तरह नचाता रहता है। बेपेंदी के लोटे वाली छबि के कारण अंतरराष्ट्रीय बिरादरी भी पाकिस्तान पर कम भरोसा करती है। दोनों देशों के बीच यही चारित्रिक फ़र्क़ उन्हें चर्चा के लिए साथ बैठने से दूर ले जाता है।
शंघाई सहयोग परिषद का गठन क़रीब बाईस साल पहले हुआ था। सदस्य देशों के राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षात्मक हितों की रक्षा करना इस संगठन का मुख्य काम था । उस समय इसमें छह सदस्य रूस, चीन, कज़ाकिस्तान ,तज़ाकिस्तान किर्गिस्तान और उज़्बेकिस्तान शामिल थे।पाँच साल पहले हिन्दुस्तान और पाकिस्तान को इसमें शामिल किया गया।पिछले साल सितंबर में भारत को इसकी अध्यक्षता मिली थी। इस नाते सदस्य देशों को बैठक के लिए उसने आमंत्रित किया है। संभावना तो यह बताई जा रही थी कि यदि बिलावल भुट्टो ज़रदारी पाकिस्तान से कुछ सकारात्मक और ठोस संकेत लेकर द्विपक्षीय संवाद के लिए आए तो आगामी जुलाई में प्रधानमंत्रियों की बैठक में शामिल होने के लिए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ आ सकते हैं। उसके लिए बिलावल भुट्टो कुछ ज़मीन तैयार कर सकते थे। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया और देसी भाषा में कहें तो यात्रा से पूर्व ही नकारात्मक बयान देकर रायता फैला दिया।