डॉ. सुधीर सक्सेना
पृथ्वी अगर चिट्ठी लिख सकती ते उसने अपने आँसुओं की स्याही से सौरमंडल के सहोदर ग्रहों के नाम एक चिट्ठी जरूर लिखी होती। बहुत मुमकिन है कि आंसुओं में डूबी यह पाती उसने अपनी संतानों को भी लिखी होती, जो ब्रह्मांड में अपने अत्यंत बुद्धिमान होने का दंभ या भ्रम पाले बैठे हैं। कृत्रिम मेधा के इस अनिर्वच काल में मनुष्य अपने बुद्धिलब्ध और अविष्कारों पर इतरा सकता है, किंतु वह धरती-सा प्रज्ञा- चक्षु नहीं है, जो अपने तौर-तरीकों से लगातार हमें भयावह आसन्न संकटों के संकेत दे रही है। आश्चर्य है कि मनुष्य चेतस होकर भी चेतावनियों को अनसुना कर रहा है और चुनौतियाँ दिन-ब-दिन विकराल से विकरालतम हुई जाती हैं। संकट कराल काल-सा भयावह हुआ जाता है और यदि मनुष्य ने 'माता-पृथ्वी' की कातर-चिट्ठी नहीं बांची और फौरी तथा दीर्घकालिक उपाय नहीं बरते तो विनाश की सिर्फ कल्पना ही की जा सकती है।
बीती शती की बात है। कवि अयोध्या प्रसाद 'हरिऔध' ने दशकों पहले 'निदाघ का काल महादुरंत था' लिखा था। वर्ष-दर- वर्ष वह अनुभूति तीक्ष्ण से तीक्ष्णतर हुई है। सन् 2023 में मौसम के मिजाज गजब रहे। बैरोमीटर में पारा उठता - गिरता रहा। मार्च में गर्मी अचानक बढ़ी और मई में तापमान यकबयक सामान्य से कम हो गया। हैरत की बात यह है कि मई में गिरिराज हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर हिम-वर्षा हुई। यह बेमौसम का अप्रत्याशित हिमपात था। कविकुलगुरू कालिदास ने हिमालय को धरती का 'मानबिन्दु' कहा था। अपघात का शिकार मानबिंदु आहत हुआ। जम्मू-काश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल में हिमपात से मौसम-विज्ञानी अचरज में डूब गये। अनहोनियां लगातार घट रही हैं। कहीं कोई ब्रेक या विराम नहीं है। वह वार, दिन या मुहूर्त नहीं देखतीं। जनसंख्या विस्फोट, निर्वनीकरण, अनियोजित विकास, भूगर्भ से छेड़छाड़ उत्सर्जन आदि ने विनाश को न्यौता दिया है। यह न्यौता इतना स्याह और चटख है कि काल उसे खारिज या नजरंदाज नहीं कर सकता। आशंकाओं का कद लगातार ऊंचा होता जा रहा है। ऋतुओं का चक्र बदल रहा है। मानसून की गुणवत्ता बदल रही है। फासलों के चक्र भला कैसे अछूते रहेंगे? उनका आकार-प्रकार बदलेगा और तासीर भी। जलवायु-संकट की परिधि का विस्तार हो रहा है। अमेजन में दावानल से सिर्फ वनस्पतियों का ह्रास नहीं होता, उनका असर पूरे भूमंडल पर पड़ता है। पेड़-पौध के भस्मी-भूत होने से पूरा जीव लोक नष्ट होता है। क्लोरोफिल की चक्की होती है। धरती के फेफड़े कमजोर होते हैं। श्वसन-तंत्र कमजोर होगा तो क्या हमारी प्यारी धरती यक्ष्मा या तपेदिक से ग्रस्त न होगी? परिक्रमापथ में गतिशील और अपनी धुरी पर अहर्निश घूमती धरती अपनी व्यथा किससे कहे? 'दुखवा मैं काहे कहूं' की उसकी पीड़ा गाढ़ी होती जा रही है और कांधे आशंकाओं की गठरी लगातार वजनी ।
चुनौतियों सघन हैं। उनका घनत्व अमाप्य है। आयतन अपरिमेय। मनुष्य अनिष्ट की ओर अग्रसर है; दैवीय नहीं, वरन अपने रचे अनिष्ट की ओर। मनुष्य की करतूतों से प्रकृति की प्रकृति बदल रही है। प्रकृति के कवि सुमित्रानंदन पंत कहते हैं: 'आ: धरती कितना देती है!' गौर करें कि हम बदले में धरती को क्या दे रहे है? पंत ने ही 'तृष्णा' को सींचने की बात कही थी। बापू भी कहते हैं कि धरती मनुष्य का लालच पूरा नहीं कर सकती, अलबत्ता उसके पास देने को बहुत कुछ है। ब्रह्मांड में धरती का आविर्भाव हुआ तो उसे ओजोन की छतरी भेंट में मिली। उस छतरी को भी नहीं बचा सके। हमने उसके लोमश - वक्ष को विदीर्ण किया और उसकी देह को क्षत-विक्षत।
वैज्ञानिक आशंका जता रहे हैं कि सन् 2031 से सन् 2061 के दरम्यान भीषण गर्मी पड़ सकती है। यानि हरारत तीव्र ज्वर में तब्दील हो जायेगी। सन् 2071 से सन् 2100 के मध्य ग्रीष्म की यह तीव्रता दो गुनी हो जायेगी। यानि ऐसा घाम... ऐसा घाम कि पूछिये मत। सन् 2000 से सन् 2004 और सन् 2017 से सन् 2021 के बीच गर्मी से मौतों में 55 प्रतिशत वृद्धि हुई है। यदि वैज्ञानिकों की आशंका सच है तो अनुमान लगाएं कि तापमान में उछाल क्या कहर बरपायेगा?
जाहिर है कि सहारा का एहसास सहारा के बाहर भी होगा। अरब सागर गर्म होगा तो उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत कोप से कैसे बचेगा? शीतलहर आएगी। कहीं अनावृष्टि तो कहीं अतिवृष्टि। फसलें कहीं चौपट तो कहीं जहरीली। नये-नये अचीन्हे और असाध्य रोग। बाढ़ और चक्रवात की विभीषिका। इसे मजाक मत मानिये। विश्व के अनेक तटीय शहरों पर जलमग्न होने का खतरा मंडरा रहा है।
खतरे भांति-भांति के हैं। वे अलग- अलग अदृश्य और अचीन्हे वर्कों में लिपटे हुये हैं। रसायनों से भी कम खतरा नहीं है। वे नदियों में घुल रहे हैं। हवा में लिपट रहे हैं। शरीर में पैठ रहे हैं। वे वनस्पतियों में प्रविष्ट हैं। अन्न के दानों में उनका बसेरा है। वे हमारी काया पर और हमारे मन-मस्तिष्क पर असर डाल रहे हैं। हमारी शारिरिक शक्ति- सामर्थ्य उनसे प्रभावित है। उनसे हमारी नींद में खलल है। रसायनजन्य हैं कितने ही रोग । बढ़ती जा रही है रोगों की संख्या और परिधि।
सन् 1962 में एक किताब आई थी 'साइलेंट स्प्रिंग'। इस किताब केलेखक थे राचेल कार्सन । कृति कीटनाशकों और उनसे उत्पन्न क्षति पर एकाग्र थी। कृषि की बात करें तो बीती एक-डेढ़ सदी कीटनाशकों की सदी रही है। कीट- नाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल ने अपूर्व संकट उपजाए हैं। भूमि बंध्या हुई है। जलस्तर गिरा है। और कीटनाशक यानि रसायन दानों, बालियों, फलों और तरकारियों में पैठ गये हैं। विषाक्त और हानिकारक रसायनों का खाद्य-श्रृंखला में प्रविष्ट होना खतरनाक है। एक तरह से खतरे की घंटी। यह घंटी लगातार घनधना रही है। रसायनों के दुष्प्रभाव से पशु-पक्षी भी मुक्त नहीं हैं। प्रकृति को सुन्दर-सलोना बनाये रखने में पशु-पक्षियों का महत्वपूर्ण योगदान है। इनके होने से कलरव और सौन्दर्य है, साथ ही कारकों में संतुलन भी। वे बीजों के विकिरण में भी सहायक हैं। सिंह की उपस्थिति किसी भी वन के स्वास्थ्य की निशानी है। वनस्पतियां हैं, तो जल है और जल है तो जीवन है। मगर हम हैं कि धरती को खल्वाट करने के कुत्सित खेल से बाज नहीं आते।
'साइलेंट स्प्रिंग' अकेली किताब नहीं है और न ही राचेल कार्सन इकलौते लेखक। किताबें कई हैं और राचेल अनेक। पर्यावरणविद और वैज्ञानिक और विज्ञान-लेखक धरती पर संकटों से लोगों का निरंतर आगाह करते आ रहे हैं। आकुल कविर्मन ने बरसों पहले प्रश्न किया था कि क्या प्लास्टिक के बोझ तले दब जायेगी यह धरती? अविगलित प्लास्टिक के तले कहीं धरती की सांसे तो न घुुट जायेंगी? प्रश्न सारगर्भित है। पड़ताल करें तो जो तथ्य उभरते हैं, वे आश्वस्तकारी कतई नहीं हैं। सन् 2000 में तो पृथ्वी दिवस की थीम ही रखी गयी थी - 'पृथ्वी ग्रह बनाम प्लास्टिक'।
प्लास्टिक की अनिष्टकारी भूमिका को इससे समझ सकते हैं कि यह मिट्टी, पानी और वायु तीनों में प्रदूषण का कारक है। सूर्य रश्मियों के आघात के फलस्वरूप अपर्दन से इसके सूक्ष्म कण मृदा में मिल जाते हैं। फलत: मिट्टी की उर्वरा शक्ति का ह्रास होता है। जलबिंदुओं के साथ यह मछलियों और जलचरों में पहुंचते हैं। इससे उनकी वृद्धि पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। साथ ही मत्स्याहारियों के स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव भी। इससे खाद्य-श्रृंखला क्षतिग्रस्त होती है। प्लास्टिक की माया देखिये। जलाये जाने पर इसके पॉलीमर बन जाते हैं। साथ ही विषैली गैसे वायु- मंडल में उत्सर्जित होती है। इससे वैश्विक तापमान में वृद्धि लाजिमी है। पुनर्चक्रीकरण और निर्धूम प्रज्वलन भी निर्दोष विधियाँ नहीं है कि हानि से पूर्णत: बचा जा सके। डंपिंग- स्थलों पर जिस तरह खुले में गांवों-शहरो में कचरा जलाया जा रहा है, वह अत्यंत अनिष्टकारी है और चिंतनीय भी। कुछेक अपवादों को छोड़कर दुनिया में प्लास्टिक के कचरे के अंबार कहीं भी देखे जा सकते हैं।
वस्तुत: प्लास्टिक एक संकट है; अपने से कहीं बड़े संकट को न्यौता देता हुआ संकट । क्या प्लास्टिक के भंगार या कबाड़ को अंतरिक्ष में फेंकने की नौबत आयेगी? स्वीडन ने एक रास्ता दिखाया है। प्लास्टिक के कचरे से विद्युत उत्पादन का रास्ता। वह योरोपीय देशों से सूखा कचरा मंगाता है और उससे बिजली बनाता है। यह उसका व्यवसाय है; लाभकारी व्यवसाय। तकनीक बेनुक्स नहीं है और न ही उत्सर्जन मुक्त। मगर उत्सर्जन केवल दशमलव दो (0.2) प्रतिशत है। विद्युत उत्पादन के प्रचलित उपायों के बरक्स यह वरीय है। यहा प्रश्न है कि क्या तात्कालिक लाभों का परित्याग कर सरकारें और कापोर्रेट-बैरन इस तकनीक को तरजीह देेंगे? यह सबकी राय है कि जीवाश्म आधारित ऊर्जा पर निर्भरता कम होनी चाहिये। धूप प्राकृतिक नेमत है और प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। प्रश्न उसका वैश्विक स्तर पर अधिकाधिक इस्तेमाल का है। रोड़े विधि को अपनाने की राह में नहीं, बल्कि हमारी इच्छाशक्ति में निहित हैं। जरूरत वैश्विक स्तर पर स्वच्छ ऊर्जा उत्पादन को अपनाने की है। अब तो पनबिजली को लेकर भी प्रश्न उठने लगे हैं। वजह यह कि सर्वत्र प्राय: बड़े बांधों को प्राथमिकता दी गयी है। इसका नकारात्मक पहलू यह है कि प्राथमिकता दी गयी है कि जलाशयों में बाढ़ से संचित जैव-पदार्थ आॅक्सीजन रहित सड़न से मीथेन गैस का उत्सर्जन करते हैं, जो वैश्विक तापमान में कॉर्बन डाईआक्साइड से करीब छह जुना अधिक वृद्धि करती है। दूसरे बड़े बांधों से विस्थापन का सामाजिक अभिशाप भी जुड़ा हुआ है।
परिस्थितियां सामान्य नहीं है। वे विषम हैं और विकट भी। समुद्र खलभला रहे हैं। वन सिमट रहे हैं। जैव-विविधता पर खतरे के बादल मंडरा रहे हैं। हिमनद पिघल रहे हैं। राष्ट्रकवि दिनकर का प्रश्न- 'उलझन का कैसा विषम जाल? मेरे नागपति मेरे विशाल?' नये सन्दर्भों में प्रासंगिक है। आज हिमालय भी निरापद नहीं है। इंटर नेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट की चेतावनी को खारिज नहीं किया जा सकता। संस्थान का कहना है कि यदि ग्रीन हाउस इफेक्ट यूं ही बढ़ता रहा तो हिन्दुकुश-हिमालय क्षेत्र के 80 फीसद ग्लेशियर सन् 2010 तक नष्ट हो जायेंगे? विश्व के ध्रुवीय छोरों को छोड़ दें तो सर्वाधिक हिम यहीं घनीभूत है। रपट कहती है कि सदी के दूसरे दशक में हिमनद पहले दशक के मुकाबले 65 फीसदी तेजगति से पिघले हैं। हम भारतीयों को तीन साल पहले चमोली में ग्लेशियर के पिघलने से हुई तबाही का मंजर याद होगा। उसे ट्रेलर मानिये और कल्पना कीजिये कि यदि हिमनद ऐसे ही पिघलते रहे तो सदी के अंत में क्या स्थिति होगी? इससे करीब दो अरब लोग प्रभावित होंगे। आधारभूत ढांचा ध्वस्त होगा। बाढ़, भूस्खलन, दुर्भिक्ष जैसे नाना संकट आयेंगे। बहुत कुछ तहस-नहस हो जाएगा। हिमनदों के पिघलने की गति ग्लोबल वार्मिंग पर निर्भर करेगी। यदि यह दो डिग्री से नीचे रही तो सन् 2100 तक वे 30 से 50 प्रतिशत तक पिघलेंगे और यदि अधिक रही तो दर 55 से 80 प्रतिशत तक जा सकती है। प्राकृतिक आपदा अलग- अलग रूपों में कहर बरपायेगी। खाद्य सुरक्षा समेत बहुतेरी चीजें छिन्नभिन्न हो जायेंगी। अनिष्ट और अमंगल के जरिये प्रकृति अपना रौद्र रूप दिखायेगी।
इसमें शक नहीं है कि धरती तप रही है। तवे की मानिंद । तापन से कोई मुक्त नहीं है। समुद्र भी तप रहा है। भविष्य में उसके खौलने का खतरा है। जलचर खतरे में है। कोरल रीफ खतरे में है। पानी बिच मीन पियासी की स्थिति है। ध्रुवों की बर्फ पिघल रही है। समुद्रों का उफनना तय है। जोजफ फूरियर ने जब सन् 1824 में ग्रीनहाउस-प्रभाव की खोज की थी और सन् 1896 में स्वाँते आरहीनियस ने इसके परिमाण या मात्रात्मक आकलन की पद्धति ईजाद की थी, तब उन्हें कतई पूर्वाभास नहीं था कि डेढ़-दो शताब्दी के भीतर स्थिति इतनी भयावह हो जायेगी। नासा के वैज्ञानिक भूमंडल के तापमान के आंकड़ों का अर्द्धशती से भी अधिक समय से गहरा विश्लेषण कर रहे हैं। इस विश्लेषण से निकले निष्कर्ष भृकुटि में बल के लिए पर्याप्त हैं।
हाल में ही अमेरिका के स्कीप इंस्टीट्यूट आॅफ ओस्नोग्राफी संकेत मिले हैं। बीते चार दशकों में महासागरों में जल का सतह पर तापमान तो बढ़ा ही है, आठ सौ मीटर नीचे भी तापमान बढ़ा है। सालाना एक टन कार्बन डाई आक्साइड का अवशोषण महासागरो की सामर्थ्य की परिधि के बाहर है। फलत: उनकी जल-सतह अम्लीय होती जा रही है। सागर की प्रकृति क्षारीय है, किंत बड़ी मात्रा में बन रहा कार्बोनिक एसिड अभूतपूर्व और विनाशकारी परिस्थितियां रच रहा है। कार्बनिक अम्ल सागर के प्राणियों और वनस्पतियों के लिए बड़ा हानिकारक है। बीते लाखों वर्षों में जितना कार्बोनिक एसिड सागर जल में नहीं घुला, उससे कई गुना अधिक बीती एक शती में घुला है। सागरों में घुलती आम्लीयता, जलस्तर में वृद्धि तथा जलधाराओं के प्रवाह में अवरोध प्रलयंकारी आपदाओं की पृष्ठभूमि रच रहे हैं। आगामी वर्षों में अम्लीय वर्षा में तेजी आयेगी। चक्रवात बढ़ेंगे। सुनामी जैसे प्रकोप होंगे। दुर्भिक्ष होंगे। मरुस्थलीकरण बढ़ेगा। नये-नये विकार और रोग उपजेंगे।
हमारी धरती सौर मंडल ही नहीं, ब्रह्मांड का सुंदरतम ग्रह है। कवि यूं ही नहीं कहता - धरती कामधेनु सी न्यारी! लेकिन वहीं कवि कहता है: उठे गूमड़े नीले। इन पंक्तियों को धरती विषयक बयान माना जा सकता है। पहला उसका घोष है; हर्षोद्गार। दूसरा उसका आर्तनाद है। उसमें चेतावनी भी निहित है। क्या होगा, जब ध्रुवीय परितंत्र ही प्रभावित हो जायेगा? आज तो ध्रुवीय भालू, सील मछलियां, वॉलरस और पेंग्विन भी निरापद नहीं हैं। किलमंजारो और एंडीज पर्वत श्रेणियां चपेट में हैं। जीव-जंतुओ की 40 प्रतिशत प्रजातियां दुर्लभ प्रजातियों की श्रेणी में पहुंच गयी हैं। अनेक विलुप्त हो गयी हैं। अनेक विलुप्तप्राय हैं। चार्ल्स डार्विन का अध्ययन स्थल - इक्वेडर का गैलेपागोस द्वीप - अब जैवविविधता का आदर्श प्रदर्श स्थल नहीं रहा। सुंदरवन संकटों से जूझ रहा है। माजुली भी क्षरण का शिकार है। भारत, बंगलादेश, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, थाईलैंड, जाम्बिया, मिस्र, मोजांबीक, सुरीनाम, सेनेगल जैसे दर्जनों देशों की सीमाये समुद्र से लगी हुई हैं। इन देशों की जलवायु, कृषि, जन-जीवन पर गहरे और दूरगामी प्रभावों से इंकार नहीं किया जा सकता। भविष्य में नये-नये रोग और विकार जन्म लेंगे। शारीरिक और मानसिक ही नहीं, अनेक जटिल बीमारियां धरती के प्राणियों को ग्रसेंगी। इससे उनका जीवन-चक्र और बर्ताव प्रभावित होगा और उनका सलीका तथा सलूक बदलेगा। धरती की अद्भुत संरचना में परिवर्तन के दुष्प्रभाव देह में झुरझुरी पैदा करते हैं। धरती की छतरी में छेद हो जाये और कंबन में तार-तार तो नतीजा क्या होगा? फ्लोरिडा विश्वविद्यालय के डॉ. ग्लेन मारिस कहते हैं कि कैरेबियन मछलियों में विषाक्त तत्व विकसित हो रहे हैं और मत्स्याहारियों में उसके फलस्वरूप विकार। समुद्र में गैम्बी यर्डिस्कस नामक शैवाल तेजी से पनप रहे हैं। ये शैवाल जहरीले है। इन शैवालों का विष मछलियों में और उनसे मनुष्यों में प्रवेश कर रहा है। यह विष-चक्र नहीं तो क्या है?
अघट घट रहा है दोनों गालार्द्धों में और अंतरिक्ष में भी। ऐसा नहीं है कि चेतावनियां अनसुनी हैं। ऐसा भी नहीं है कि धरती की भीषण व्यथा- कथा सुनकर लोग हाथ पर हाथ घरे बैठे हैं। 'साइलेंट स्प्रिंग' बेस्ट सेलर साबित हुई। लोगों ने उसे पढ़ा और बिटवीन द लाइंस को बूझा। लोग चेते। सन् 1969 में दक्षिण कैलीफोनिया के तट पर दुर्घटनावश खनिज तेल गिरा तो सीनेटर गेलोर्ड नेल्सन ने दौरा किया। उन्होंने तबाही का मंजर देखा। उन्होंने कॉलेजों में 'टीच इन' प्रोग्रामों की श्रृंखला शुरू की। डेनिस हेस और अन्य के सहयोग से यह मिशन राष्ट्रीय स्तर पर फैला। उसका सूत्रपात हुआ 22 अप्रैल, सन् 1970 को और उस दिन का नामकरण हुआ पृथ्वी दिवस।
पृथ्वी दिवस क्या है? वस्तुत: पृथ्वी दिवस धरती के स्वास्थ्य की चिंता का दिन है। कायदे से कोई एक नहीं, वरन हर दिन पृथ्वी दिवस होना चाहिए। धरती की चिंता करना धरतीपुत्रों का कर्तव्य है। परमपुनीत कर्तव्य। इस दिन रस्मी आयोजन नहीं होने चाहिये, बल्कि हमें धरती के अच्छे स्वास्थ्य के लिए संकल्प करना चाहिये और उसकी पूर्ति के लिये जतन भी। ये यत्न स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होने चाहिये। जाति, धर्म, लिंग, रंग और नस्ल से परे। इसे हमें वक्त का तकाजा और मानवीय कर्तव्य मानना चाहिये। यह अमेरिकी समाज की एकजुटता और जागरूकता का ही परिणाम है कि वहां शुद्ध वायु कानून और शुद्ध जल कानून पारित हो सके।
प्रसंगवश अपनी दिल्ली पर गौर करें। दिल्ली में प्रदूषण की क्या स्थिति है? कालिंदी की दुर्गति देखिये। दिल्ली विश्व की प्रदूषित राजधानियों में सिरसौर है। तालिका में ढाका, दुशांबे और बगदाद से भी ऊपर। आत्मघाती उपक्रमों में हम अग्रणी है। हम अदालत की नसीहते इग्नोर करते हैं और राष्ट्रीय पर्व पर अवज्ञा स्वरूप फुलझड़ी- पटाखे दागने को अपना शौर्य समझते हैं। आज दिल्ली एक बड़ा रुग्णालय है। प्रदूषण के विकराल काल के प्रकोप से देश में आयु घट रही है। जबकि हमने खाद्य एवं चिकित्सा उपक्रमों के साझा मिशनों के जरिये अथक प्रयासों से औसत आयु में इजाफा किया था। अध्ययनों के निष्कर्ष स्तब्धकारी हैं। तीव्र और भयावह प्रदूषण के फलस्वरुप यूँ तो सारे भारत में औसत आयु घटने के संकेत हैं, किन्तु दिल्ली में यह दर अन्यन्त्र से तकरीबन डेढ़ गुना है। विशेषज्ञों का मानना है कि तीव्र एवं व्यापक प्रदूषण से आगामी वर्षों में अवसाद, उच्च तनाव, रक्तचाप, समेत स्वाभाविक रोगों में वृद्धि होगी और आत्महत्या की दर में इजाफा होगा। गौरतलब है कि भारत के विपरीत चीन में आत्महत्या की दर में कमी आई है और बेहतर मेनू या खुराक की बदौलत जापान के लोगों का औसत कद ऊँचा हुआ है, जाकि भारत में यह घटा है। बहरहाल, प्रदूषण वैश्विक परिघटना है और समूचा विश्व - दोनों गालार्द्धों और समस्त द्वीप उसकी चपेट में हैं। स्वयंं को निरापद मानकर कोई भी भूभाग इठला नहीं सकता। विकास का ढर्रा सारी दुनिया में कमोबेश यकसा है और आपदाओं के लिये सरहदें और नागरिकताएं मायने नहीं रखती। यह हमारे लिये ग्लानि का विषय होना चाहिये या पाविरण के प्रति जागरूकता कि भारत में एक भी जगह ऐसी नहीं है, जो स्वास्थ्य और निर्दोष पर्यावरण के मान से विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लुएचओ) के मानकों के अनुरूप हो।
धरती क्या है? वसून धारयति यस्य वसुंधरा स:। जो धारण करती है, वहीं धरती है। लेकिन हमारी विलोम गति को धरती की धारक क्षमता में ह्रास हो रहा है। अंतरराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन का क्रम शुरू हुये अर्द्धशती बीत गयी। यूएनओ की पहल पर सन 1972 में स्वीडन में स्टाकहोम में पहला सम्मेलन हुआ था, जिसमें 119 देशों ने भाग लिया था। सम्मेलन स्टाकहोम घोषणा का बायस बना और 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने का सिलसिला शुरू हुभा। तदंतर सन् 1992 में ब्राजील में रियो डि जेनिरा में हुआ सम्मेलन मील का पत्थर सिद्ध हुआ, जिसमें 172 देशों ने शिरकत की। इसके बाद पयर्यावरण की चिंता के तहत बर्लिन, जेनेवा, क्योटो, जोहांसबर्ग, नैरोबी, बाली, कोपन हेगेन, कानकुन, डरबन और दोहा आदि स्थानों पर सम्मेलन हुये। चिंताओं का इजहार हुआ। योजनाएं बनीं। लटकीं। विकासशील और विकसित देशों में मतवैभिन्य रहा। कटौती और अनुकूलन पर बहस-मुबाहिसा होता रहा। उपभोग और मुनाफे की लालसा के वशीभूत धनी देश कोई कुर्बानी देने को तैयार नहीं हुये। कहीं प्रतिस्पर्धा आड़े आईं तो कहीं अहम। अमेरिका का रवैया भिन्न और चौधराहट का रहा। शर्तों पर वह जब-तब अड़ा। फलत: कारगर उपायों के नाम पर नतीजा ढाक के तीन पात रहा। वक्त के साथ प्रदूषण का डर बड़ा होता गया और संकटों का कुहासा घना।
प्रदूषण वैश्विक समस्या है। और अंतरिक्ष भी उससे अछूता नहीं है। जरूरत है कि विश्व के सभी राष्ट्र कंधे से कंधा मिलाकर प्रदूषण के सर्वग्रासी दानव के खिलाफ निर्णायक जंग छेड़ें।, यह एक-दो दिन का युद्ध नहीं है। इसमें बरसों लगेंगे। चीजे जटिल हैं। वे ऋजुरैखिक नहीं है। हम विज्ञान को तिलांजलि नहीं दे सकते। विज्ञान हमारी जरूरत है। हमें उस वैज्ञानिक - मिजाज (साइंटिफिक टेंपर) की जरूरत है, जिसकी ओर भारत के स्वप्नदृष्टा प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने इंगित किया था। महात्मा गांधी के विचार हमारे लिये स्थायी आलोक स्तंभ है। 'हिन्द स्वराज' में उनके विचार आज भी सारगर्भित हैं। ऐसे ही, भारत में वैज्ञानिक चेतना और वैज्ञानिक संस्थानों के सूूत्रधार पं. नेहरू का सन् 1957 में मुख्यमंत्रियों के नाम लिखा पत्र हमारे लिये कीमती दस्तावेज है। मुद्दे बहुत सारे है; परंतु सबसे अहम है धरती और धरती पर मानव सभ्यता का भविष्य। यह पीड़ा, अनिश्चितता और दुश्चिंताओं का दु:सह दौर है। सुविख्यात ब्रह्मांड विज्ञानी प्रो. स्टीफन हॉकिंग इस मुद्दे को लेकर सजग और चिंतित थे। सन् 2016 में बीबीसी को प्रदत्त साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि इंसान का धरती पर रहने का समय पूरा होता जा रहा है। उसे अब अपने लिये दूसरी धरती खोज लेनी चाहिये। धरती की बुरी तरह बिगड़ चुकी सेहत के हवाले से उन्होंने कहा था कि यह कार्य मनुष्य को अगले सौ वर्षों में कर लेना चाहिये। बकौल प्रो. हाकिंग, कृत्रिम मेधा (आटीर्फीशियल इंटेलीजेंस) पृथ्वी पर संभवत: मानव सभ्यता की अंतिम उपलब्धि होगी।
महात्मा गांधी विश्व में मुक्ति के महानतम और अलीक योद्धा रहे हैं। वह हर तरह के अभिशाप और विकार से मुक्ति के हिमायती थे। आज धरती प्रदूषण से मुक्ति की आकांक्षी है। गांधी का कहना था कि धरती सबकी जरूरतें पूरी कर सकती है, सबका लालच नहीं। उन्होंने कहा था- The earth, the land, the air and the water are not an inheritance from our forefathers but an loan from our children. So we have to handover to them at least as it was handed over to us.
क्या महात्मा के इस अमृत वाक्य में धरती को बचाने का मंत्री निहित नहीं है?