राजेश बादल
अठारहवीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू हो चुका है।अपनी उमर के हिसाब से तो सदन बालिग़ हो रहा है ,लेकिन उसका चेहरा इस बार इतिहास का सर्वाधिक कुपोषित और निर्बल दिखाई दे रहा है।जब इस देश की आबादी क़रीब पैंतीस - छत्तीस करोड़ थी तो पहली लोकसभा की शक़्ल सुपोषित थी और सर्वाधिक 677 सार्थक बैठकों ने इसे ऐतिहासिक शिखर पर बैठा दिया था।राज्यसभा ने भी 565 बैठकों के माध्यम से कीर्तिमान बनाया था।उस लोकसभा ने 3784 घंटे काम किया था।इसके बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1971 से 1977 तक कुल 613 बैठकें हुईं और रिकॉर्ड 4071 घंटे काम किया गया ।उस समय देश की आबादी इकतालीस करोड़ तक जा पहुंची थी।लेकिन सत्रहवीं लोकसभा आते आते यह स्वस्थ्य चेहरा पीला और झुर्रियों से भरी कुम्हलाई शक़्ल में तब्दील हो चुका है।इस लोकसभा ने केवल 274 बैठकें कीं,जबकि मुल्क़ की जनसंख्या डेढ़ सौ करोड़ पर जा पहुँची है।संसदीय इतिहास में यह न्यूनतम आँकड़ा है।इससे पहले सोलहवीं लोकसभा भी कोई बहुत बेहतर नहीं थी। उन पाँच वर्षों में लोकसभा की सिर्फ़ 331 और राज्य सभा की 329 बैठकें हुईं। ज़ाहिर है कि संसदीय लोकतंत्र की यह अच्छी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता।
जब 1952 में पहले आम चुनाव के बाद निर्वाचित जन प्रतिनिधियों ने देश की बागडोर सँभाली तो पक्ष और प्रतिपक्ष की संयुक्त चिंता यह थी कि भारत के विराट आकार को देखते हुए संसद साल भर में कितने दिन काम करे। संसद की सामान्य कामकाज समिति ने अगले ही बरस याने1953 में इस मसले पर विचार शुरू किया और1955 में उसने सिफ़ारिशें संसद पटल पर रख दीं। इनमें सुझाव दिया गया था कि साल में संसद के कम से कम तीन सत्र हों।इन सत्रों में लोकसभा की न्यूनतम 120 और राज्य सभा की 100 बैठकें होनी चाहिए।समिति की अनुशंसाओं को पक्ष और प्रतिपक्ष ने शिरोधार्य किया।परिणाम चमत्कारिक रहे और संसद के इतिहास में कीर्तिमान बना गए।प्रत्येक वर्ष औसतन 135 बैठकें हुईं।प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे लोकतंत्र को मज़बूत बनाने वाला क़दम बताया था।बताने की आवश्यकता नहीं कि इकतालीस करोड़ के राष्ट्र की प्राथमिकताएँ और चिंताएँ डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले हिन्दुस्तान की चिंताओं से कम नहीं थीं। दूसरी ओर यह भी मानना होगा कि आज राष्ट्रीय समस्याएँ भी तेज़ी से बढ़ीं हैं।बेरोज़गारी,मँहगाई और भ्रष्टाचार से निपटने के कारगर उपाय यह देश नही खोज पा रहा है।इस चुनौती भरे कार्य में प्रतिपक्ष भी सक्रिय भूमिका नहीं निभा पा रहा है।संसद में उसकी भूमिका न के बराबर रह गई है।इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत के लिए समस्याओं का बड़ा गुच्छा उलझा हुआ है।विदेश नीति सवालों के घेरे में है,औसत भारतीय के जीने की स्थितियाँ विकट हो रही हैं और हमारी संसद में उन पर विचार के लिए समय सिकुड़ता जा रहा है।वर्तमान परिस्थितियों में तो संसद को साल में कम से कम 200 दिन काम करना चाहिए । पर,उम्मीद कम ही है ।सत्रहवीं लोकसभा का पहला सत्र चालीस दिन चला था और अठारहवीं लोकसभा का पहला सत्र सिर्फ़ नौ दिन चलेगा ।इसमें तीन दिन शपथ में निकल जाएंगे और दो दिन छुट्टी रहेगी । क्या प्रतिपक्ष के अधिक ताकतवर होने को इसके पीछे समझा जाए ?
अंशकालिक काम करके जनप्रतिनिधि पूर्णकालिक वेतन और भत्ते ले रहे हैं।यह नैतिक भ्रष्टाचार ही है ।दस साल में संसद और उसके कामकाज पर लगभग पंद्रह हज़ार करोड़ रूपए ख़र्च हुए हैं।हमारे जन प्रतिनिधि इतनी विराट धनराशि ख़र्च करके देश को क्या रिटर्न गिफ्ट दे रहे हैं ?
भारत के सामने मुँह बाए खड़ी दिक़्क़तों पर हमने संसद को गंभीर चर्चाएँ और उनका समाधान करते देखा है।मौजूदा दौर में यह सिलसिला थम चुका है। संसद का पुस्तकालय समसामयिक सन्दर्भों का अनमोल ख़ज़ाना है।दो ढाई दशक पहले तक हमने इस पुस्तकालय में सांसदों को दिन भर अध्ययन करते और नोट्स लेते देखा है।आज साक्षरता का प्रतिशत अस्सी पार का दावा किया जा रहा है और संसद पुस्तकालय सूना रहता है।एक सांसद हिंदी में एक पंक्ति तक शुद्ध नहीं लिख पाता तो पढ़ने की किस संस्कृति की बात करें ? संविधान सभा की चर्चाओं में मसला उठा था कि संसद और विधानसभाओं में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों का स्नातक होना अनिवार्य कर दिया जाए।तब तर्क दिया गया कि भारत की केवल 18 फ़ीसदी आबादी साक्षर है।ऐसे में स्नातक होने की आड़ लेकर कोई ग़लत व्यक्ति चुन कर आ सकता है।भविष्य में जब देश पढ़ लिख जाएगा तो बौद्धिक रूप से संपन्न जन प्रतिनिधि चुनकर आने लगेंगे।उस समय स्नातक पर ज़ोर दिया जाए। उसके बाद किसी ने ध्यान नहीं दिया और राजनीति में नव सामंतवाद हावी हो गया।अब बाहुबल और धनबल से समृद्ध कारोबारी ही चुनाव लड़ने में सक्षम हैं।कमज़ोर आर्थिक स्थिति वाले ईमानदार प्रतिभाशाली नौजवान लोकतान्त्रिक अनुष्ठान में आहुति नहीं दे पाते।यह चिंता कौन कर रहा है ?
बात यहीं ख़त्म नहीं होती।बहुदलीय लोकतंत्र में छोटे राजनीतिक दल का भी समान महत्व है।उसकी उपेक्षा सामूहिक नेतृत्व की मूल भावना के ख़िलाफ़ है।सत्रहवीं लोकसभा में पहली बार संविधान के अनुच्छेद 93 का पालन नहीं हुआ।इसमें प्रावधान है कि लोकसभा शीघ्र अति शीघ्र अध्यक्ष - उपाध्यक्ष का चुनाव करेगी।पाँच वर्षों में कोई उपाध्यक्ष नहीं चुना गया।आमतौर पर यह पद प्रतिपक्ष के पास रहा है।मगर,पूरे पाँच बरस लोकसभा को उपाध्यक्ष नहीं मिला। सोलहवीं लोकसभा में भी इस परंपरा का पालन नहीं हुआ।सत्तारूढ़ दल ने अपने गठबंधन के एक दल को यह पद दिया था।इस बार विपक्ष का आकार सत्रहवीं लोकसभा से बहुत बड़ा है।इसलिए उम्मीद करें कि प्रतिपक्ष को लोकसभा उपाध्यक्ष मिलेगा।इस बार नेता प्रतिपक्ष तो तय है।उसकी संख्या हाशिए पर नहीं रखी जा सकती।