राजेश बादल
मणिपुर जल रहा है। आज़ादी के बाद किसी राज्य में ऐसी हिंसा और क्रूरता नहीं देखी। पंजाब, कश्मीर और असम में भी इतनी भयावह तस्वीर नहीं दिखाई दी। जितनी घटनाएँ मणिपुर में घटीं हैं ,उनका बहुत थोड़ा हिस्सा हमारे सामने आया है। स्वयं राज्य के मुख्यमंत्री इसकी पुष्टि कर चुके हैं। राष्ट्रपति की प्रतिनिधि और मणिपुर की राज्यपाल ने भी स्वीकार किया है कि उन्होंने कभी ऐसी हिंसा नहीं देखी। अब तक शांत और प्रसन्न रहता आया मणिपुर आज अशांत है और भारतीय हिंदी पत्रकारिता का चेहरा और स्याह नज़र आता है।हाल ही में एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने भी अपील की थी कि मणिपुर के हालात की रिपोर्टिंग करते समय बेहद सावधानी और ज़िम्मेदारी बरती जाए।
गिल्ड ने माना था कि मणिपुर के मामले में अनेक संवाददाताओं और संपादकों ने संयम और पत्रकारिता धर्म का पालन नहीं किया। कुछ कवरेज तो साफ़ साफ़ पूर्वाग्रही थे। उनमें तथ्यों का प्रतिपरीक्षण नहीं किया गया था। गिल्ड ने आग्रह किया था कि पत्रकारों को पेशेवर मान्य सिद्धांतों और ईमानदारी के आधार पर पत्रकारिता करनी चाहिए।संपादकों की इस सर्वोच्च संस्था ने यह भी कहा था कि पत्रकारिता को लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का स्थान दिया गया है।अब पत्रकारों का दायित्व है कि वे इस लोकतांत्रिक छबि को बनाए रखें। एडिटर्स गिल्ड अब एक तथ्यान्वेषी दल मणिपुर भेजना चाहता है। यह दल मणिपुर की स्थिति और वहाँ पत्रकारिता की चुनौतियों का अध्ययन करेगा।
यक़ीनन एडिटर्स गिल्ड की इस भावना या मंशा का आदर किया जाना चाहिए।उसकी चिंता जायज़ है। अफ़सोस की बात है कि पत्रकारों के अन्य संगठनों , क्लबों और संघों ने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए गिल्ड के साथ एकजुटता नहीं प्रदर्शित की है। इससे उनकी अपने सरोकारों के प्रति उदासीनता प्रकट होती है। हालिया दशकों में पत्रकारिता के पेशे में सरोकारों के प्रति गिरावट आई है।राष्ट्रीय और सामाजिक मसलों पर कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो चुप्पी की वजह समझ में नहीं आती। याद आता है कि पंजाब और कश्मीर में जब आतंकवादी हिंसा चरम पर थी तो महान संपादक राजेंद्र माथुर के संपादकीयों और लेखों ने सरकार को हिला कर रख दिया था। उनकी कलम सोच को झिंझोड़ती थी। लेकिन आज तो इक्का दुक्का उदाहरण छोड़ दें तो पाते हैं कि सरकार को ललकारने और उसके कृत्यों को ग़लत कहने का साहस ही संपादकों में नहीं बचा। जब सेनानायक ही हथियार डाल दें तो फौज किस मानसिकता से जंग में उतरेगी ? आज के दौर में ऐसे संपादकों की ज़रुरत है ,जो हुकूमत के इशारे पर नहीं नाचें,बल्कि सियासत को अपनी पेशेवर कलम से नचाएँ ।हर दौर अपने कुछ कीर्तिमान रचता है ,गढ़ता है। हम अपने दौर में पत्रकारिता की कलंक कथाएँ रच रहे हैं ।