राजेश बादल
भारतीय लोकतंत्र अब तक लोकसभा के सत्रह चुनाव देख चुका है। निर्वाचन आयोग के लिए अपने जन्म से लेकर किशोरावस्था तक पहुँचने की यात्रा अगर कठिन नहीं थी तो बहुत आसान भी नहीं रही। सत्रह निर्वाचन पहले क़रीब सत्रह करोड़ मतदाता थे।इनमें लगभग पचासी फ़ीसदी निरक्षर थे।उस पहले चुनाव में साठ फ़ीसदी मतदान हुआ था,जबकि मतदान का हक़ 21 साल या उससे अधिक आयु वाले मतदाता को था।बीते बहत्तर साल में मतदाता बढ़कर लगभग 97 करोड़ हो गए हैं।इनमें लगभग 80 प्रतिशत साक्षर हैं लेकिन मतदान का औसत प्रतिशत 70 तक भी नही पहुँच सका है जबकि अब 18 साल के मतदाता भी अपना वोट डाल सकते हैं।
इसका अर्थ है कि संसार में सबसे बड़ा चुनाव कराने वाले देश में नागरिक अभी भी अपनी लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी को लेकर गंभीर नहीं हैं। उनकी उदासीनता में बड़ी चेतावनी भी छिपी है। यह चेतावनी कहती है कि प्रजातंत्र में बहुमत के आधार पर शासन तंत्र संचालन की ज़िम्मेदारी नहीं मिल रही है। नतीजतन हम पाते हैं कि पिछले 72 वर्षों में 8 से लेकर 30 प्रतिशत वोट पाने वाले राजनेता संसद और विधानसभाओं में नुमाइंदगी करते आ रहे हैं।स्वस्थ्य लोकतंत्र की मंशा बहुमत पाने वाले राजनेता को अधिकार के साथ सरकार चलाने का दायित्व देने की है। यहाँ बहुमत से तात्पर्य 100 मतदाताओं में से कम से कम साठ से पचहत्तर प्रतिशत मतदाताओं का समर्थन होना चाहिए।लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं होता।सौ में से पैंसठ - सत्तर वोटर अपने मताधिकार का उपयोग करते हैं।इनमें से पच्चीस से तीस प्रतिशत वोट दोनों बड़ी राष्ट्रीय पार्टियाँ ले जाती हैं।अन्य छोटे दल तथा निर्दलीय उम्मीदवार आठ से दस प्रतिशत मत हासिल कर लेते हैं। अर्थात पच्चीस से तीस फ़ीसदी वोट पाने वाला उम्मीदवार शेष 70 प्रतिशत मतदाताओं का भी प्रतिनिधित्व करता है। यह अफ़सोसनाक़ है।
प्रश्न यह है कि इस हालत को ठीक करने के लिए क्या किया जाए ? मतदान बढ़ाने के नज़रिए से मतदाताओं की मुश्किलों को यदि ठीक नहीं किया जाता तो चुनाव आयोग कितने ही अभियान चलाए ,कोई लाभ नहीं होगा। वोटरों की कठिनाइयाँ समझे बग़ैर मतदान की तारीख़ें तय हो जाती हैं। यह परंपरा उचित नहीं है। हालांकि संसद और विधानसभा के कार्यकाल की बाध्यता भी इसमें आड़े आती है। मगर ,पक्ष और प्रतिपक्ष संसद के ज़रिए इसका कोई व्यावहारिक समाधान खोज सकते हैं। विडंबना यह है कि अप्रैल - मई के महीने भारत जैसे विराट देश में अलग अलग मौसम लेकर आते हैं।कहीं तेज़ गर्मी,फसल कटाई ,नई फसल की तैयारी ,छात्रों की परीक्षाएँ और छुट्टी का मूड रहता है तो कुछ प्रदेशों में मॉनसून और बारिश का मौसम रहता है। ऐसे में कोई एक मौसम चुनाव के लिए निकालना आसान नहीं है। अलबत्ता अक्टूबर - नवंबर के महीने फिर भी बेहतर विकल्प हो सकते हैं।
असल में लंबी अवधि तक चलने वाली चुनाव प्रक्रिया मतदाताओं में उदासीनता पैदा करती है। कई चरणों में चुनाव कराने से आम अवाम की अपनी ज़िंदगी पर उल्टा असर पड़ता है। यह समझ से परे है कि जब संचार और तकनीक आधुनिक होती जा रही है तो निर्वाचन के दिन क्यों बढ़ते जा रहे हैं। हैं। जब 1952 में पहले चुनाव हुए तो इस देश को राष्ट्रीय स्तर पर संसदीय मतदान संपन्न कराने का कोई अनुभव नहीं था। चुनाव क़ानून बना।आयोग का गठन हुआ। मतपेटियों का निर्माण ,मतदान पत्र का प्रकाशन। अधिकारियों को प्रशिक्षण और उन्हें दूरस्थ अंचलों में भेजना बहुत कठिन काम था। फिर भी चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन के नेतृत्व में क़रीब चार महीने में चुनाव संपन्न करा लिए गए। मगर,इसके बाद के चुनावों में तो आयोग को जैसे पंख लग गए। बिजली की तेज़ी से चुनाव प्रक्रिया पूरी कराई गई। एक नज़र बाद के निर्वाचनों के समय पर डालें तो हैरत होती है। मसलन 1957 के चुनाव केवल 20 दिन में संपन्न कराए गए। इसके पश्चात 1962 में तो केवल 7 दिन लगे। बाद के आँकड़े भी चुनाव आयोग की रफ़्तार बताते हैं।जैसे 1967 में सिर्फ़ 5 दिन ,1971 में मात्र 10 दिन ,1977 में 5 दिन,1980 में चार दिन ,1984 में केवल 5 दिन ,1989 में 5 दिन ,1991 में 25 दिन ,1996 में 33 दिन,1998 में फिर गाड़ी पटरी पर आई और केवल 7 दिन में चुनाव संपन्न हो गए। इसके बाद 1999 में फिर 31 दिन लगे ,2004 में 20 दिन ,2009 में 27 दिन ,2014 में 35 दिन और 2019 में चुनाव आयोग ने 38 दिन लगाए। इस बार 2024 का चुनाव 44 दिन का समय ले रहा है। अब तक का सर्वाधिक समय इस बार की मतदान प्रक्रिया ले रही है। ज़ाहिर है कि मतदाता लंबे समय तक प्रचार और चारों तरफ मीडिया के सारे मंचों पर प्रचार का माहौल देखते देखते ऊब चुके होते हैं। वे खीजने लगते हैं।उनके सरकारी काम अटके रहते हैं। लंबे समय तक लागू रहने वाली आचार संहिता भी कई मुश्किलें पैदा करती है। इस बार भी कम मतदान का यह भी बड़ा कारण है।
मुझे याद है कि मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन 1991 में पूरे देश में सिर्फ 3 दिन में मतदान संपन्न कराना चाहते थे। सारा देश भी इसके लिए तैयार था। उन्होंने 9 अप्रैल को संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि चुनाव 18 से 26 मई के बीच करा लिए जाएँगे। इसके लिए उन्होंने तीन -तीन तारीख़ों के तीन जोड़े बनाए थे। यह थे -18 ,21 और 24 मई या 19,22 और 25 मई और 20,23 तथा 26 मई। बताने की आवश्यकता नहीं कि यह मुल्क़ सुरक्षा के नज़रिए से पूरी तरह तैयार था और चुनाव प्रक्रिया लंबी खींचने के लिए कोई बहाना भी आयोग के पास नहीं था।पिछले लोकसभा चुनाव का आँकड़ा इस दृष्टिकोण से हालात को गंभीर बनाता है कि उसमें 30 करोड़ से ज़्यादा लोगों ने वोट नहीं किया था। इसमें बड़ी तादाद शहरी मतदाताओं और शिक्षित बेरोज़गार नौजवानों की थी।इस बार भी यही स्थिति है।इसके अलावा प्रवासी श्रमिकों के लिए भी रोज़ी रोटी छोड़कर वोट डालने के लिए गाँव जाना संभव नहीं होता। जागरूक और बौद्धिक तबके की मतदान में घटती दिलचस्पी गहरी चिंता का विषय है।राजनेताओं को भी समझना होगा कि 2024 का भारत प्रचार के परंपरागत तरीक़े स्वीकार नहीं करना चाहता।