राजेश बादल
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन की चीन यात्रा यूँ तो औपचारिक तौर पर कुछ भी ख़ुलासा करने के लिए नहीं है,लेकिन उसके अनेक समीकरण सियासी गर्भ में छिपे हुए हैं।उनके कूटनीतिक अर्थ भी हैं ,जो शायद दोनों ही देश फ़िलहाल नहीं बताना चाहेंगे।फिर भी पाँच साल बाद अमेरिका के एक वरिष्ठ राजनयिक का पहला चीन दौरा महत्वपूर्ण है। पहले वे फरवरी में चीन आने वाले थे ,लेकिन गुब्बारा कांड ने उनकी यात्रा में सुई चुभो दी थी। अमेरिकी वायु क्षेत्र में एक संदिग्ध चीनी गुब्बारा दिखा। उसे अमेरिकी वायुसेना ने नष्ट कर दिया था। अमेरिका ने उसे जासूसी गुब्बारा कहा। चीन का कहना था कि वह एक मौसम का अध्ययन करने वाला गुब्बारा था ,जो रास्ता भटक गया था। इस तरह ब्लिंकन की यात्रा पाँच महीने के लिए टल गई। अब ब्लिंकन के चीन दौरे में रूस और यूक्रेन की जंग के भविष्य के बारे में चर्चा हो सकती है। चीन और अमेरिका के बीच चल रहे कारोबारी शीत युद्ध का समाधान खोजना हो सकता है। भारत के लिए एक छिपा राजनयिक सन्देश भी हो सकता है और अमेरिका में जो बिडेन की दूसरी पारी के लिए वैश्विक आधार मज़बूत करना भी हो सकता है। इनमें से कोई एक वजह भी हो सकती है और सारे कारण भी हो सकते हैं क्योंकि अमेरिका और चीन दोनों ही चतुर,चालाक और धूर्त व्यापारी हैं। वे किसी भी हाल में अपने नुक़सान पर रिश्तों की फसल नहीं बोएँगे।
दरअसल रूस और यूक्रेन के बीच जब जंग शुरू हुई थी तो वह कोविड के ठीक बाद का समय था। अमेरिका समेत यूरोप के अनेक देशों की अर्थ व्यवस्था लड़खड़ाई हुई थी।ऐसे में उन्होंने यूक्रेन को एक ऐसा खेत माना ,जिसका उत्पादन उनकी वित्तीय भूख शांत कर सकता था। यूक्रेन का विराट आकार और उसकी उर्वरा शक्ति इसकी गवाही देती थी।वह एक सक्षम और आत्मनिर्भर देश था। अमेरिका और उसके दोस्तों ने यूक्रेन में अपने आर्थिक संकट का समाधान देखा।इसलिए उन्होंने जंग को हवा दी। जब युद्ध का सिलसिला लंबा खिंच गया तो उनकी आँखें खुलीं। उन्हें यह भी समझ आया कि क़रीब सत्तर साल तक सोवियत संघ के झंडे तले पलते रहे यूक्रेन की अमीरी के बहुत से बीज़ तो रूस से आते हैं। हथियार और अन्य साजो सामान देकर वे यूक्रेन को अंतहीन अँधेरी सुरंग में धकेल रहे हैं।उन्होंने जो पैसा और संसाधन यूक्रेन में लगाया,उसकी भरपाई तो यूक्रेन दशकों तक नहीं कर पाएगा । यह जानकर उनके होश उड़े हुए हैं। समूचे यूरोप का पेट कच्चे तेल से भरने वाला रूस अब उनसे छिटका हुआ है। वे करें तो क्या करें ? जिस तरह अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका ने अपने आप को झौंका था ,वह बाद में घाटे का सौदा साबित हुआ। इसी तर्ज़ पर अमेरिका ने यूक्रेन नामक ओखली में सिर दे दिया है तो उससे निकलने और मूसल से बचने की कोशिश करना उसकी मजबूरी बन गया है। चीन इसमें उसके लिए संकटमोचक का काम कर सकता है।रूस को व्यावहारिक समाधान की मेज़ पर लाने का काम चीन ही कर सकता है। ब्लिंकन की यात्रा का यह छिपा मक़सद हो सकता है और यह चीन के लिए भी ज़रूरी है।
चीन भी ब्लिंकन की यात्रा के बहाने अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए विवश दिखाई देता है।मौजूदा वैश्विक समीकरणों के तहत चीन और अमेरिका धुर विरोधी हैं।पर,वे एक दूसरे की ताक़त से भी वाक़िफ़ हैं।वे आपस में गुर्रा तो सकते हैं ,लेकिन काट नहीं सकते।जो बिडेन के पहले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीन पर कई क़िस्म की पाबंदियाँ लगा दी थीं।उन्होंने चीनी सामान पर आयात कर बहुत बढ़ा दिया था। ट्रंप चीन को कोविड की महामारी के लिए ज़िम्मेदार मानते थे। इससे चीन को आर्थिक मोर्चे पर बड़ा नुक़सान उठाना पड़ा।हालाँकि ट्रंप के बाद जो बिडेन ने भी एक क़दम आगे बढ़कर चीन को कंप्यूटर चिप्स निर्यात पर प्रतिबन्ध लगा दिए थे। बदले में चीन ने कम्प्युटर चिप के उत्पादन में लगने वाला माइक्रोन अमेरिका को देना बंद कर दिया। इससे अमेरिकी कम्प्युटर बाज़ार लड़खड़ा गया। इसके अलावा चीन के केमिकल बाज़ार का सबसे बड़ा ख़रीददार अमेरिका है।आप मान सकते हैं कि विरोधी खेमों के ये चौधरी प्रतिद्वंद्वी होते हुए भी कारोबार में सबसे बड़े साझीदार हैं।अब दोनों बड़े देश चाहते हैं कि होड़ के बावजूद वे एक दूसरे को आर्थिक क्षति नहीं पहुँचाएँ।इसके अलावा अमेरिकी समाज में नशीली मौतों के लिए भी काफी हद तक चीन ज़िम्मेदार है। असल में चीन से एक रसायन के निर्यात से फैंटानिल नाम का कृत्रिम नशीला पदार्थ बनता है। यह हेरोइन से कई गुना घातक है।अमेरिका की नौजवान पीढ़ी को बड़ी संख्या में इसकी लत लग चुकी है और वे जान गँवा रहे हैं। बिडेन सरकार के लिए सामाजिक मोर्चे पर यह बड़ी चुनौती बन गया है।यह रसायन अमेरिका के लिए आयात करना भी आवश्यक है और अपने नौजवानों को लत से बचाना भी है। मुमकिन ही कि ब्लिंकन की इस यात्रा में कोई करामाती फार्मूला मिल जाए।
अब आते हैं विदेश मंत्री ब्लिंकन की यात्रा के बाद भारत पर पड़ने वाले असर पर।यह छिपा नहीं है कि मौजूदा विश्व में अमेरिका एक लोकतांत्रिक बनिया है तो भारत एक लोकतांत्रिक फ़क़ीर है।अमेरिका अपने लोकतंत्र का उपयोग अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए करता है। भारत का हाथ इस मामले में तंग है।भारत बेवजह डोनाल्ड ट्रंप के चुनाव प्रचार में एक पक्ष बना। उसका प्रचार नए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन को नहीं पसंद आया।कार्यकाल शुरू करने के बाद लंबे समय तक वे खिंचे खिंचे रहे . वैसे भी कश्मीर नीति के बारे में उनकी और उप राष्ट्रपति कमला हैरिस के विचार भारत के अनुकूल नहीं हैं।इसलिए एशिया में उन्हें एक बड़ा बाज़ार चाहिए ,जो भारत से अलग हो। यह मुल्क़ चीन के अलावा दूसरा नहीं हो सकता। भारत के लिए चीन और पाकिस्तान के मामले में अमेरिकी नीति पर भरोसा करना मुश्किल है।वह भारत के लोकतंत्र की तारीफ़ तो करता है ,पर अधिकतर अवसरों पर भारत के दुश्मनों के पाले में खड़ा दिखाई दिया है।चीन तो यही चाहेगा कि ब्लिंकन की यात्रा के परिणाम हिन्दुस्तान के हितों की रक्षा नहीं करें।