राजेश बादल
सौ फ़ीसदी निष्पक्षता कुछ नहीं होती। लेकिन जितनी अधिक से अधिक हो,उतनी अच्छी। संसार भर में यह स्थापित सत्य है कि पत्रकारिता निष्पक्ष भले ही नहीं हो,पर सरकार या हुकूमत के पक्ष में किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए। उसका पलड़ा आम आदमी के पक्ष में झुका हुआ होना चाहिए। यही सच्ची पत्रकारिता है। जनता ग़लत नहीं होती। वह लोकतंत्र में अपने नुमाइंदों के चुनाव की समझ और सामर्थ्य रखती है। संसद और विधानसभाओं के लिए अपने प्रतिनिधि चुनकर भेजती है तो वह ग़लत कैसे हो सकती है ? यदि वह ग़लत नहीं है तो उसका पक्ष लेना पत्रकारिता के लिए ग़लत कैसे हो सकता है ?
अफ़सोस है कि आज हुकूमत ने अपने पत्रकार और संपादक अलग पैदा कर दिए हैं। हुकूमती पत्रकारों का यह वर्ग हमेशा सरकार के गीत गाता रहता है। चाहे सत्ता सच हो या झूठ। ज़ाहिर है कि पत्रकारिता के ऑर्केस्ट्रा से जब सिर्फ़ सरकारी धुन निकलेगी तो वह कई बार बेसुरी होगी।वह लोकतंत्र भी बेसुरा होगा। चारण या भाट परंपरा यही है। चारण अपना हित तो कर लेता है ,पर मुल्क़ की लुटिया डुबो देता है। इसलिए मीडिया की समूची ज़मात को देश की ख़ातिर केवल अवाम की चिंता करनी चाहिए।सरकार और प्रतिपक्ष के हित देशहित से ऊपर नहीं होते । पत्रकारिता का असल चेहरा यही है। दुःख है कि ऐसा नहीं हो रहा है।
बीते दिनों संसद में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने सेना में अग्निवीरों की भरती पर नीति विषयक गंभीर सवाल उठाए।लेकिन रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने उनकी सूचनाओं की सत्यता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिए ।अगले दिन पाया गया कि राहुल गांधी की सूचनाएँ सही थीं और रक्षामंत्री का कथन अतिरंजित था।बाद में हमारी पत्रकारिता के कई लड़ाके शूरवीर माइक रुपी तलवार लेकर अनेक स्थानों पर आक्रमण करते नज़र आए। वे ज़बरदस्ती अग्निवीर योजना से जुड़े परिवारों से कहलवाना चाहते थे कि उन्हें सब मदद मिली है और राहुल गांधी झूठ बोल रहे हैं ।मगर ,अग्निवीरों के परिवारों ने उनको आड़े हाथों लिया और सरकार की पोल खोल दी। अब इन कैमरावीरों के पास सिवा बगलें झाँकने के कुछ नहीं था। गनीमत रही कि गाँव वालों ने माइक वीरों की धुनाई नहीं की। अन्यथा सड़कों पर और गलियों में इन माइक वीरों की दुर्गति बन जाती। ऐसे वीडियो सोशल मीडिया के अनेक मंचों पर देखे जा सकते हैं। वैसे भी राजनाथ सिंह दस साल में बतौर रक्षामंत्री सिर्फ़ पाकिस्तान को गरियाने के अलावा कुछ नहीं कर पाए हैं।उनका एक सिर के बदले दस सिर लाने का दावा फ़ुस्स हो चुका है। कश्मीर में आतंकवादी हमले अभी भी हो रहे हैं। संसद में उनके बोले गए कथित सच को बाहर चुनौती दी जाने लगे तो इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है ?
लेकिन बात पत्रकारिता की है। सरकार की किसी नीति में विसंगतियाँ हों तो उसकी पड़ताल करने का काम अकेले प्रतिपक्ष का नहीं है। पत्रकार और संपादक भी इस मामले में ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकते।आज़ादी के बाद कई अवसरों पर हमने देखा है कि पत्रकारों और संपादकों ने सरकार के ग़लत फ़ैसलों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है।चाहे वह आपातकाल लगाने और सेंसरशिप थोपने के विरोध में हो या फिर भ्रष्टाचार के मामले रहे हों।राजेंद्र माथुर ,सुरेंद्र प्रताप सिंह,प्रभाष जोशी, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती जैसे कई दिग्गज संपादकों ने ग़लत और अनुचित रवैए पर सरकार के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला है।यदि अन्याय का विरोध करने और व्यवस्था की ख़ामियाँ निकालने का काम पत्रकारिता ने बंद कर दिया तो यह देश आपको लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के स्थान से उतार देगा मिस्टर मीडिया !