राजेश बादल
वह एक भयावह ,क्रूर ,अमानवीय और शर्मनाक वारदात थी । एक आदिवासी के चेहरे पर सिगरेट पीते हुए एक राजनेता का प्रतिनिधि पेशाब करता है ।तीसरा व्यक्ति उसका वीडियो बनाता है और देश भर में फैला देता है । कहानी यहीं समाप्त नहीं होती ।दो दिन तक वह आदिवासी प्रशासन की पकड़ में रहता है ।परिवार वाले उसे खोजते रहते हैं। वह जबरन भोपाल ले जाया जाता है । प्रदेश के मुखिया कैमरा टीमों को बुलाते हैं । फिर उस पीड़ित आदिवासी के पैर धोने का दृश्य दिखाई देता है । यह दृश्य भी देश भर में प्रचारित किया जाता है ।जब मुखिया जी पीड़ित की पत्नी से फ़ोन पर बात करके आर्थिक मदद की बात करते हैं तो उसकी पत्नी कहती है कि उसे तो सिर्फ पति चाहिए। और किसी सहायता की ज़रूरत नहीं। इसके बाद भी फोन पर राज्य सरकार की चुनावी योजनाओं की बात की जाती रही। अजीब सी बात है कि इस मामले में आरोपी के ख़िलाफ़ राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून लगाया गया ,जबकि उसका अपराध इस क़ानून में नहीं आता। इस घटना को दो दिन ही बीते कि एक दलित नौजवान को चम्बल इलाक़े में दबंगों ने अपने तलवे चाटने पर मजबूर कर दिया । इन दो घटनाओं के अलावा भी इन दिनों प्रायः रोज़ ही ऐसी वारदातें सामने आ रही हैं ।
सप्ताह में एक ही प्रदेश से लगातार दर्द भरी दास्तानें हमारे कथित सभ्य समाज पर अनेक सवाल खड़े करती हैं ।वह भी उस वर्ग के बारे में ,जिसे ख़ास तौर पर विशेष संवैधानिक प्रावधानों से संरक्षित किया गया है। इसके अतिरिक्त अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार अधिनियम की धाराएँ भी ऐसे प्रसंगों में बेहद कठोर हैं। यदि ग़ैर आदिवासी वर्ग का कोई प्रभावशाली व्यक्ति उन पर अत्याचार करता है तो उसके लिए अपराध से मुक्त होना आसान नहीं है। इसके बावजूद हम देखते हैं कि इस वर्ग के साथ समाज की ओर से लगातार ज़ुल्मों की कहानियाँ सामने आती रहती हैं। कई बार व्यवस्था तंत्र भी उन्हें प्रताड़ित करने से बाज़ नहीं आता। वनोपज के अधिकार से वे शनैः शनैः वंचित किए जा रहे हैं। वन और प्राणी संरक्षण के नाम पर वे बार बार अपने बसेरों से उजाड़े जाते हैं। उन्हें मुआवज़ा मिलने में बरसों लग जाते हैं।उसमें भी अनियमितताओं के कारण उन्हें पर्याप्त सहायता नहीं मिलती। भारत की कुल आबादी का दस फ़ीसदी से भी अधिक आदिवासी हैं। याने लगभग बारह -तेरह करोड़ लोगों को आज भी समाज की मुख्य धारा में शामिल होने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।इस आबादी का हिसाब लगाएँ तो संसार के पचास से अधिक देशों की जनसंख्या हिन्दुस्तान के आदिवासियों से कम है। स्वतंत्रता के पचहत्तर साल बाद भी आदिवासियों को अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है।सियासी पार्टियाँ और सामाजिक सोच इस वर्ग को उसका संवैधानिक हक़ देने के लिए अनमना है।
याद करना होगा कि भारत के कितने प्रदेशों में आदिवासी मुख्यमंत्री के शिखर पद तक पहुँच सके हैं ? उत्तर निराशाजनक है । मध्यप्रदेश में 1980 में विधानसभा चुनाव के बाद आदिवासी नेता शिवभानु सोलंकी के साथ विधायकों का बहुमत था ,लेकिन उन्हें अवसर नहीं दिया गया। उस समय आदिवासी वर्ग बड़ा आहत हुआ था। उप मुख्यमंत्री के पद तक वे ज़रूर पहुंचे। पर,उनके हाथ बंधे रहते थे। उनके साथ ऐसे विभागीय अफसर तैनात किए जाते थे ,जो सीधे मुख्यमंत्री से निर्देश लेते थे और उपमुख्यमंत्री बेचारा लाल बत्ती की गाड़ी और बंगले में ही संतुष्ट रहता था। सरकार संचालन में उसकी कोई भागीदारी नहीं रहती थी।मध्यप्रदेश में एक बार दो आदिवासी उप मुख्यमंत्री बनाए गए थे। उनमें एक महिला थीं। अपनी उपेक्षा से दुखी होकर एक बार तो उन्होंने सार्वजनिक रूप से बयान दिया था कि वे मुख्यमंत्री के तंदूर में जल रही हैं। कुछ दिनों तक इस बयान से ख़लबली मची। बाद में वही ढाक के तीन पात।पूर्वोत्तर प्रदेशों और झारखंड को निश्चित रूप से कुछ आदिवासी मुख्यमंत्री मिले हैं। मगर अनुभव बताता है कि संवेदनशील और सीमा पर स्थित होने के कारण उन राज्यों में राज्यपाल भी शक्ति संपन्न होते हैं और मुख्यमंत्री सब कुछ अपने विवेक से नहीं कर पाते।झारखंड और छत्तीसगढ़ जैसे आदिवासी प्रदेशों में भी आदिवासियों के कल्याण की तमाम योजनाएँ बनी ,लेकिन उनका लाभ कम ही मिल पाया।
प्रश्न यह भी उठता है कि आदिवासी संस्कृति को हमारा भारतीय समाज कितना स्वीकार कर पाया है। हम आज जिस परंपरागत ढाँचे से निकलकर आधुनिकता की दौड़ में शामिल होना चाहते हैं ,उसमें तो हमारा आदिवासी समाज सदियों से जी रहा है। आज लिव इन रिलेशनशिप और प्रेम विवाहों में भारतीय समाज दस बार सोचता है ,लेकिन आदिवासी समुदाय हमसे बहुत आगे है।आज हम मज़हब के नाम पर तमाम रूढ़ियों से जकड़े हुए हैं ,पर एक बार आदिवासियों की धार्मिक आस्थाओं और उनके दर्शन को जानने का प्रयास कीजिए ,पता लगता है कि वे हमसे बहुत आगे हैं। फिर स्वतंत्र भारत में हम उन्हें मुख्य धारा में क्यों शामिल नहीं करना चाहते ? हम उनके भगौरिया और घोटुल जैसे उत्सवों को तमाशबीनों की तरह देखते हैं। उनके दर्शन को हम अपनाना नहीं चाहते पर चाहते हैं कि वे हमारी धार्मिक धारा में साथ बहने लगें। हम चाहते हैं कि वे हमारे राम और हनुमान को माने ,मगर हम उनके देव दर्शन को स्वीकार नहीं करना चाहते। हम उन्हें अपनी प्रशासनिक व्यवस्था का हिस्सा तो बनाना चाहते हैं लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री बनते नहीं देखना चाहते और अपेक्षा करते हैं कि वे हमारी आस्थाओं और सांस्कृतिक मूल्यों को मंज़ूर करें। यह कैसा विरोधाभास है ? जब वे ऐसा करने से हिचकिचाते हैं तो उन्हें अपमानित करने से नहीं चूकते। एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र में यह कौन स्वीकार कर सकता है कि तेरह करोड़ मतदाताओं को न सम्मान मिले और न सियासत में स्थान। यह विसंगति हमें दूर करनी होगी।