राकेश दीवान
गांधी जयन्ती पर और कुछ हो, न हो, सत्ता , सरकार, समाज और व्यक्तियों का पाखंड अक्सर सामने आ जाता है। एक तरह से गांधी जयंती इस पाखंड का सालाना पैमाना बन गया है। आप कुछ-भी, कहीं-भी, कोई-भी हों, गांधी के जन्म दिन पर उजागर हो ही जाते हैं। व्यक्ति और संस्था का पाखंड मापने का यह सरल तरीका हो सकता है कि साल में एक बार ‘गांधी जयन्ती’ की खबरों को गांधी की ‘हिन्द स्वराज’ और अधिक -से- अधिक ‘सत्य के प्रयोग’ किताबों के बगल में रखकर देख लिया जाए, लेकिन यह कोई करना नहीं चाहेगा। इंग्लेंंड में बसे भारतीय मूल के ख्यात लेखक नीरद सी. चौधरी हिन्दुस्तानियों के पाखंड को उजागर करने के लिए जाने और गरियाए जाते रहे हैं, लेकिन क्या गांधी जयन्ती पर तरह-तरह की कसमें खाकर की जाने वाली पूजा-अर्चना में शामिल पाखंड एक सत्ता,सरकार, समाज और व्यक्ति की हैसियत से की गई हमारी ‘पैदावार’ ही नहीं होता? महात्मा गांधी की जन्मतिथि दो अक्टू्बर पर किए जाने वाले कर्मकांडों में हम जो धतकरम करते हैं, हमारा जीवन ठीक उसके विपरीत न सिर्फ जारी रहता है,बल्कि गांधी को सप्रयास समाप्त करने में ही लगा रहता है।
डॉ. राममनोहर लोहिया ने गांधीवादियों को ‘सरकारी,’ ‘मठी’ और ‘कुजात’ में विभाजित करते हुए खुद और खुद जैसों को ‘कुजात’ गांधीवादियों में शुमार किया था। उन्होंने सरकार में बैठे, दो अक्टूबर और-30 जनवरी मनाने वाले, सालभर में उन्हीं दो दिन बुर्राक खादी पहनकर रौब गालिब करने वाले और गांधी को लेकर तरह-तरह के कौतुक करने वाले लोगों को सरकारी गांधीवादी और बड़ी-छोटी संस्थाएं बनाकर गांधी की आश्रम-पद्धति के जीवन का अंधानुकरण करने, खादी पहनने और किसी-भी मसले पर प्रतिकार के कोई-भी प्रयास से कोसों दूर रहने वाले गांधीवादियों को ‘मठी’ गांधीवादी माना था। वे मानते थे कि गांधी के असली वारिस सत्य और अहिंसा के भरोसे अन्याय, गैर-बराबरी और दमन का प्रतिकार करेंगे, लेकिन आज के उस ‘संक्रमण काल’ में जब लोकतंत्र के तीनों आधार,समाज की संवेदनाएं और प्रतिकार की तमाम तैयारी डगमगा रहे हों तो क्या होता दिखाई दे रहा है?
गांधीवादी लोकसेवकों के लिए राजनीति और सत्ता से समान दूरी बनाए रखने की शपथ उठाने वाले अधिकांश कार्यकर्ता आज सत्ता और सरकार से बेतरह गलबहियां डाल रहे हैं। यह कोई छिपी बात नहीं रह गई है। ‘गांधी-150’ के आयोजनों को लेकर वरिष्ठ गांधीवादी नेताओें ने दिल्ली की राष्ट्रीय बैठक में तय किया था कि इसके तहत होने वाले किसी भी कार्यक्रम में सरकारी साथ, सहायता लेने से बचा जाएगा। इसके पीछे का विचार था कि लोकतंत्र में ‘लोक’ को सक्रिय करके, उसी की भागीदारी के भरोसे गांधी की 150 वीं जन्मतिथि मनाई जाए,भले ही वह सरकारी की तरह भव्य और विस्तृत न भी हो। इस जमावड़े ने माना था कि गांधी के निमित्त होने वाले ऐसे कार्यक्रम एक समारोह भर न रहकर स्थायी असर पैदा कर पाएंगे, लेकिन उस एक साल के बीच की कारगुजारियों को ही देखें तो गांधीवादी कहलाने और उसके नाते जगह-जगह प्रवचन करने वाले ढेरों गैर-सरकारी पंडे- पुजारी सत्ता और सरकार की चापलूसी में दिन-रात एक करते दिखाई देंगे। उन्हें किसी सरकारी आयोजन, मदद और श्रेय लेने से कोई परहेज नहीं है। वे सरकार द्वारा प्रायोजित किसी भी सभा-सम्मेलन और समिति में लपक कर शामिल हो जाते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि गांधी के नाम पर रचा जाने वाला यह कारनामा भी एक तरह का पाखंड ही है। मजा यह है कि अपने ‘जीवन को ही अपना संदेश’ बताने-कहने वाले गांधी की सेवा-अर्चना में लगे ऐसे ‘समाजसेवी’ कभी खुद की समीक्षा, संयम, यहां तक कि रोजमर्रा के खर्चों पर लगाम लगाने तक की बात नहीं करते।
गांधी के नाम पर निजी स्तर के इस पाखंड ने ही राष्ट्रीय स्तर पर विकास के पाखंड को भी फलने-फूलने का मौका दिया है। गांधी-गांधी की गुहार लगाती किसी भी डंडे-झंडे की सरकारों और उनके मुखियाओं को देखें तो भले ही वे गांधी की पूजा-पत्री में कुछ करोड लगाकर खुद को अव्वल दर्जे का गांधीवादी बता रहे हों, लेकिन ‘विकास’ का जिक्र आते ही गांधी उनके लिए कोसों दूर की बात हो जाता है। हर हैसियत और दर्जे के प्रधान या मुख्यमंत्री तथा उनके नीचे-ऊपर के तमाम कारिंदे ‘विकास’ के लिए ‘विनाश’ की अपरिहार्यता बखानने लगते हैं। सबको लगने लगता है कि विकास तो केवल इसी खाऊ-उडाऊ तरीके से हो सकता है और ऐसा करते हुए किसी को, किसी गांधी या उनके गांधीवाद की कोई याद नहीं रहती। उलटे गांधी की याद दिलाने वाले गांधीवादी, अहिंसक लोगों में सत्ता और सरकारों को विकास-विरोधी, देशद्रोही की आत्मा दिखाई देने लगती है। क्या गांधी को मानने का दावा करने और धूम-धाम से उनका जन्मदिन मनाने वाली सरकारों को विकास करते हुए ‘लघु ही उत्तम’ या ‘सबसे गरीब के चेहरे पर खुशी’ के उनके बुनियादी सिद्धांत दिखाई नहीं पडते? क्या गांधी को पूजा-पत्री से अधिक उनकी मूलभूत बातों पर अमल पसंद नहीं आएगा? ऐसे में गांधी की तरफ पीठ करके गांधी का जन्मदिन मनाना क्या कहलाएगा?
गांधी को गरियाकर विकास करने का यह धतकरम बाजारों की उस मंदी को भी पैदा करने का कारण बनता है जिस पर आजकल दुनिया-जहान में स्यापा हो रहा है। गांधी उत्पादन को उपभोग से जोडकर देखते थे इसलिए उनके तईं मामूली पिन तक का उपयोग पूर्व-निर्धारित था। आज निर्माण, उत्पादन और सेवा की कोई भी गतिविधि बाजार में बिकने और मुनाफा काटने के आधार पर रची जाती है। मसलन – अनाज उत्पादन का भूख से संबंध समाप्त हो जाने के कारण गोदामों की कमी के चलते खुले में सडता हजारों टन अनाज होने के बावजूद सरकारें आज भी उत्पादन बढाने की जुगत में लगी हैं। देशी हो या विदेशी, सभी तरह की अर्थनीतियां एक ‘शेखचिल्ली की कहानी’ से निर्धारित होती हैं। कहानी है – विज्ञापनों आदि के जरिए बाजार में फर्जी मांग पैदा की जाती है, मांग के चलते उत्पादन किया जाता है, उत्पादन के लिए कारखाने चलते हैं, कारखाने चलने से रोजगार मिलता है, रोजगार से वेतन मिलता है, वेतन से उपभोक्ता का निर्माण होता है और उपभोक्ता बाजार जाकर मांग पैदा करता है। भूख, कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, मनोरंजन, रहन-सहन आदि गतिविधियां शेखचिल्ली की इस कहानी में बीच-बीच में जरूरत पडने पर आती-जाती रहती हैं।
गौर-तलब है कि इस कहानी में उत्पादन, उपभोग की बजाए बाजार की अहमियत मानी जाती है। नतीजे में बाजार ही हमारे तमाम क्रिया-कलापों को नियंत्रित करता है। किसी कारण उपभोक्ता बाजार से खरीदना बंद कर दे तो शेखचिल्ली की कहानी के सभी पात्र धीरे-धीरे ठंडे पडने लगते हैं और इसी को आर्थिक मंदी के नाम से पुकारा जाता है। गांधी के अर्थशास्त्र में कहीं इंसान यानि उपभोक्ता को अनदेखा करके बाजार की अहमियत नहीं मानी गई है, लेकिन गांधी का भजन गाने वाले इस अर्थशास्त्र को खारिज करते हैं। जाहिर है, गांधी की स्तुति असल में पाखंड ही है। आखिर किसी बात पर, कोई गौर न करने वालों की गांधी की पूजा-अर्चना पाखंड नहीं तो और क्या है? बस, पाखंड में डूबते-उतराते लोगों को इतना जरूर याद रखना चाहिए कि अनदेखा करने, मारने की कितनी भी कोशिश कर लें, गांधी लौट-लौट कर आएंगे। उनका संसार तो दुनिया के उन सत्तर फीसदी लोगों के बीच है जो समाजशास्त्र हो या अर्थशास्त्र, राजनीति हो या समाजसेवा सभी में गांधी को पहचान लेते हैं।