राजेश बादल
किसी भी मुल्क़ के सूबे के लिए यह विकट स्थिति होती है कि वह अपने को देश का हिस्सा ही नहीं माने और वह राष्ट्र भी उसे अपनाए नहीं। दोनों पक्षों के मन में बेगानेपन का भाव है। फिर भी वे साथ रहने के लिए मजबूर हैं। पाकिस्तान का बलूचिस्तान ऐसा ही इलाक़ा है। बीते सतहत्तर बरस में न उसने पाकिस्तान को अपनाया और न ही पाकिस्तान ने बलूचिस्तान को। वह अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए छटपटा रहा है और पाकिस्तान की फ़ौज वहाँ की जन भावनाओं को बूटों तले रौंद रही है। बलूचिस्तान का हालिया घटनाक्रम बड़ा क्रूर और हिंसक दौर का सामना कर रहा है।कहा जा सकता है कि यदि प्रत्येक राष्ट्र अपने भीतर चल रहे अलगाववादी आन्दोलनों को गंभीरता से लेने लगे तो फिर उसका अपना होना ही ख़तरे में पड़ जाएगा। इस तर्क में दम हो सकता है। मगर ,कहना चाहता हूँ कि बलूचिस्तान का मामला एकदम अलग है। भारत के बंटवारे के समय पाकिस्तान को नहीं मिला था। पाकिस्तान ने विभाजन के बाद उसे जबरन हड़पा था। वह भी धोखा देकर।दरअसल स्वतंत्र देश बलूचिस्तान के साथ अँगरेज़ों की रक्षा ,विदेश नीति और व्यापार की संधि थी।जब गोरे गए तो यह संधि ख़त्म हो गई और बलूचिस्तान फिर दस अगस्त 1947 को फिर एक स्वतंत्र देश के रूप में आ गया।लेकिन पाकिस्तान ने बलूचिस्तान के नवाब बुगती को धोखा देकर वही संधि पाकिस्तान से करा ली ,जो बरतानवी लोगों के साथ थी। इसके बाद धीरे धीरे उसने समूचा बलूचिस्तान ही हड़प लिया।पाकिस्तान की इस हरक़त के विरोध में वहाँ के सबसे बड़े सियासी बुग्ती परिवार की अगुआई में बलोच आज़ादी का आंदोलन चलाते रहे हैं। सन्दर्भ के तौर पर बता दूँ कि भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बलोचों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय थीं।जब बांग्लादेश बना तो बलोचों की आशाएँ भारत से जगी थीं। पाकिस्तान बांग्लादेश के अलग होने के दर्द से दुखी था तो बलूचिस्तान में खुशियाँ मनाई जा रही थीं।वहाँ के नागरिक सड़कों पर इंदिरा गाँधी और जनरल मानेक शॉ के पोस्टर लेकर ज़िंदाबाद के नारे लगाते हुए रैलियाँ निकाल रहे थे। वे चाहते थे कि भारत बांग्ला देश की तरह हस्तक्षेप करे और उन्हें पाकिस्तान से आज़ादी दिलाए।इसके बाद बलोची संघर्ष करते रहे और पाकिस्तान उन्हें सूली चढ़ाता रहा।जनरल परवेज़ मुशर्रफ के कार्यकाल में तो बुग्ती ख़ानदान के सबसे बड़े नेता नवाब अकबर बुग्ती को सेना ने मार डाला था।सेना ने अपने ही प्रदेश पर रॉकेटों से हमला किया था। तबसे बलूचिस्तान आज़ादी के लिए उबल रहा है। अलगाववादी पाकिस्तान सरकार के लिए बड़ा सिरदर्द बन चुके हैं । वे अपने साथ अन्याय को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। वे हक़ मांगते हैं तो उन्हें गोलियाँ मिलती हैं।गुज़िश्ता सतहत्तर साल का अतीत इस बात का गवाह है।बलूची लोग हज़ारों माटी पुत्रों की बलि चढ़ा चुके हैं। पाकिस्तान की थल सेना ने उन पर टैंकों से हमला किया है। वायुसेना ने उन पर बम बरसाए हैं और ठीक वैसी ही जंग छेड़ी है ,जैसे इन दिनों रूस और यूक्रेन के बीच जारी है। पिछले एक महीने में बलूचिस्तान में जारी हिंसा में सौ से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और हिंसा रुकने का नाम नहीं ले रही है।मारे गए लोगों में से पंजाब सूबे के रहने वाले और सुरक्षाकर्मी हैं। एक स्वयंसेवी संगठन ने अपनी रिपोर्ट में दावा किया है कि बीते पच्चीस साल में पच्चीस हज़ार से अधिक बलूची लापता हो गए। आरोप है कि पाकिस्तानी सेना ने उन्हें अपने यातनागृहों में मार डाला है ।
लेकिन मौजूदा हिंसा के पीछे चीन भी एक बड़ा कारण है। उसने ग्वादर में बंदरगाह बनाया है। पाकिस्तान ने यह बंदरगाह उसे लीज़ पर दे दिया है। चूँकि बलूचिस्तान भौगोलिक आधार पर पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रदेश है। और वहाँ खनिज संसाधनों से लेकर गैस तक प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। इसलिए चीन वहाँ तक अपने गलियारे ( सी पी ई सी ) का निर्माण कर रहा है। बलूचिस्तान को कोई लाभ नहीं मिल रहा है। बलूची लोग इसलिए चीन से ख़फ़ा हैं। दो दशक में चीन के कई इंजीनियर वहाँ मारे जा चुके हैं।चीनी मजदूरों ने भी जान गंवाई है। इससे चीन पाकिस्तान से नाराज़ है। उधर ,पाकिस्तान का जब तब आरोप लगाता रहता है कि बलूचिस्तान में अशांति और हिंसा के पीछे भारत का हाथ है।वह सोचता है कि बांग्लादेश की तरह भारत बलूचिस्तान को भी उससे अलग करा देगा। लेकिन पाकिस्तान यह स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है कि बलूचिस्तान में हिंसा के बीज उसके भीतर ही छिपे हुए हैं।वह तो मुल्क़ के बाशिंदों की रक्षा भी नहीं कर पा रहा है। यह सवाल अब वहाँ के आम नागरिक को परेशान कर रहा है कि बलूचिस्तान में मतदाता सुरक्षित नहीं हैं। पंजाब के लोग सुरक्षित नहीं हैं। सिंध के निवासी मारे जा रहे हैं। अफ़ग़ानिस्तान सीमा से सटे इलाक़े में लोग अपने को सुरक्षित नहीं मानते और पाक अधिकृत कश्मीर में भी लोग भयभीत हैं तो फिर इस पड़ोसी राष्ट्र में कौन सुरक्षित है ?
दूसरी ओर पाकिस्तान के बलूचिस्तान से भारत की निकटता के कारण भी हैं। बलूचिस्तान के लोगों का स्वाभाविक मेल जोल पाकिस्तान की तुलना में भारतीय संस्कृति के ज़्यादा निकट है ।उस क्षेत्र का इतिहास हिंदू जीवन शैली और बौद्ध धर्म के साथ का रहा है ।हड़प्पा सभ्यता के अवशेष आज भी बलूचिस्तान की घाटियों में बिखरे पड़े हैं । कभी यह इलाका कुषाणों के शासन का साक्षी रहा है। चंद्र गुप्त मौर्य ने अपने राज्य का विस्तार बलूचिस्तान तक किया था और बाद में यहाँ से होते हुए बौद्ध धर्म का अफ़ग़ानिस्तान तक गहरा असर देखा जा सकता था।आज के अफ़ग़ानिस्तान और ईरान की सीमाओं तक बुद्ध की शिक्षाओं के निशान पाए जाते हैं। क्या यह ताज्जुब की बात नहीं है कि हिन्दुस्तान के पूरब ,पश्चिम ,दक्षिण और उत्तर में बौद्ध धर्म के शांति सन्देश फैले हुए थे।पर ,आज का पाकिस्तान न अपने अतीत के दस्तावेज़ों को सुरक्षित रखना चाहता है और न चीन ही अपने इतिहास के अध्याय को पढ़ना चाहता है ,जब वहाँ बाक़ायदा बौद्ध राजधर्म स्थापित किया गया था।