राकेश दुबे
देश के एक राज्य में इस बरसात लाइन से पुल ध्वस्त हुए है।आपका का अनुमान सही है,ऐसा सिर्फ़ बिहार में ही हो सकता है। किसी अन्य राज्य में अपवाद के तौर पर हादसा हो सकता है। बिहार के सारण (छपरा) और सीवान में 24 घंटे के दौरान पांच पुल ध्वस्त हुए हैं। संभवत: लापरवाही, नालायकी और भ्रष्टाचार का यह विश्व कीर्तिमान है।
एक पखवाड़े के दौरान 12 पुल ध्वस्त होकर ‘मलबा’ हुए हैं। इन पुलों के जरिए कितने गांव, कस्बे और मानवीय आबादी जुड़ी होगी। वे सब अधर में लटक गए हैं। उनकी आवाजाही, काम-धंधों पर विराम लग गया है। एक पुल कितने समय में बनता है और उस पर कितने करोड़ रुपए खर्च किए जाते हैं, अचानक वह भुरभुरा कर ढह जाता है, तो कितने संसाधन बर्बाद होते हैं? एक जंगलराज अतीत में था और अब ‘सुशासन राज’ के ढोल पीटे जाते हैं, जो दरअसल जंगलराज ही है। अब ये 12 पुल कब तक बन सकेंगे और उनके लिए आर्थिक संसाधन कैसे जुटाए जाएंगे, यह सवाल इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि बिहार मौजूदा वित्त वर्ष में केंद्र सरकार की 52,000 करोड़ रुपए से अधिक की अनुदान राशि पर गुजारा कर रहा है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार समेत सत्ता और विपक्ष के सभी बड़े नेता ‘विशेष राज्य का दर्जा’ दिए जाने का प्रलाप करते रहे हैं। हाल ही में सत्तारूढ़ जनता दल-यू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक राजधानी दिल्ली में हुई थी। उसमें भी यह प्रस्ताव पारित किया गया। चूंकि मोदी सरकार में जद-यू एक महत्वपूर्ण घटक है। सरकार की स्थिरता का एक मजबूत स्तंभ भी है, लेकिन सरकार के अपने नियम-कानून भी होते हैं। 2014 में मोदी सरकार की शुरुआत में ही तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेतली ने बयान दिया था कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के बाद ही राज्यों को ‘विशेष श्रेणी का दर्जा’ देने का युग समाप्त हो गया।
पूर्वोत्तर के राज्यों, जम्मू-कश्मीर हिमाचल और उत्तराखंड सरीखे हिमालयन राज्यों को इस श्रेणी के तहत आर्थिक मदद जारी रहेगी। अब 16वें वित्त आयोग का दौर है। साफ है कि बिहार और आंध्रप्रदेश को ‘विशेष श्रेणी के राज्य’ का दर्जा दिया जाना तो संभव नहीं है। अलबत्ता उन्हें ‘विशेष आर्थिक पैकेज’ जरूर दिए जा सकते हैं। आंध्र की सत्तारूढ़ तेलुगूदेशम पार्टी के 16 सांसद भी मोदी सरकार की स्थिरता के आधार हैं। मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने बीते कल ही प्रधानमंत्री मोदी से मुलाकात कर विशेष आर्थिक सहायता मांगी है। बहरहाल बिहार के संदर्भ में व्यापक चिंतन-मनन करना चाहिए, क्योंकि उसे बजट के तहत जो राशि आवंटित की जाती रही है, वह भी ‘अनखर्च’ रहती है।
बिहार में संस्थानगत क्षमता, आधारभूत ढांचे, बाजार, उद्यमी कौशलता और उपयुक्त औद्योगिक माहौल आदि की कमी रही है, लिहाजा राशियां ‘अनखर्च’ रहती हैं। वित्त वर्ष 2023 में बिहार में राजस्व खर्च का 51,722 करोड़ रुपए और पूंजी बजट का 24 फीसदी, 14,786 करोड़ रुपए खर्च ही नहीं किए जा सके। वित्त वर्ष 2020, 2021 और 2022 में भी क्रमश: 78,122 करोड़, 75,926 करोड़ और 70,083 करोड़ रुपए ‘अनखर्च’ ही रहे। ये कोई सामान्य और कम राशियां नहीं हैं। यदि राशि बजट की अवधि के दौरान खर्च नहीं की जाती, तो उसे त्याग देना पड़ता है। यह भी एक किस्म का आत्मसमर्पण होता है। ये राशियां ‘विशेष श्रेणी के राज्य’ का दर्जा मिलने के बाद जो फंड मिलता है, उनसे भी अधिक हैं। जब विभाग बजटीय आवंटन की राशि को खर्च करने में अक्षम हैं, तो उसके साफ मायने हैं कि राज्य पर कर्ज का बोझ बढ़ेगा। बिहार की बुनियादी समस्याएं हैं, जो पुलों के ढहने में ही नहीं दिखतीं, बल्कि स्कूल-कॉलेज, अस्पताल आदि भी जर्जर अवस्था में हैं। पुल किसी भी सरकार ने बनाए हों, उनके निर्माण का ऑडिट होना चाहिए।