राजेश बादल
यूरोप के देशों का रवैया अजीब है। वे सिद्धांतों पर चलना चाहते हैं और अपने स्वार्थों की ख़ातिर उनकी बलि भी चढ़ा देते हैं।ये गोरे मुल्क़ अपने श्रेष्ठ होने का बोध बनाए रखना चाहते हैं और अपेक्षा करते हैं कि विकासशील देश उनके फ़रमानों को सिर झुकाकर स्वीकार करें।भारत में समूह - बीस की बैठक के लिए यूरोपीय संघ के राष्ट्रों के अनेक आला अधिकारी भी आए हुए हैं। वे भारत पर एक तरह से मनोवैज्ञानिक दबाव डालने के लिए घेराबंदी कर रहे हैं।उनकी पेशानी पर इससे बल आए हुए हैं कि भारत रूस से कम क़ीमत पर कच्चा तेल खरीद रहा है। उस तेल को परिष्कृत करके अनेक पेट्रोलियम उत्पाद बना रहा है। यह उत्पाद गोरे देश याने यूरोपीय संघ के सदस्य खरीद रहे हैं और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर रहे हैं।दूसरी तरफ वे रूस - यूक्रेन जंग में अमेरिका के साथ भी खड़े हैं।अमेरिका रूस से कुछ नहीं खरीद रहा है और यूरोपीय संघ पर दबाव डाल रहा है कि वे भी ऐसा ही करें। पर, यह संभव नहीं है। नाटो के सदस्य यदि भारत से पेट्रोलियम उत्पाद नहीं ख़रीदते तो उनकी हालत ख़राब हो जाएगी। यूरोपीय कमीशन के कार्यकारी उपाध्यक्ष और ट्रेड कमिश्नर वाल्दिस दोम्ब्रो अब इस बात से परेशान हैं कि रूस पर लगाईं पाबंदियों का कोई असर नहीं हो रहा है। उन्होंने हालिया बयान में कहा है कि यूरोपीय संघ अब विचार कर रहा है कि उसके सदस्य देशों के बाज़ारों में रूसी कच्चे तेल से भारत में बने पेट्रोलियम उत्पाद कैसे रोके जाएँ।भारतीय अधिकारियों और यूरोपीय संघ प्रतिनिधिमंडल के बीच हुई चर्चा में संघ ने इस मसले को दबंगई से उठाया। प्रतिनिधिमंडल की मंशा थी कि भारत रूस से सस्ता कच्चा तेल नहीं खरीदे और न यूरोपीय बाज़ारों में पेट्रो-उत्पाद भेजे।चार महीने पहले भी यूरोपीय संघ के वैदेशिक मामलों के प्रमुख जोसेफ़ बुरेल ने भी एक तीखा बयान जारी किया था। उन्होंने कहा था कि भारत को यह सब बंद करना चाहिए। जब उनके बयान की व्यापक आलोचना हुई तो उन्होंने एक नरम स्पष्टीकरण दिया और कहा कि उनका मक़सद भारत की आलोचना करना नहीं था।लेकिन वे चाहते हैं कि भारत इसमें यूरोपीय संघ का साथ दे। ग़ौरतलब है कि भारत का पेट्रोलियम उत्पादों का निर्यात सत्तर फ़ीसदी से भी अधिक बढ़ा है। यूक्रेन और रूस की जंग से पहले भारत यूरोपीय देशों को हर रोज़ 1 ,54 000 बैरल प्रतिदिन डीज़ल और जेट फ्यूल निर्यात करता था। रूसी तेल पर पाबंदी के बाद इस आँकड़े में उछाल आया और भारत का निर्यात प्रतिदिन दो लाख बैरल की रिकॉर्ड ऊँचाई तक पहुँच गया।
सवाल यह है कि भारत यूरोपीय संघ के ऑर्केस्ट्रा की धुनों पर क्यों नाचे ? यूरोपीय संघ के देशों ने पहले ही भारत के साथ व्यापार में कोई संतुलन नहीं रखा है। वे भारत से आयात कम करते हैं और चाहते हैं कि भारत संघ के सदस्य देशों से अपना आयात बढ़ाता जाए। इकतरफ़ा कारोबार की चाहत क्या व्यापार में सिद्धांतों की नैतिकता का पालन करती है ? दूसरी बात यह है कि गोरे देश अपनी पाबंदी तो बरक़रार रखना चाहते हैं और यह भी चाहते हैं कि उनके नागरिकों को पेट्रोलियम उत्पादों की क़िल्लत का सामना नहीं करना पड़े। यूरोपीय संघ चाहे तो अपने सदस्य राष्ट्रों की बैठक में भारत से आने वाले रूसी तेल के उत्पादों पर बंदिश लगा सकता है। मगर ,वह ऐसा नहीं करेगा क्योंकि वह अपने सदस्य देशों को सचमुच मुश्किल में नहीं डालना चाहता।अर्थात सारा दारोमदार भारत पर है। वह या तो नुक़सान उठाए या फिर अमेरिका के ग़ुस्से का सामना करने को तैयार रहे।यूरोपीय संघ जानता है कि अमेरिका की नाराज़गी मोल लेने की हालत में उसके देश नहीं हैं।ऐसे में भारत को ही निशाने पर रखा जाए।इसके अतिरिक्त रूस की भौगोलिक स्थिति ऐसी है कि वह यूरोप और एशिया में विभाजित है। इसलिए दोनों महाद्वीपों से जुड़े देश भी रूस के साथ अपने रिश्ते बेहतर रखना चाहते हैं।रूस ,भारत और चीन का त्रिकोण बने ,अमेरिका और उसके दोस्तों को यह कभी रास नहीं आएगा।
दरअसल यूरोप के गोरे देश और अमेरिका हमेशा से एशियाई राष्ट्रों को लेकर पूर्वाग्रही रहे हैं। उसके कारण ऐतिहासिक हैं। ब्रिटेन अब यूरोपीय संघ से बाहर है ,पर गोरे राष्ट्रों की मानसिकता ब्रिटेन से कोई अलग नहीं है।हालाँकि इस आलेख का यह विषय नहीं है पर प्रसंग के तौर पर ग़ुलाम हिन्दुस्तान का उदाहरण देना चाहूँगा। उस दौर में भारत के सूती कपड़ों से ब्रिटेन समेत सारे यूरोप की अर्थ व्यवस्था लड़खड़ा गई थी।हिंदुस्तानी कपड़ा यूरोप के हर देश की पहली पसंद था।जाने माने लेखक डेनियल डिफो ने लिखा," भारतीय कपड़े हमारे घरों,ड्राइंगरूम यहाँ तक कि बैडरूम में छा गए हैं।हमारे पर्दे,गद्दे और बिस्तर भी हिंदुस्तानी कपड़े के हैं "।भारत के कपड़ों का इंग्लैंड के गोरे कारोबारी जमकर विरोध करने लगे।ब्रिटेन की सरकार को झुकना पड़ा।भारतीय कपड़े का आयात रोकने के लिए क़ानून बनाना पड़ा।सन 1740 में भारत से इंग्लैंड में कुल आयात 17,95,000 पौंड था। नौबत यहां तक आई कि सन 1760 में एक गोरी महिला के पास हिंदुस्तान का बना रूमाल बरामद हुआ तो उसे 200 पौंड ज़ुर्माना भरना पड़ा।हॉलेंड को छोड़कर बाक़ी यूरोपीय देशों ने भारत से कपड़ा मँगाना बन्द कर दिया और भारी भरकम टैक्स लगा दिए।इसके बाद भी भारतीय कपड़े दुनिया के बाज़ार में धूम मचाते रहे। गोरे इतिहासकार एच एस विल्सन ने लिखा था कि अगर भारतीय माल को ब्रिटेन में बेचने पर रोक न लगी होती तो पैसले और मैनचेस्टर के कारखाने अपनी शुरुआत में ही बंद हो चुके होते ।उनका जन्म भारतीय कारख़ानों की बलि देकर ही हुआ था। भारत आज़ाद होता तो वह भी बदले की कार्रवाई करता। ब्रिटिश माल पर प्रतिबन्ध लगाता या आयात शुल्क बहुत बढ़ाता और अपने उत्पादक उद्योगों को नष्ट होने से बचा लेता।
यह उदाहरण यूरोप की गोरी मानसिकता को उजागर करता है।यूरोपीय संघ के देश भारत को लेकर वे अभी भी रौबीला भाव रखते हैं और यह मौजूदा दौर में यह न्यायसंगत नहीं है।