राजेश बादल
भारत में पत्रकारिता के पेशे में जोख़िम और चुनौतियों पर मैं इस स्तंभ में वर्षों से लिख रहा हूँ।अभिव्यक्ति को स्वर देने वाले इस व्यवसाय पर हिन्दुस्तान के बाहर भी जानलेवा ख़तरे मंडराते रहते हैं।अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया,अफ़्रीका,और यूरोप से लेकर एशिया तक ये ख़तरे विकराल रूप में साल दर साल बढ़ते जा रहे हैं।सलाम करना होगा उन पत्रकारों को,जो तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद मोर्चे पर डटे हुए हैं और अपनी अपनी हुकूमतों से लोहा ले रहे हैं।यूँ तो भारत,पाकिस्तान और बांग्लादेश एक ही दिए की लौ हैं,मगर तीनों मुल्क़ों में पत्रकारिता इस लौ में अलग अलग ढंग से झुलस रही है।पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर ने अपने हालिया कॉलम में वहाँ के पत्रकारों के उत्पीड़न और दबाव का विस्तार से ब्यौरा दिया है। हामिद मीर ने इस बरस को पत्रकारिता के नज़रिए से बहुत तक़लीफ़देह बताया है।
जानकारी के मुताबिक़ इस साल पाकिस्तान में सात पत्रकारों ने आज़ाद पत्रकारिता के लिए संघर्ष करते हुए अपनी जान गँवाई है।वहाँ की फ़ौज अख़बारनवीसों की सबसे बड़ी दुश्मन है।जम्हूरियत तो दिखावा है।असल सत्ता तो सेना की ही है।बकौल हामिद मीर कई टीवी एंकर्स फ़र्ज़ी मामलों में जेल की सलाख़ों के भीतर हैं।क़रीब डेढ़ सौ से ज़्यादा पत्रकारों और डिज़िटल अवतारों पर राय रखने वालों के ख़िलाफ़ मुक़दमे चल रहे हैं।इनमें मुल्क़ के इकलौते सिख पत्रकार हरमीत सिंह भी हैं।डिजिटल मंचों पर भी ऐसी ही सख्ती बरती जा रही है.इंस्टाग्राम और व्हाटस अप जैसे आम माध्यम तक फौजी निगरानी में हैं.विडंबना यह कि जिस पोस्ट या सूचना को सरकार ग़लत मानती है,उससे जुड़े पत्रकार अथवा आम नागरिक को पाँच साल की क़ैद और दस लाख रूपए का जुर्माना लगाने का फ़रमान जारी कर सकती है।
समझने की बात यह है कि ऐसे क़दमों के पीछे छिपी मंशा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कुचलना कम,विपक्ष और असहमति के सुरों को दबाना अधिक है।फौज पाकिस्तानी लोकतंत्र पर शिकंज़ा रखती है,यह छिपा नहीं है।इस पड़ोसी मुल्क़ में पूर्व प्रधानमंत्री इमरान ख़ान नियाज़ी सेना की आँख का काँटा का काँटा बन गए हैं।वे जेल में हैं,फिर भी सेना उनसे भयभीत है।इमरान के समर्थक इन दिनों अपने वतन की आवाज़ बनकर उभरे हैं।जब अवाम अपने हक़ के लिए उठ खड़ी होती है तो संसार का कोई भी निरंकुश शासक उसके सामने नहीं टिकता।पाकिस्तान के पहले फौजी तानाशाह जनरल अय्यूब ख़ान का अंजाम क्या हुआ था - सारी दुनिया को पता है। उनके विरोध में सारा पाकिस्तान उठ खड़ा हुआ था और उन्हें जान बचाकर भागना पड़ा था। बाद के तानाशाहों का भी हश्र कोई आनंददायक नहीं रहा है।
कई बार इतिहास अपने आप को दोहराता है। इसे जानते हुए भी पाकिस्तानी सेना अपने आप को बदलने के लिए तैयार नहीं है।अपने रवैये के कारण ही उसे अपना एक टुकड़ा 1971 में खोना पड़ा था।अब बचे हुए पाकिस्तान में सिंध और बलूचिस्तान इस नक़ली देश से आज़ाद होने के लिए फड़फड़ा रहे हैं।हामिद मीर जैसा पत्रकार अगर यह चेतावनी देने के लिए बाध्य हुआ है तो स्पष्ट है कि पाकिस्तान में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है।उन्होंने लिखा है कि लोकतंत्र स्वतंत्र मीडिया के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता। अगर लोकतंत्र मर गया तो पाकिस्तान का ज़िंदा रहना मुश्किल हो जाएगा।एक तानाशाह जनरल याह्या ख़ान ने बंगालियों को अलग थलग कर दिया था।आज एक नक़ली लोकतंत्र पश्तूनों और बलूचों को अलग थलग कर रहा है।इसलिए हामिद मीर ने संकल्प लिया है। उन्होंने कहा है ," सेंसरशिप लोकतंत्र के लिए ज़हर है।मैंने ख़ुद देशद्रोह से लेकर ईशनिंदा तक के मुक़दमों का सामना किया है। लेकिन,मेरे या मेरे टीवी चैनल के ख़िलाफ़ कुछ भी साबित नहीं हुआ है। फ़र्ज़ी ख़बरों से लड़ने के लिए तो मैं स्वयं तैयार हूँ। लेकिन मैं अपनी आज़ादी किसी भी ख़ुफ़िया एजेंसी को नहीं सौंपूँगा ,जो सियासत में दख़ल देकर पहले से ही संविधान का उल्लंघन कर रही है "।
हामिद मीर ! हम आपको सलाम करते हैं !