राजेश बादल
अठारह अप्रैल से भारत में एक अनूठी सामाजिक क्रांति का अमृत महोत्सव वर्ष प्रारंभ हो रहा है। पचहत्तर साल पहले 1951 में तेलंगाना के नलगोंडा ज़िले के पोचमपल्ली गाँव से एक ऐसी सामाजिक रक्तहीन क्रांति का आग़ाज़ हुआ था ,जिसने उस दौर के लाखों किसानों की ज़िंदगी बदलकर रख दी थी। हिन्दुस्तान के इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। महात्मा गांधी के शिष्य विनोबा भावे ने इस गाँव से भारत के भूमिहीनों को ज़मीन का मालिक बनाने के लिए मुहीम छेड़ी और देखते ही देखते कश्मीर से कन्याकुमारी तक विनोबा की झोली दान की ज़मीन से भर गई।उन्हें ज़मींदारों ने ज़मीन दी , राजाओं - महाराजाओं और निज़ाम ने ज़मीन दी। यह देश वास्तव में आज़ाद तो हुआ था ,लेकिन उसका लाभ समाज के अंतिम छोर पर खड़े इंसान को नहीं मिल रहा था। वे शोषण के शिकार थे। उनकी दशा ग़ुलामों से बदतर थी। क़रीब क़रीब सारी भूमि बड़े अमीरों और घरानों के पास थी। विनोबा के सामने मुश्किल यह थी कि वे कैसे इस भूमि को असल ज़रूरतमंदों तक पहुँचाएँ।उनके सामने पहली बार पोचमपल्ली के दलितों ने कुछ माँगा था। कहा था - हम हाड़ तोड़ मेहनत करेंगे। बस हमें अपनी बसर के लिए थोड़ी से ज़मीन मिल जाए। विनोबा का दिल भीग गया। उन्होंने पूछा ,"कितनी ज़मीन चाहिए ? दलितों ने कहा ," अस्सी एकड़। चालीस एकड़ सूखी और चालीस एकड़ तरी ज़मीन।विनोबा ने पूछा ,उस ज़मीन पर खेती करनी होगी। करोगे ? उत्तर मिला, हाँ " .
विनोबा ने वहाँ उपस्थित सारे गाँववालों से पूछा - यदि सरकार इन दलितों को भूमि नहीं दे तो आप लोग मदद करने को तैयार हैं ? गाँव के लोगों ने समवेत सुर में उत्तर दिया -हम सब इन भाइयों को भूमि देने के लिए तैयार हैं। विनोबा का चेहरा खिल गया।इतने में एक सज्जन खड़े हुए। उन्होंने कहा ,मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छानुसार मैं सौ एकड़ भूमि आपके माध्यम से इन भाइयों को भेंट करता हूँ। मेरा नाम रामचंद्र रेड्डी है। विनोबा को भरोसा न हुआ। उन्होंने रेड्डी से एक बार फिर अपना वचन दोहराने के लिए कहा। रेड्डी सचमुच गंभीर थे। उन्होंने वचन दो नहीं ,तीन बार दोहराया। फिर भी बाबा ने लोगों से कहा ,"यह भला मनुष्य आपके सामने है। अगर यह ज़मीन नहीं देगा तो ईश्वर का गुनहगार बनेगा लेकिन वह ज़मीन देगा तो हरिजनों पर यह ज़िम्मेदारी आएगी कि सारे के सारे प्रेमभाव से एक होकर उसे जोतें। अगर ऐसे सज्जन लोग हर गाँव में मिलते हैं तो सारे मसले हल हो जाएंगे। आप यह ज़रूर समझ लें कि हिन्दुस्तान में श्रीमान लोग अपने हाथ में सारी ज़मीन नहीं रख पाएँगे।वह फ़क़ीर बाबा विनोबा पूरी रात सो नहीं सका। हिन्दुस्तान के सारे भूमिहीनों को भूमि देना हो तो पाँच करोड़ एकड़ भूमि चाहिए। क्या यह चमत्कार हिन्दुस्तान में संभव है ? और बाबा की आँखें एक अज्ञात प्रेरणा से चमक उठीं। अगला दिन 19 अप्रैल 1951था .बाबा तंगलपल्ली में थे।फूल लेकर स्वागत करने आए लोगों से विनोबा ने कहा , मुझे फूल नहीं चाहिए। मुझे मिट्टी दीजिए। मैं भूखा हूँ। मुझे ज़मीन दीजिए। देखते ही देखते 90 एकड़ ज़मीन बाबा की झोली में आ गिरी। इसमें 50 एकड़ तो अकेले व्यंकट रेड्डी ने दी थी। बाबा का काम बन गया। बस यहाँ से भूदान आंदोलन की नींव पड़ गई।
बाबा विनोबा भावे ने महात्मा गांधी के सपने को साकार किया था। राष्ट्रपिता ने 1932 में साने गुरूजी से जेल में अपनी यह मंशा प्रकट की थी। बापू ने कहा था ,"अब भारत को स्वतंत्रता तो मिल गई। लेकिन अब किसानों और मजदूरों के पास अपनी ज़मीन होना चाहिए। इस दिशा में क़दम उठाए जाते ,इससे पहले ही उनकी हत्या हो गई। राष्ट्रपिता का सपना अधूरा रह गया। उनके प्रिय शिष्य विनोबा भावे ने यह सपना साकार किया और एक तरह से गुरु दक्षिणा चुकाई।परिणाम यह निकला कि भूदान आंदोलन बिहार, बंगाल होते हुए देश के अनेक राज्यों तक पहुंचा।तेरह बरस में साल में इस यज्ञ ने अपना असर दिखाया । इस प्रयोग में विनोबा भावे लगभग 58,741 किलोमीटर पैदल चले । उन्हें भूमिहीनों के लिए 44 लाख एकड़ जमीन प्राप्त हुई और लगभग 13 लाख भूमिहीन किसानों को निःशुल्क बाँट दी गई । विनोबा भावे के शिष्य और स्वतंत्रता सेनानी चारुचंद्र भंडारी ने बांग्ला में भूदान यज्ञ पर पहली किताब लिखी। इस कृति - के ओ केन में भंडारी जी ने लिखा कि विनोबा भावे आजीवन सेवाव्रती संन्यासी, महात्मा गांधी के बड़े अनुयायी थे । वे महात्मा के ऐसे आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे,जिसने अपने पूर्वजों से प्राप्त संपत्ति में वृद्धि की। कहा भी जाता है कि शिष्य वही योग्य होता है जो गुरु को छोड़कर भी चल सकता है। विनोबा भावे ने वही किया।
विनोबा भावे ने अपने इस भूदान यज्ञ की व्याख्या इस प्रकार की ,
जिस काम में सब लोगों का सहयोग प्राप्त होता है ,उसी को यज्ञ कहते हैं। जब देश पर कोई संकट आता है तो यज्ञ किया जाता है। अपने देश में आज संकट मौजूद है। मजदूर और मालिक का भेद है। करोड़ों लोगों के पास कोई साधन नहीं है। हरिजनों और दूसरों के बीच छुआछूत की विकराल खाई है। धर्मभेद के झगड़े भी मौजूद हैं।ऐसी हालत में देश को बचाने के लिए जब कोई यज्ञ किया जा रहा हो और वो कोई एक अकेला या पाँच -पचास व्यक्ति करें तो उससे कुछ नहीं होगा। इस यज्ञ में हर नागरिक को अपना अपना हिस्सा अर्पण करना पड़ता है। इस यज्ञ में जो अपना हिस्सा अर्पण नहीं करते ,वे देश द्रोही सिद्ध होते हैं। .....अगर प्रेम और अहिंसा का तरीक़ा आज़माना चाहते हो तो इन ज़मीनों का मोह छोड़ दो। नहीं तो हिंसा का ऐसा ज़माना आने वाला है कि उसमें सारी ज़मीनें और उस ज़मीन पर रहने वाले सारे प्राणी ख़त्म हो जाएँगे।
इस भूदान का एक व्यापक स्वरूप ग्रामदान के रूप में सामने आया। देश में सबसे पहला गाँव मंगरौठ था। मुझे गर्व हासिल है कि मंगरौठ ग्राम की पूरी भूमि दान कराने वाले दीवान शत्रुघ्न सिंह से मैं घंटों बतियाया हूँ। मंगरौठ मेरे पुश्तैनी क़स्बे राठ से कुछ किलोमीटर दूर है। दीवान साब राठ में एक गांधी महाविद्यालय संचालित करते थे। उसमें मेरे दादाजी प्राध्यापक थे। इसलिए दीवान साब अक्सर मेरे घर आया करते थे। उनसे हम गाँधी जी ,विनोबाजी ,भूदान और ग्रामदान की कहानियाँ सुना करते थे। दीवान साब वैसे तो ज़मींदार थे लेकिन वे ग़रीबों और दलितों के हमदर्द थे। जब विनोबा जी की भूदान यात्रा राठ से गुज़री तो दीवान साब ने गाँव के सारे ज़मीन मालिकों के दानपत्र उनके चरणों में रख दिए। वह 24 मई 1952 की तारीख़ थी। इसके बाद तो ग्रामदान करने की होड़ सी लग गई।हज़ारों गाँव के लाखों लोगों ने ग्रामदान में अपना योगदान दिया।खेद है कि राजनीतिक स्वार्थों के चलते ग्रामदान के इस अदभुत प्रयोग की हत्या हो गई।
आज जब भूदान आंदोलन का 75 वां वर्ष प्रारंभ हो रहा है तो मुल्क़ एक बार फिर उन्ही समस्याओं से दो चार हो रहा है ,जो आज़ादी के समय थीं। हम आधुनिकता के नाम पर आगे तो बढ़ रहे हैं ,लेकिन लेकिन अपनी समस्याओं से मुक्ति पाने का रास्ता हम नहीं खोज पाए। हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और बाबा विनोबा भावे के प्रति कृतज्ञ नहीं ,बल्कि कृतघ्न हैं। क्या कोई राष्ट्र अपने पुरखों के साथ ऐसा सुलूक करता है ?