अंकित मिश्रा
कम लोग यह जानते होंगे कि अठारह अप्रैल से भारत में भूदान आंदोलन का अमृत महोत्सव साल शुरू हो रहा है । यह विश्व का सबसे बड़ा अराजनीतिक आंदोलन था , जो सामाजिक विषमता को समाप्त करने के लिए संत विनोबा भावे ने पोचमपल्ली गांव से शुरू किया था ।
स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना हेतु अनेक सामाजिक और राजनीतिक आंदोलन हुए हैं। उनमें से आचार्य विनोबा भावे के नेतृत्व में हुआ यह भूदान आंदोलन सबसे महत्वपूर्ण है। इस आंदोलन के माध्यम से आचार्य विनोबा भावे भारत में सामाजिक, आर्थिक व व्यक्ति के नैतिक गुणों में क्रांति लाने में सफल हुए, जिससे देश की बुनियादी समस्याओं को समाप्त कर, आर्थिक समानता स्थापित की जा सकी। आचार्य विनोबा की भूदान यात्रा उसके बाद ग्रामदान, जिलादान, राजदान, संपत्ति दान और जीवनदान ने पूरी दुनिया में हलचल मचा दी और बहुत ही जल्दी यह एक जन आंदोलन बन गया। जिसने न केवल लोगों को दान के महत्व के बारे में बताया, बल्कि लोगों ने सहर्ष स्वीकार कर दान भी किया।
भूदान की शुरुआत
बाबा विनोबा ने कांचन मुक्ति (बिना पैसे के जीवन यापन) का प्रयोग शुरू किया था तभी बाबा को शिवरामपल्ली में आयोजित होने वाले सर्वोदय सम्मेलन में शामिल होने जाना था। बाबा वर्धा से पैदल चलकर शिवरामपल्ली पहुंचे। सर्वोदय सम्मेलन में शामिल होकर वह तेलंगाना के नलगोंडा जिले के पोचमपल्ली जाना चाहते थे। जो साम्यवादी हलचलों का महत्वपूर्ण केंद्र था। पोचमपल्ली गांव में सबसे पहले वह हरिजन बस्ती में गए, वहाँ उन्हें कुछ हरिजनों ने घेर लिया और कहा "हम बहुत गरीब हैं, बेकार भी हैं, इसलिए और भी दुखी है कृपया हमारी कुछ मदद कीजिए" विनोबा ने कहा "मैं किस प्रकार आपकी मदद कर सकता हूं" "हमें तो सिर्फ काम चाहिए और कुछ नहीं, मेहरबानी करके हमें कुछ जमीन दिला दीजिए तो उस पर मेहनत करके हम अपनी गुजर कर लेंगे इस दया के लिए हम सदा आपके एहसानमंद रहेंगे" विनोबा को कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या करें, उन्होंने कहा आपके गांव में आए मुझे अभी कोई एक घंटा हुआ है नहाने और कुछ आराम करने के बाद हम सब कताई करेंगे। तदनुसार दोपहर में हरिजन के 40 परिवार विनोबा के पास आए, कताई समाप्त होने पर उन्होंने जमीन की मांग वाली अपनी वही प्रार्थना फिर दोहराई। विनोबा ने पूछा आपको कितनी जमीन की सही-सही जरूरत है। कुछ देर आपस में सलाह करने के बाद हरिजन के अगुआ ने कहा 80 एकड़, हम 40 घर के आदमी है हर परिवार के लिए दो एकड़ ज़मीन पर्याप्त हैं। विनोबा गहरे विचार में पड़ गए, परंतु कोई हल सूझ नहीं रहा था। इसलिए धीरे से उन्होंने कहा मैं सरकार से बातचीत करूंगा और देखूंगा कि आपको कुछ जमीन मिल सकती है या नहीं, समस्या कठिन है फिर भी कोशिश करूंगा कि क्या हो सकता है, और तब उन्हें एकाएक ख्याल आया कि शायद सामने बैठे गांव के लोगों में से ही कोई गरीबों की जरूरत पूरा करने तैयार हो जाए और उन्होंने बिना किसी आशा अपेक्षा के कहा "भाइयों आप में से कोई इन हरिजन भाइयों की मदद कर सकता है" वे जमीन पर अपनी गुजर के लिए कड़ी मेहनत करने को तैयार हैं। स्थानीय कार्यकर्ताओं में से एक रामचंद्र रेड्डी खड़े हुए और विनोबा के सामने बोले मेरे पिता की इच्छा थी कि 200 एकड़ में से आधी जमीन कुछ योग्य पात्रों को बांट दी जाए। कृपा करके 100 एकड़ का यह दान आप जरूर स्वीकार कर लें। इस कृपा के लिए मुझ पर बड़ा उपकार होगा। विनोबा जी भाव - विभोर हो गए, यह तो सचमुच चमत्कार ही था। इस प्रकार भूदान की गंगोत्री का प्रवाह प्रारंभ हुआ। विनोबा जी को किंचित मात्र भी कल्पना नहीं थी कि सरकार के प्रभाव के बगैर इस प्रकार प्रेम पूर्वक जमीन का दान हो सकता है। उस दिन से विनोबा जी ने गांव-गांव पैदल घूम कर गरीबों के लिए जमीन की मांग करना शुरू कर दिया। वास्तव में भूदान शब्द का प्रयोग तो पोचमपल्ली के आगे वाले मुकाम से उन्होंने शुरू किया और यज्ञ शब्द उसके भी कुछ दिन बाद भूदान के साथ जुड़ गया। अब हर गांव में जमीन के दान आने लगे और विनोबा को निश्चय हो गया कि भगवान यही चाहता है कि मैं श्रद्धा और दृढ़ता के साथ इस आंदोलन को अखंड रूप से जारी रखूँ। इस प्रकार जब विनोबा तेलंगाना के गांव में घूम रहे थे तब गांव के भोले भाले लोग कहते "यह तो गांधी जी फिर नया अवतार लेकर आ गए हैं" कुछ लोग कहते "गांधी का लड़का हमसे मिलने के लिए आ रहा है" और कुछ कहते "कोई देवता पृथ्वी पर आ गया है और हमें जमीन दे रहा है" ग्रामीण समाज को विनोबा अपनी भूदान की बात अनेक तरह से समझाते जब लोग फूल और माला लेकर उनका स्वागत करते तब विनोबा कहते "यह फूल सुंदर है परंतु उनकी मां धरती माता और भी सुंदर है, फूल तो आप पूजा के हेतु से लाए हैं परंतु मुझे तो पूजा नहीं, सिर्फ जमीन चाहिए, मैं आपका बेटा हूं आपके परिवार का एक सदस्य हूं अगर आपके चार बेटे हैं तो मैं पांचवा हूं, मुझे मेरा हिस्सा मिलना चाहिए"
दूसरों से भी कहते पुराने जमाने में हमारे बुजुर्ग शांति की स्थापना के लिए यज्ञ करते थे गांव में फैली अशांति को दूर करने के लिए मैं भी यह भूदान यज्ञ शुरू किया है इसलिए सभी को भूदान में सहयोग देना चाहिए ।
मैं मानता हूं कि मनुष्य का हृदय बदल सकता है और हमारी सारी बुराइयों का एकमात्र इलाज अहिंसा ही है, हमारी यह क्रांति मानसिक है ऐसी क्रांति हिंसा से नहीं हो सकती। वह तो बुद्ध, ईसा या गांधी के बताए मार्ग से ही लाई जा सकती है।
बाबा विनोबा कहते जब समुद्र को लांघा नहीं जा सकता, बादल को एक सीमा में बांधा नहीं जा सकता, तो फिर जमीन को कैसे बांटा जा सकता है। इसलिए हम जय हिंद नहीं, जय जगत की बात करेंगे, जिसमें कोई संकुचित भाव नहीं है। इसमें खेत गांव का किसानी खेत की और भूमि गोपाल की होगी। और इसी भाव ने लोगों को दिल से जोड़ने जय जगत का सूत्रपात किया। जिससे भूदान यज्ञ का विस्तार भारत के कोने-कोने तक दूरवर्ती गांवो में पहुंचा।
इस प्रकार विनोबा की यह ऐतिहासिक पदयात्रा 1951 से 1965 तक चली जिसमें भारत के सभी राज्यों सहित पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान में भी भूदान प्राप्त हुआ। कुल मिलाकर लगभग 44 लाख एकड़ जमीन भूदान से प्राप्त हुई। जिस गांव की लगभग 75 से 80% जमीन भूदान में मिली, वहां ग्रामदान होता था और जिस जिले के 75 से 80% गांव दान में प्राप्त होते थे वहां जिला दान होता था। पहला ग्रामदान हमीरपुर जिले की मंगरौठ गांव में दीवान शत्रुघ्न सिंह द्वारा पूरे गांव की जमीन दान करने पर हुआ। आज भी दक्षिण के आंध्र प्रदेश के कन्नूर जिले और राजस्थान व महाराष्ट्र के कुछ गांवो में ग्रामदान है।
भूदान के अलावा विनोबा ने लोगों का ध्यान स्वावलंबन की तरफ भी दिलाते हुए कहा कि यह भी अपने गांव में ग्राम उद्योग की स्थापना द्वारा ही कर सकते हैं किसान के पास केवल जमीन हो और कोई ग्राम उद्योग ना हो तो काम नहीं चल सकता किसान अपने आप को तभी जिंदा रख सकेंगे जब भी अपने गांव में पैदा होने वाले कच्चे माल से तैयार माल भी बना सकेंगे।
भूदान यात्रा में विनोबा कहते थे "अहिंसा आधुनिक विज्ञान की विरोधी नहीं है। विज्ञान इस पृथ्वी पर स्वर्ग ला सकता है, परंतु वह यह काम केवल अहिंसा की मदद से ही कर सकता है। दूसरी तरफ अगर विज्ञान के साथ हिंसा का गठबंधन हो जाए तो संसार तहस-नहस हो जाएगा।
इस तरह बाबा ने गरीबी, अभाव और दरिद्रता को दूर करने सतत विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया। इसके लिए विनोबा ने हर परिवार से अपना हिस्सा मांगा। विनोबा ने स्वयं को उस परिवार के सदस्य के रूप में प्रस्तुत किया और भारत की जनता ने भी विनोबा को अपने परिवार के सदस्य के रूप में स्वीकार किया। जिससे शोषण मुक्त समाज की स्थापना हुई।
भूदान आंदोलन के 73 वर्ष बाद भी आज जमीन सामाजिक झगड़ों का प्रमुख कारण है। जिससे मानव समाज में जीवन और मरण की स्थिति पैदा हो रही है, साथ ही कॉर्पोरेट साम्राज्यवाद ने गांवो को खत्म कर दिया है। किसान अपनी जमीन पर मजदूर बन गया है उद्योगपतियों के फार्म हाउस सहकारी खेती की जगह कैश क्रॉप में बदल गए हैं जमीनों में रसायन घोलकर नदियों तालाबों और पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ दिया है जिससे मानव आधारित विकास आज पूंजी आधारित विकास में बदल गया है, जमीन के खत्म होने से इंसान इंसान नहीं रहेगा वह रोग भय और आतंक से युक्त हो जाएगा।