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हॉट टोपिक
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Added on : 2024-04-30 12:36:38

राजेश बादल
ख़बर विचलित करने वाली है ।छत्तीसगढ़ से आई है । चुनाव प्रचार के लिए एक राजनीतिक दल की दो राष्ट्रीय महिला नेत्रियाँ बिलासपुर पहुंची थीं ।उनमें से एक राज्य सभा सांसद और दूसरी पार्टी की महिला शाखा की राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं । कार्यकर्ताओं के साथ लंबी बैठक के बाद इन राज नेत्रियों को महिला शौचालय की आवश्यकता हुई ।निकट ही सरकारी विश्राम भवन था ।दोनों महिलाएं वहां गईं और प्रभारी से शौचालय की अनिवार्यता बताते हुए उसके उपयोग की अनुमति मांगी । प्रभारी ने साफ़ इनकार कर दिया ।कारण पूछने पर उसने चुनाव आचार संहिता का हवाला दिया । उसने कहा कि आचार संहिता के चलते राजनीतिक कार्यकर्ता सरकारी संपत्ति का उपयोग नहीं कर सकते । यदि वे विश्राम गृह के शौचालय का उपयोग करना चाहती हैं तो सब डिवीजनल मजिस्ट्रेट का लिखित आदेश लेकर आएँ । उसके बाद ही उनके लिए शौचालय खोला जाएगा। एक निर्वाचित महिला आदिवासी राज्यसभा सांसद के साथ के साथ कार्यपालिका के एक तृतीय श्रेणी के कर्मचारी का यह बरताव यकीनन शर्मनाक और निंदनीय है । क़ानूनी जानकारों के अनुसार इसके लिए ज़िम्मेदार अफसरों की बर्खास्तगी की सजा भी कम है । क्योंकि उसने उस वजह का सहारा लिया,जिसे तोड़ने पर कोई आपराधिक मामला ही नही बनता।अर्थ यह है कि एक बारगी वे महिला नेत्री शौचालय का इस्तेमाल कर भी लेतीं तो भी उनके विरुद्ध आचार संहिता तोड़ने का कोई प्रकरण पंजीबद्ध नहीं हो सकता था । ऐसे में कार्यपालिका के किसी अधिकारी का यह निर्देश संविधान में प्राप्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन ही है।इसके उलट राज्य सभा सांसद चाहे तो अपने साथ अमानवीय बरताव का आपराधिक प्रकरण दर्ज़ करा सकती है। एक निर्वाचित जन प्रतिनिधि, आदिवासी और महिला को संविधान में प्राप्त मूल अधिकारों से रोकने का मामला बनता ही है।
प्रश्न उठता है कि महिलाओं को सार्वजनिक रूप से सम्मान देने से हम क्यों हिचकते हैं ? हम दादी , नानी, मां ,बहन के रूप में उनके चरण स्पर्श करते हैं ,शिक्षक के रूप में प्रणाम करते हैं ,प्रेमिका और पत्नी के रूप में उसे दिल में बिठाते हैं ।मगर,जब यही स्थिति सार्वजनिक व्यवहार में आती है तो सारी  मर्यादाएँ और संस्कार तार तार होकर बिखर जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि शौचालय के लिए सहायता मांगने आई महिला किसी के भी परिवार की सदस्या हो सकती है ।उसके साथ कोई भी शारीरिक हादसा हो जाए तो कौन ज़िम्मेदार होगा ? कोई भी व्यक्ति उसके साथ इतनी क्रूरता कैसे दिखा सकता है । छत्तीसगढ़ की इस घटना पर समूचा समाज,प्रशासन अभी तक ख़ामोश है और ज़रा ज़रा सी बात को लेकर सड़कों पर उतर आने वाली संस्थाएं और ज़िम्मेदार नागरिक अभी तक चुप्पी साधे बैठे हैं ।    
लेकिन छत्तीसगढ़ के मामले में असल मुद्दा आचार संहिता का भी नही है । सवाल आदर्श आचार संहिता के बहाने प्रशासन के क्रूर,अमानवीय और संवेदनहीन रवैये का भी  है।एक ओर मतदान केंद्रों पर शौचालय और पानी की व्यवस्था उपलब्ध कराने का ढिंढोरा पीटा जाता है तो दूसरी तरफ वही कार्यपालिका सार्वजनिक क्षेत्रों में काम कर रही महिलाओं के साथ संवेदनहीन व्यवहार करती है। क्या भारतीय समाज आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के बाद भी इस अवस्था में नहीं पहुँचा है कि आधी आबादी के प्रति न्यूनतम सम्मानजनक  व्यवहार कर सके ? हम संविधान के लागू होने के अमृत महोत्सव वर्ष में चल रहे हैं और सोच के स्तर पर आदम गुफाओं से बाहर नहीं निकल पाए हैं।इसका मतलब यही हुआ कि संविधान सभा में पूर्वजों ने तो अच्छी भावना से बिना किसी लैंगिक भेदभाव के सबको समान दर्ज़ा दिया था। हमने बाद में उस भावना का आदर नहीं किया। समान व्यवहार की बात तो बहुत दूर  ,संसद और विधानसभाओं में उन्हें तैंतीस फ़ीसदी आरक्षण देने की बात आती है तो सभी ख़ामोश हो जाते हैं।उन्हें जान प्रतिनिधि के रूप में स्वीकार करने में मानसिकता आड़े आती है।   
भारतीय संविधान महिलाओं को पहले दिन से मतदान का अधिकार देता है।संविधान सभा में इस मताधिकार पर धुआंधार बहस हुई थी। कहा गया था कि अमेरिका जैसे लोकतान्त्रिक बड़े देश में संविधान लागू होने के 180 साल बाद महिलाओं को मताधिकार का हक़ मिला था। ऐसे में भारत में इतनी जल्दबाज़ी क्यों की जा रही है ? इस पर बाबा साहब आम्बेडकर , जवाहरलाल नेहरू और राजकुमारी अमृत कौर जैसे सदस्यों ने अपने तर्कों से विरोधियों को चुप कर दिया था। इसके बाद भी छत्तीसगढ़ का हादसा दिल दहलाने वाली घटना है।मध्यप्रदेश में पंचायतराज अधिनियम लागू हुआ तो पुरुष प्रधान मानसिकता ने एक दलित निर्वाचित सरपंच महिला को गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रध्वज नहीं फहराने दिया था।उस समारोह में उस दलित जन प्रतिनिधि को ज़मीन पर बैठने को मजबूर किया गया और पटवारी,ग्राम पंचायत सचिव जैसे कर्मचारी उसके सामने कुर्सियों पर डटे रहे । इस घटना से सरकार की भारी बदनामी हुई ।जब अगला गणतंत्र दिवस आया तो पुलिस के पहरे में उस दलित महिला सरपंच ने तिरंगा फहराया। लेकिन क्या हर साल पुलिस की मौजूदगी में राष्ट्र ध्वज फहराया जाना उचित है ? पिछले साल ही मध्यप्रदेश में एक दलित राज्य सभा सांसद ने तो प्रधानमंत्री से अपने साथ हो रहे भेदभाव और छुआ छूत वाले बरताव की शिकायत की थी । देश की सर्वोच्च पंचायत की यह सदस्य अपने ही शहर में ज़िला प्रशासन के अधिकारियों से प्रताड़ित होती रही और संविधान के रखवाले उपहास उड़ाते रहे । किसी भी सभ्य समाज के लिए यह शर्म की बात है।

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