डॉ. सुधीर सक्सेना
अकबर महान के नवरत्न अब्दुर्रहीम खानाखाना ने सोलहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब कहु रहीम कैसे निभे बेर-केर को संग’ जैसा अर्थगर्भी दोहा लिखा था, तब उन्हें गुमान भी न रहा होगा कि उनका लिखा सदियों बाद आजाद हिन्द की सियासी बारहखड़ी पर लागू होगा। सियासी माजरा सामने है। दोहे की पंक्तियां जेहन में बरबस उभरती हैं: ‘वे डोलत रस आपने, उनके फाटत अंग। दिलचस्प पंक्तियाँ, दिलचस्प दौर। क्या इन्हीं अर्थों में कवि अपने समय के पार देखता है? बहरहाल, सन 2024 में समय ने राजनीति के फलक पर नये अक्षर उकेरे है। चुनावी रण में बीजेपी ‘नव- उमंग, नव-रंग’ में थी, लेकिन ‘अब की बार, चार सौ पार’ का हश्र ‘फीलगुड’ जैसा हुआ। नरेन्द्र मोदी का हश्र उन अटलबिहारी वाजपेयी सरीखा नहीं हुआ,जिन्होंने कभी उन्हें 'राजधर्म' की नसीहत दी थी, लेकिन वह ‘272’ के जादुई अंक से दूर रहे। यही नहीं, उन्हें ‘पद-मोह’ में ऐसी दो नुकीली बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा, जो उनकी बगल में चुभती रहेंगी।
नारा चंद्रबाबू नायडू गारू चतुर-सुजान राजनेता हैं। कहें तो सयाने राजनीतिज्ञ। यूं तो वह दक्षिण भारतीय नेता हैं, अलबत्ता उत्तर भारत के भी वह चहेते हैं और उनकी चालों को पूरे भारत में बहुत उत्सुकता से देखा जाता रहा है। सन 24 में उत्सुकता का यह ग्राफ, और ऊपर हुआ है, क्योंकि चुनाव में उन्हें कमाल की कामयाबी मिली है। यह ऐसी विरल सफलता है, जिससे कोई भी पार्टी या लीडर रश्क कर सकता है। आंध्र में टीडीपी, बीजेपी और जेएसपी की 'त्रोइका' के वह सारथी थे। 175 के सदन में त्रयी ने जगनमोहन रेड्डी की याईएसआर काँग्रेस पाटी र्को '11' के दयनीय धेरे में धकेल दिया और 164 सीटों पर जीत का परचम लहराया। जगन को लोकसभा की 25 में से सिर्फ चार सीटों पर सफलता मिली। टीडीपी ने 16 सीट जीती और सहयोगी दलों- बीजेपी और जेएसपी ने क्रमश: तीन और दो संसदीय क्षेत्रों में जीत दर्ज की।
यही वह संदर्भ है, जिसने चंद्रबाबू नायडू के विभक्त अथवा नये आन्ध्र प्रदेश में ‘किग’ और राष्ट्रीय राजनीति में ‘किंग मेकर’ बना दिया है। किसी भी कीमत पर सत्ता में बने रहने को लालायित और कृत संकल्प बीजेपी के साथ उनका रिश्ता नया नहीं है। पारस्परिक संबंधों की इस डोर में गांठे भी हैं। संबंधों में खटास भी रही है। यह इसी खटास का नतीजा है कि सन 2019 के चुनाव में आंध्र में एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने बाबू के अनुभवी होने पर तंज कसते हुए श्वसुुर (एनटी रामाराव) की पीठ में छुरा घोंपने की बात कही थी। इसे बाबू की अनुभवजन्य दूरदर्शिता ही माना जायेगा कि उन्होंने रिश्तों में गांठों के बावजूद किसी कसैली बात की गाँठ नहीं बांधी और रिंग में वापसी और जीतने की कोशिशों में लगे रहे। इसी के चलते उन्होंने मुंह की खाई, जो उन्हें खारिज करार दे रहे थे। आंध्र में वापसी के कठिन अभियान में उन्होंने बहुत चतुराई से काम लिया। क्षेत्रीय या छोटे सहयोगी दलों के प्रति दीर्घकाय बीजेपी का सलूक उनसे छुपा नहीं था। इसी के चलते आंध्र में गठबंधन के आकार लेने में समय लगा। एकबारगी गंठजोड़ के नक्की होते ही उन्होंने सीटों के बंटवारे में चतुराई बरती। वह तत्काल अण्णा यानि बड़े भाई की भूमिका में आ गये। बीजेपी को उन्होंने आंध्र में लोकसभा की सिर्फ छह सीटें दीं। बीजेपी ने तीन सीटों- राजमुंद्री, नरसापुरम और अंकापल्ली में जीत दर्ज की। पवन कल्याण की जेएसपी काकीनाडा और मछलीपटनम से लड़ी और दोनों ठौर जीती। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि टीडीपी और जेएसपी के रिश्ते फेवीकोल- मार्का है। चंद्रबाबू ने पवन कल्याण को पहली ही जीत पर डिप्टी सीएम पद से नवाजकर इस पर विश्वास की मोहर लगा दी है। टीडीपी और जीएसपी के 18 सांसद एकजुट हैं; एक ही कैनोपीतले ऐक्यबद्ध । भविष्य में बाबू जो भी कदम उठायेंगे, टीडीपी के 16 नहीं, बल्कि टीडीपी-जेएसपी के 18 एमपी उनके साथ होंगे। समीकरणों के बारीक विश्लेषण और बारहमासी सियासी होमवर्क में सिद्धहस्त बीजेपी इस बात से बखूबी वाकिफ है। लिहाजा वह ऐसा कोई राग नहीं छेड़ेगी, जिससे रिश्तों में दरार आये अथवा बदमजगी पैदा हो। यह स्पष्ट है कि बीजेपी सूबे में बाबू को छोड़ नहीं सकती, क्योंकि छप्पर-फाड़ समर्थन की बदौलत टीडीपी और जेएसपी के विधायकों की संख्या क्रमश: 135 और 19 है। भाजपा के हाथ बंधे हैं। उसकी दिक्कत यह है कि वह दोनों क्षेत्रीय दलों की मदद की मोहताज है, जहाँ तक चंद्रबाबू-पवन कल्याण की जोड़ी की बात है, पवन बाबू के गर्दिश में सबसे विश्वस्त सहयोगी बनकर उभरे। उनके पिछले तीन-चार साल बड़े खराब गुजरे। सरकारी एजेंसियां उनके पीछे लगी। स्किल डेवलापमेंट घोटाले में सितंबर, 23 में वह गिरफ्तार हुए और उनके दो माह जेल में बीते। इस पूरे दौर में उनके बेटे नारा लोकेश नायडू ने जहां सभी मोर्चों पर अथक मेहनत की, वहीं पवन - कल्याण उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे। पवन ने बाबू को बड़े भाई का सम्मान दिया, उनका मनोबल बढ़ाया और सफलता में अद्वितीय योगदान दिया। बहरहाल, चंद्रबाबू ने 17 जून को जब चौथी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली, तो समारोह में नरेंद्र मोदी, जेपी नड्डा, अमित शाह भी मौजूद थे। राजनीति निर्मम होती है। यही वजह है कि बाबू ने मोदी के अतीत के वाक्-प्रहारों पर राख डाली और मोदी ने इसे बिसराया कि बाबू ने सन 2002 के गुजरात के दंगों के खिलाफ आवाज उठाई थी।
नरेन्द्र मोदी और चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक पिंड और गुण-धर्म में बड़ी भिन्नताएँ हैं। दोनों में तात्विक अंतर है। मोदी आरएसएस के सांचे में ढले हैं और बाबू सेक्यूलर सोच में । बाबू मुसलमान, मांस मछली, मंगलसूत्र और मुजरे की भाषा नहीं बोलते। वह बदजुबां लीडर नहीं हैं। वह जिद्दी भी नहीं हैं और उनमें प्रत्यास्थता का गुणांक है। लोकसभा के स्पीकर के चुनाव में तरह-तरह के कयास लगाये गये। मुंडेर पर अटकलों के सब्जे उगे। एंटी बीजेपी जमात को बाबू से बड़ी उम्मीद थी। लेकिन बाबू ने कोई बखेड़ा नहीं किया। वजह यह कि उन्होंने एनडीए सरकार को नि:शर्त समर्थन दिया है। अभी वह पाँव पीछे नहीं खींच सकते। उन्हें जिस तवे पर रोटियां सेंकनी हैं, वह अभी उतना सुर्ख गर्म नहीं हुआ है कि रोटी जल जाये। अभी उन्हें कुछ और बेहतर कि कहे कुछ तात्कालिक तकाजे पूरे करने हैं। मोदी स्ट्रांग लाइकिंग और स्ट्रांग डिस-लाइकिंग में यकीन रखते हैं और विरोधियों या नापसंदों के प्रति गहरी अवज्ञा, उपेक्षा और हिकारत का भाव। मोदी अपने विरोधियों को कतई 'स्पेस' या ठौर नहीं देते। एक छोटी सी नजरअंदाज की गयी खबर है। 17 जून को नायडू ने अपने प्रतिद्वंद्वी और पराजित पूर्व सीएम जगनमोहन को न्योता देने की बात कही। उन्होंने स्वयं जगन को फोन भी लगाया। मगर जगन न फोन पर उपलब्ध हुए और न ही आये। मगर वाक्या बाबू की सदाशयता की सियासत की बानगी देता है। ऐसे ही उन्होंने तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी को जून-जुलाई की संधिवेला में खत लिखा कि आइये, हम जुलाई की शाम हैदराबाद में आपके आवास पर मिलें। मुझे यकीन है कि रूबरू चर्चा में पुनर्गठन को लेकर अच्छे नतीजे निकलेंगे। गौरतलब है कि रेवंत एक समय तेलगु देशम पार्टी के महत्वपूर्ण नेता और बाबू के विश्वासपात्र थे। सन 2015 में नोट फॉर वोट स्कैम में बाबू के दूत की भूमिका निभाने के एवज में उन्हें जेल की हवा भी खानी पड़ी। हम चंद्रबाबू और रेवंत को गुरु-शिष्य की संज्ञा दे सकते हैं बड़ी बात यह है कि आंध्र अब राजधानी विहीन है। हैदराबाद दस साल के लिए आंध्र और तेलंगाना की साझा राजधानी था। बाबू यदि अखंड सीएम रहते तो अमरावती का बाबू का ड्रीम प्रोजेक्ट साकार हो गया होता। जगनमोहन ने उनका ख्वाब चकनाचूर कर दिया। चंद्रबाबू ने सन 2014 में सीएम बनने पर करीब 35,000 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया था और सन 2014-19 में करीब 10,000 करोड़ रुपये खर्च किए थे। अब उसकी लागत 21 हजार करोड रुपयों से बढ़कर 40,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गयी है। वैंकटेश्वर विश्वविद्यालय तिरुपति से अर्थशास्त्र में एमए चंद्रबाबू से आंध्र जनों को उम्मीद है कि बाबू के चमत्कार से अमरावती की ख्वाब पूरा होगा।
आंध्र और सारे सारे देश को बाबू से उम्मीदेें बहुत हैं, किन्तु बाबू के कंधे झुुके हुए हैं। उन्हें कर्ज में डूबा सूबा विरासत में मिला है। आंध्र पर करीब 4.83 लाख करोड़ का ऋण है। खबर है कि आंध्र ने जून में 2000 करोड़ की प्रत्याभूतियां बेचने का उपक्रम किया है। जन विश्वास कायम रखने को उन्हें गारंटियों को भी पूरा करना है। यानि उन्हें 1.21 करोड़ रुपए सालाना जुटाने होंगे। एक जुलाई को 65 लाख पेंशनरों को एनटीआर भरोसा पेंशन स्कीम के तहत उपकृत करने का अर्थ था 4500 करोड़ रूपयों का खर्च। ऐसे ही औरतों को नि: शुल्क बस यात्रा पर खर्च आयेगा करीब 2000 करोड़ रुपये। खर्चे मुंह बाये खड़े हैं। बाबू की दिक्कत यह कि सर्वाधिक लाभ का हैदराबाद अब आंध्र में नहीं है, जिसे उन्होंने ग्लोबल-प्रसिद्धि दी थी।
चन्द्रबाबू विजनरी-नेता हैं। प्रगति और और आधुनिक प्रौद्यौगिकी उनकी वरीयता है। इस वरीयता के लिए इनकी नुक्ताचीं भी हुई है। उनसे अपेक्षाओं का कद बड़ा है। उन्हे पोलावरम - प्रोजेक्ट को भी पूरा करना है। देखना दिलचस्प होगा कि कार्पोरेटों पर मेहरबान मोदी राज में वह विशाखापटनम इस्पात संयंत्र को निजी हाथो में जाने से बचा पाते है या नहीं? आंध्र को विशेष राज्य का दर्जा देने की उनकी मांग आज भी लंबित है और इसी बिना पर उन्होंने पांच साल पहले मोदी सरकार से समर्थन वापस लिया था। मोदी सरकार से उनकी राह इस नाते भी भिन्न है कि वह मुस्लिमों को चार प्रतिशत आरक्षण और सामाजिक सुरक्षा स्कीमों के प्रति प्रतिबद्ध है। उनके बेटे, राज्य में मंत्री और उनके उत्तराधिकारी नारा लोकेश का कथन मानीखज है कि हमने विशेष राज्य की मांग पर एनडीए छोड़ा था, किन्तु हमारा पुनर्प्रवेश बिनाशर्त है। लोकेश और चंद्रबाबू के मन में अटलबिहारी वाजपेयी के प्रति कृतज्ञता का भाव है, जो आंध्र के प्रति उदार थे। लोकेश जगन की हार को अहंकार की हार की संज्ञा देते हैं। उनका कथन भविष्य के अटकलों को हवा देता है। वाजिब मुद्दे न हो तो सही कदम भी गलत साबित हो जाता है। शिवसना नेता आदित्य ठाकरे ने इस बीच टीडीपी को मोदी से मुलाकात की पूर्ववेला में बीजपी की ‘टैक्टिक्स’ के प्रति चेताया है। चंद्रबाबू लंबी रेस के धावक हैं। आज का घटनाक्रम आगामी कल की राजनीति का पूर्वपीठिका है। अभी तो इब्तिदा है। आगे-आगे देखिये होता है क्या...।