शुभम बघेल
मध्यप्रदेश के आदिवासी अंचलों में दगना कुप्रथा आज भी मासूमों की जान ले रही है। अंधविश्वास के फेर में इलाज के नाम पर गर्म सलाखों से बच्चों को दागकर क्रूरता की जा रही है। सरकारी रिकार्ड के अनुसार, पिछले पांच साल में अकेले सिर्फ शहडोल संभाग में तीन हजार से ज्यादा बच्चे दगना के पाए गए हैं। बात 2018 की है। दशहरा और दीपावली के वक्त लगातार गांवों और अस्पतालों से लगातार बच्चों को दागने की खबर सामने आ रही थी। बार-बार कई बड़े सवाल मुझे परेशान कर रहे थे कि आखिर क्या वजह है, जो पैदा होते ही मासूमों के साथ इस तरह कू्ररता की जा रही है। दगना कुप्रथा की पड़ताल के लिए आदिवासी गांवों की ओर बढ़ा। एक के बाद एक आधा सैकड़ा से ज्यादा गांवों में पहुंचकर स्थिति देखी तो यहां अंधविश्वास के भयावह हालात सामने आए। गांव- गांव और घर-घर अधिकांश परिवारों में हर बच्चा दगना कुपोषण का शिकार। अंदर तक मन को बैचेन कर देने वाली तस्वीर और गांवों की ओर बढ़ते गया तो इतने बच्चे दगना का शिकार मिले, जो डायरी में लिखे शब्दों से कहीं ज्यादा थे। हर आदिवासी गांवों में दगना का दंश झेल चुके आधा सैकड़ा से ज्यादा लोग मिल रहे थे। स्थानीय भाषा में ग्रामीण इसे आंकना कहते हैं। जिससे भी पूछा, यहीं बताता गया कि पैदा होते ही बच्चा सूखने लगता है। कभी सांस चलती है तो कभी पेट बैलून की तरह फूल जाता है। कई बार सीने में भी तेज दर्द होता है, इसलिए बच्चों को गुनिया या फिर दाई के माध्यम से गर्म लोहे से दगवा दिया जाता है, इससे दर्द खत्म हो जाता है। कुपोषण की चपेट में आने के बाद और पेट में नीली नस देखते ही गुनिया गर्म लोहे से दाग देते थे। अधिकांश गांवों में 80 फीसदी मासूम दर्द झेल चुके हैं। बार- बार जेहन में एक ही सवाल उठ रहा था कि इतनी हाइटेक हेल्थ सुविधाएं आखिर इन गांवों तक क्यों नहीं पहुंच सकी। इसमें ग्रामीणों में जागरूकता का अभाव देखने को मिला और मैदानी अधिकारियों के साथ स्वास्थ्य विभाग के बड़े अधिकारियों की अनदेखी दिखी। दीपावली 2018 के बाद से लगातार बच्चों को दागने की खबर आ रही थी। ऐसे हालातों ने दगना के खिलाफ अभियान छेडऩे के लिए मजबूर कर दिया। शहडोल से सटे उमरिया के देवगवां, सेमहरिया और खम्हरिया सहित आधा दर्जन गांवों में पहुंचकर पड़ताल की। स्थिति यह थी कि हर गांव में 80 से 90 फीसदी मासूमों को बचपन में तकलीफ होने पर गर्म लोहे से दागा दिया गया था। किसी के पेट में 10 तो किसी के पेट में 50 बार गर्म लोहे से दागने के निशान थे। आदिवासी परिवारों में बुजुर्ग लोगों का कहना था कि पेट में नीली नस दिखते ही गर्म लोहे से दागा जाता है। नीली नस दिखते ही बुजुर्ग समझ जाते हैं कि नवजात दर्द में है और फिर गर्म लोहे से दाग दिया जाता है। उधर डॉक्टरों का तर्क था कि मासूमों के लिए यह बेहद ही खतरनाक है। जान भी जा सकती है। वहीं बड़े बुजुर्गो का मानना था कि दागने से दर्द और बीमारी खत्म हो जाती है। गांवों में घूमा तो यह बात सामने आई कि दागने की सबसे ज्यादा कुप्रथा बैगा, कोल और फिर गौंड समाज में है। इन समाज के 70 से 80 फीसदी बच्चों को पैदा होने के कुछ समय बाद बीमारी से ग्रसित होने पर गर्म लोहे से दाग दिया जाता है। इन समाज में दागने के बाद कई मासूमों की मौत भी हो चुकी हैं। उमरिया के देवगवां गांव में एक वृद्ध महिला कहती है दागना अपने पूर्वजों से सीखा था। उसने बताया कि शरीर के जिस हिस्से में सबसे ज्यादा दर्द होता है,उससे संबंधित नसों को गर्म लोहे से दाग दिया जाता है। नसों को दागने से पहले लोहे की पतली सलाखें गर्म की जाती हैं। काफी समय तक गर्म करने के बाद मासूमों के उस हिस्से में बिंदु की तरह रख रखकर जला दिया जाता है,जहां दर्द हो। शहडोल के गांवों की ओर बढ़ा तो देखा कि यहां गर्म लोहे की सरिया और हसिया से आंककर दर्द से लेकर लकवा और गांठ तक का इलाज कर रहे हैं। इस तरह से इलाज वाले मानते हैं कि ऐसा करने से पूरी तरह बीमारी ठीक हो जाती है। बुजुर्गो का मानना है कि ऐसा करने से दर्द खत्म हो जाता है। महिला ने बताया कि घर के बड़े बुजुर्गो का दबाव था। बुजुर्गो का तर्क था कि इलाज से पहले दागने से ठीक हो जाएगा। दबाव में आकर मजबूरी में मासूम को गर्म लोहे से दगवाना पड़ा। अस्पताल पहुंचकर हकीकत जानी तो सामने आया कि हर दो दिन में दागने (गर्म लोहे से जलाना) के मामले आ रहे हैं। इसमें सबसे ज्यादा आदिवासी समुदाय के बच्चों शामिल हैं। माह में 20 से 25 मासूम सिर्फ जिला अस्पताल पहुंच रहे थे। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों की मानें तो पिछले 10 साल में लगभग 5 हजार मासूम दगना की क्रूर प्रथा के चलते जिला अस्पताल पहुंचे हैं। जयसिंहनगर के गिरईखुर्द निवासी सुहाना कंवर (45 दिन) के सीने में दर्द होने पर दादी ने गर्म लोहे से 48 दिन की मासूम को 16 बार दाग दिया था। उमरिया से रेफर होकर पहुंचे रामप्रताप के बेटे को भी इलाज की बजाय परिजनों ने गर्म लोहे से दाग दिया था। उमरिया के देवगवां में दो माह की मासूम को 20 बार गर्म लोहे से दागा गया था। इलाज के दौरान नीरज बैगा के दो माह के पुत्र धीरज की मौत हो गई थी। जैतपुर रस मोहनी से सटे फुलझर गांव में तनु पनिका के 15 दिन के मासूम को 51 बार गर्म लोहे से दागा गया था। मामला प्रशासन के संज्ञान में आया तो मानव अधिकार आयोग ने अधिकारियों ने जवाब मांगा। बाद में अफसरों ने बैठक ली। टास्क फोर्स बनाई और चुनाव आयोग ने भी इसे अपने स्वीप प्लान में शामिल किया। आदिवासी अंचल के भयावह अंधविश्वास से गुजर रहे ग्रामीणों के इस मुद्दे को शासन ने गंभीरता से लिया। तत्कालीन आयुक्त महिला बाल विकास ने जांच करने और अभियान चलाने के निर्देश दिए। तत्कालीन कमिश्नर शहडोल जे के जैन और शोभित जैन ने संभाग के अधिकारियों से स्पष्टीकरण मांगा था और प्लानिंग तैयार कराई। ज़िला कलेक्टर ने इस मामले में टास्क फोर्स कमेटी बनाई और आईएएस सहित पुलिस अधिकारियों को शामिल किया । लगातार जागरूकता अभियान चलाया गया। शहडोल में गांव गांव अफसरों की टीम घूमी तो हजारों बच्चे दागे हुए पाए गए । ये सभी एक से पांच साल तक के मासूम थे। शहडोल संभाग के उमरिया में भी इसका असर देखने को मिला। वहां भी 565 दगे हुए बच्चे मिले। बाद में कलेक्टर ने दगने पर धारा 144 लागू कर दी। संभाग में गांव गांव दगना के खिलाफ दीवार लेखन कराया गया और जागरूकता अभियान चलाया गया। राज्य और राष्ट्रीय स्तर के जजों की टीम पहुंची। स्टेट लीगल सर्विस अथारिटी और नेशनल लीगल सर्विस अथारिटी के जज और अधिकारी पहुंचे और गांवों में कैंप लगाया। संभाग में दगना के खिलाफ बड़ा असर देखने को मिला। 2023 में भी कई दागना के मामले सामने आने पर एफआइआर दर्ज कराई गई। स्वास्थ्य विभाग के अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई की गई। 50 से ज्यादा कर्मचारियों को हटाया गया। यह कुप्रथा जड़ से तो नहीं खत्म हुई लेकिन काफी गिरावट आई है। दो दर्जन से ज्यादा दगना को बढ़ाना देने और दागने वाले गुनियों के खिलाफ एफआइआर हो चुकी है। दगना के खिलाफ जागरूकता अभियान चल रहा है। झाडफ़ूंक करने और दागने वाले गुनियोंं की काउंसलिंग अधिकारियों द्वारा कराई जा रही है।