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Added on : 2023-10-15 12:22:53

राजेश बादल 

चुनाव दर चुनाव प्रचार अमर्यादित और अभद्र हो रहा है। भाषा अश्लीलता की सीमा रेखा को पार कर चुकी है। वे सारे हथकंडे अपनाए जा रहे हैं ,जो किसी ज़माने में गंदे और घिनौने माने जाते थे। किसी एक राजनीतिक दल को इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। कमोबेश सभी पार्टियाँ नैतिकता के सारे मापदंडों को भुला चुकी हैं। पाँच प्रदेशों की विधानसभा के चुनाव चूँकि अगले साल लोकसभा निर्वाचन से ठीक पहले होने वाले चुनाव हैं ,इसलिए दोनों शिखर पार्टियाँ तथा क्षेत्रीय दल अभी नहीं तो कभी नहीं वाले अंदाज़ में आमने सामने हैं। ऐसे में उनको नियंत्रित करने के लिए एक ही उपाय बचता है। यह उपाय आचार संहिता पर सख़्ती से अमल होना है। एक ज़माने में इसी आचार संहिता के सहारे मुख्य चुनाव आयुक्त टी एन शेषन ने चुनाव के दरम्यान फैलने वाली सारी बीमारियों को ठीक कर दिया था। सारा देश आज तक उनको इस उपलब्धि के लिए याद करता है कि उन्होंने इस देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष की परंपरा को पुनर्स्थापित किया। 
तो फिर वही स्थिति लाने में बाधा कहाँ है ? क्या हम सचमुच ईमानदारी से नहीं चाहते कि हमारे नुमाइंदे एक पारदर्शी और दोष रहित प्रणाली के ज़रिए चुने जाएँ या फिर हमने मान लिया है कि यह राष्ट्र अब ऐसे ही चलेगा। यदि दोनों बातें भी सच हैं तो यह बहुत स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपरा नहीं है। हमारे संविधान को रचने वाले पूर्वज आज होते तो निश्चित रूप से पीड़ित होते।जब हम आचार संहिता की बात करते हैं तो स्वीकार करने में हिचक नहीं है कि वर्तमान आचार संहिता का कोई वैधानिक आधार नहीं है। केरल विधानसभा के चुनाव में 1960 में सबसे पहले आचार संहिता को अमल में लाया गया। चुनाव आयोग ने 1962 के चुनाव में पहली बार लोकसभा चुनाव में इससे सभी राजनीतिक दलों को परिचित कराया। सारे दलों ने इसका पालन किया। इसके बाद सभी दलों के साथ आयोग की बैठकें हुईं। इनमें दलों ने आचार संहिता का पालन करने का वादा किया। पाँच बार इसमें आंशिक संशोधन हुए और 1991 में टी एन शेषन के कार्यकाल में मौजूदा आचार संहिता को मंज़ूर किया गया। इसमें पहली बार जाति और धर्म के आधार पर प्रचार पर पाबंदी लगाई गई थी। इसका परिणाम भी देश ने 1996 के चुनाव में देखा था। कोई क़ानूनी वैधता नहीं होते हुए भी मुख्य चुनाव आयुक्त ने कठोरता से आचार संहिता का पालन करवाया।सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मौजूदा आचार संहिता को न्यायिक मान्यता दी है। लेकिन जब भी इसे वैधानिक रूप देने की बात उठी ,चुनाव आयोग ने ही इसका विरोध किया। उसका तर्क है कि 45 दिनों में ही पूरी चुनाव प्रक्रिया संपन्न करानी होती है ।अगर आचार संहिता को वैधानिक रूप दिया गया तो अदालतों में मामले लटक जाएँगे। इससे समूची निर्वाचन प्रक्रिया में बाधा पहुँचेगी।चुनाव आयोग के इस मासूम तर्क ने मुल्क़ की निर्वाचन प्रणाली का बड़ा नुक़सान किया है।दस साल पहले  2013 में एक समिति ने आचार संहिता को कानूनी रूप देने का सुझाव दिया था।इस संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि आचार संहिता के ज्यादातर प्रावधान  कानूनों के माध्यम से लागू कर दिए जाने चाहिए । समिति यह  सुझाव भी दिया था कि आचार संहिता को रेप्रजेंटेशन ऑफ पीपुल ऐक्ट, 1951 का हिस्सा बनाया जाना चाहिए।पर उन सिफारिशों को ठन्डे बस्ते के हवाले कर दिया गया। 
आम तौर पर आचार संहिता लगने के बाद नए सरकारी कार्यक्रमों  और घोषणाओं की घोषणा रोक दी जाती है लेकिन इसका यह अर्थ नही है कि आचार संहिता के पहले राजनेता ऐसे वादे करें ,जो कभी पूरे ही नहीं हो सकते हों । मसलन मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री और उनकी पार्टी तथा मंत्रियों ने बीते दो तीन महीनों में एक लाख करोड़ रुपए से भी अधिक की योजनाएं घोषित कर डालीं। एक वरिष्ठ अधिकारी का अनुमान है कि इन घोषणाओं को पूरा करने के लिए कम से कम पच्चीस साल चाहिए ।विडंबना यह है कि इसी प्रदेश के पास अपने नियमित खर्चों के लिए पैसा नहीं है और वह दस महीने से लगभग हर महीने तीन से चार हज़ार करोड़ रुपए कर्ज़ ले रहा है । इसी साल राज्य के मुख्यमंत्री ने प्रदेश की क़रीब सवा करोड़ महिलाओं को हर महीने उनके खाते में पहले हज़ार रुपए और बाद में उसे बढ़ाकर 1250 रुपए बढ़ाकर डालने शुरू किए हैं ।बिना श्रम के धन देने की यह प्रक्रिया क्या अनैतिक नही मानी जाएगी ?
इसी तरह जन प्रतिनिधित्व क़ानून 1951 के भाग 7 'भ्रष्ट आचरण और निर्वाचन अपराध' की धारा 125 साफ़ साफ़  कहती है कि चुनाव के दौरान लोगों के बीच धर्म के आधार पर शत्रुता या घृणा की भावनाएँ भड़काने वाले को तीन साल की क़ैद और जुर्माने से दंडित किया जा सकता है।विडंबना है कि यह धारा किसी राजनीतिक दल के ख़िलाफ़ चुप्पी साधे हुए है।याने किसी दल का कोई उम्मीदवार प्रचार के दौरान हिन्दू - मुस्लिम समुदाय को आपस में भड़काने या दोनों समुदायों में शत्रुता पैदा करने वाला प्रचार करता है तो उसके विरुद्ध अपराध दर्ज़ हो सकता है लेकिन उस दल के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई का अधिकार चुनाव आयोग को नहीं है। सन 2014 में भारत सरकार के पत्र सूचना कार्यालय ने आम चुनाव पर एक प्रामाणिक ग्रन्थ प्रकाशित किया । इसमें जन प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की चुनाव से जुड़ी सारी धाराओं का उल्लेख है ,लेकिन भाग 7 की धारा 125 का कहीं कोई ज़िक्र नहीं। विडंबना यह है कि किसी राजनीतिक दल का पंजीकरण करने के लिए धारा 29 - क के तहत यह शपथ लेना  ज़रूरी है कि वह दल धर्म निरपेक्ष है। अब अगर कोई दल बाद में धर्मनिरपेक्ष न भी रहे तो भी उसकी मान्यता आयोग निरस्त नहीं कर सकता क्योंकि मान्यता निरस्त करने का आधार निर्धारित मतों का प्रतिशत हासिल करना है। धर्मनिरपेक्षता की शपथ तोड़ना नहीं।

 

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