राजेश बादल
पाँच प्रदेशों में चुनाव प्रक्रिया अब क़रीब क़रीब अंतिम चरण में है। इसके संपन्न होते ही लोकसभा चुनाव की गतिविधियों का आग़ाज़ हो जाएगा। लेकिन इस दरम्यान इस देश को निर्वाचन क़ानून ,चुनाव प्रणाली और पहली चुनी हुई सरकार देने वाले युगपुरुष को उस सम्मान के साथ याद नहीं किया गया, जिसका वह हक़दार था।साल दर साल पूर्वजों को भूलने की यह गति और तेज़ होती जा रही है। इतिहास गवाह है कि जो क़ौम अपने पुरखों को याद नहीं रखती , उसको संसार भी याद नहीं रखता।इसलिए लोकतंत्र का यह अध्याय अपने संस्कारों की नींव में महसूस करते रहना ज़रूरी है।
अपनी बात को और स्पष्ट करता हूँ।कुछ बरस पहले मैं एक दिन देर जाने माने पत्रकार कुलदीप नैयर के पास बैठा था। बातों बातों में उन्होंने सवाल पूछा कि इस देश के राज्यों में तो राष्ट्रपति शासन होता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रपति शासन क्यों नहीं लगाया जाता ? मैं कुछ उत्तर देता ,इससे पहले ही बोले कि मैं बताता हूँ। संविधान सभा में यह बात उठी थी कि देश में भी राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था होनी चाहिए। चर्चा में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने हस्तक्षेप किया।उन्होंने कहा कि देखिए।राज्यों में तो राज्यपाल होंगे । जब कभी ऐसी स्थिति बनी कि निर्वाचित सरकार नहीं हो तो चुनाव होने तक राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था रहेगी । राज्यपाल राष्ट्रपति का प्रतिनिधि होगा। यदि वह निरंकुश हो जाए या अलोकतांत्रिक व्यवहार करे तो राष्ट्रपति को उसे हटाने का पूरा अधिकार होगा। वह संविधान से बंधा होगा। इसलिए लोकतंत्र पर कोई ख़ास संकट नहीं आएगा। हमने बड़ी मेहनत से यह आज़ादी पाई है। इसका महत्त्व वही समझ सकते हैं ,जिन्होंने स्वतंत्रता के लिए क़ुर्बानियाँ दी हैं और जेलों में ज़िंदगी काटी है।इस लोकतंत्र की हिफाज़त हमारा पहला कर्तव्य है। मान लीजिए सरकार नहीं होने पर हिन्दुस्तान में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया और उस पद पर बैठे व्यक्ति पर अधिनायकवादी विचारों ने आक्रमण कर दिया ,वह तानाशाह हो गया तो उसके ऊपर कौन बैठा है ? कोई राष्ट्रपति ऐसा आया तो लोकतंत्र कहाँ रहेगा ? हमने अनेक कठिनाइयों के बाद सामंती शासन या राजा रानियों से मुक्ति पाई है।अब हम राष्ट्रपति के रूप में कैसे नए दौर के राजा को चुन सकते हैं। नेहरू जी के इतना कहते ही सन्नाटा छा गया। उनके तर्क अकाट्य थे। राष्ट्र के भविष्य का निर्धारण करने वाली कसौटी की रचना प्रक्रिया में यदि नेहरूजी नहीं आए होते तो लोकतंत्र को कबका ग्रहण लग गया होता।
मौजूदा माहौल में कुछ जानकार अक्सर पंडित नेहरू पर सवाल उठाते हैं।क्या उनके लिए यह उदाहरण पर्याप्त नहीं है ।फिर भी एक तथ्य पेश करना चाहूँगा।आज़ादी के बाद नेहरू जी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली थी।ऐतिहासिक दस्तावेज़ कहते हैं कि शपथ से पहले नेहरू अनमने थे। वे जानते थे कि आज़ादी के आंदोलन में कांग्रेस ने ख़ास भूमिका निभाई है। उस कांग्रेस में सभी शामिल थे। घनघोर हिंदू ताक़तें भी कांग्रेस में थीं और वाम विचारधारा के लोग भी। समाजवादी सोच के प्रतिनिधि थे और अल्पसंख्यकों के नुमाइंदे भी शामिल थे।उस आंदोलन में कोई सिख नहीं था, बौद्ध नहीं था, हिन्दू नहीं था और न मुसलमान था। वह केवल हिन्दुस्तानी था।वह कांग्रेस सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करती थी। वह अपनी सरकार बना भी लेती तो भी कोई एतराज़ नहीं करता। नेहरूजी यह समझते थे और यही अनमनेपन का कारण था। वे सर्वअधिकार संपन्न सरकार की अगुआई तब तक नहीं करना चाहते थे,जब तक देश की अवाम जनादेश नहीं दे । जनादेश के लिए चुनाव आवश्यक थे और चुनाव के लिए एक नियामक तंत्र ज़रूरी था। वे चाहते तो तत्काल चुनाव आयोग गठित कर सकते थे। लेकिन वे यह नहीं चाहते थे। उन्होंने संसद में संविधान के पारित होने का इंतज़ार किया। जब निर्वाचन अधिनियम ने क़ानून की शक्ल ले ली तो फिर उसके बाद ही चुनाव आयोग का गठन हुआ। उनकी मंशा थी कि कोई आक्षेप नहीं लगाए कि नेहरू ने अपनी मर्ज़ी का आयोग बना दिया और मर्ज़ी से चुनाव करा लिए। सन्दर्भ के तौर पर बताऊँ कि 1947 में भारत की सरकार एक राष्ट्रीय सरकार थी। वह कांग्रेस की सरकार नहीं थी ,जैसा कि हम आज यह समझ लेते हैं कि 1947 से 1952 तक भी हिन्दुस्तान में कांग्रेस सरकार थी।चौदह मंत्रियों वाली नेहरू जी की इस सरकार में सभी दलों और कांग्रेस - नेहरू से असहमत विचारधारा वाले लोग भी थे।उनका अनुपात तय था।चौदह में पाँच ग़ैर कांग्रेसी मंत्री थे। सबसे पहला नाम हिन्दू महासभा के श्यामा प्रसाद मुखर्जी का है। उनके बाद पंथिक पार्टी के सरदार बलदेव सिंह, एससीएफ के डॉक्टर भीमराव आंबेडकर तथा नेहरू के कट्टर आलोचक रहे जॉन मथाई और आर के षणमुगम शेट्टी जैसे राजनेता भी मंत्रिमंडल में थे. बता दूँ कि उन्हें लेने के लिए नेहरू पर किसी दृश्य - अदृश्य ताक़त का दबाव नहीं था। लेकिन वे सभी को साथ लेकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण का सफ़र तय करना चाहते थे।आज तो गठबंधन सरकारों में मंत्रालयों के लिए मोलभाव चलता है ,पर नेहरू मंत्रिमंडल में आम्बेडकर क़ानून मंत्री थे तो बलदेवसिंह रक्षा मंत्री और श्यामा प्रसाद मुखर्जी उद्योग और आपूर्ति मंत्री थे।
लोकतांत्रिक प्रक्रिया और उसमें नैतिक मूल्यों को लेकर नेहरू की प्रतिबद्धता में कोई संदेह नहीं था। जब 1952 में विधानसभाओं के चुनाव हो रहे थे तो नेहरू जी विंध्यप्रदेश के रीवा में कांग्रेस के प्रचार के लिए आए। जब वे मंच पर भाषण कर रहे थे ,तो एक पर्ची उनके पास पहुँची। उसमें लिखा था कि आप जिस उम्मीदवार के लिए वोट माँगने आए हैं ,वह तो घूसख़ोरी के मामले में जेल की हवा खा चुका है। नेहरू जी ने मंच पर उपस्थित कांग्रेस के नेताओं से पूछा कि क्या यह सच है तो सबने सहमति में सिर हिला दिया। इसके बाद नेहरू जी ने यह कहते हुए भाषण ख़त्म कर दिया कि वे अपनी पार्टी के प्रत्याशी के लिए वोट मांगने आए थे । मगर अब कहते हैं कि उस उम्मीदवार को वोट नहीं दें। इस तरह कांग्रेस का वह प्रत्याशी चुनाव हार गया। क्या मौजूदा चुनावी माहौल में आप ऐसा सोच भी सकते हैं ?