राजेश बादल
सोमवार को हिंदुस्तान ने अपने दो राष्ट्र नायकों को याद किया ।इनमें से एक ने राष्ट्र को एकजुट करने के लिए अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया और दूसरे ने देश की एकता और अखंडता के लिए अपनी जान दे दी ।सरदार पटेल और इंदिरा गांधी को इसीलिए याद किया जाना चाहिए कि उन्होंने आने वाली पीढ़ियों को अपने सपनों का भारत रचने के लिए अवसर प्रदान किए ।नई नस्लें उनके योगदान के मद्देनज़र हमेशा कृतज्ञ रहेंगी ।पर, क्या वाकई हमने ऐसा देश गढ़ा है, जिसमें अपने पुरखों को श्रद्धा और आस्था से याद किया जाता हो।स्वतंत्रता का अर्थ यह नहीं होता कि उसके लिए कुर्बानियां देने वालों को हम शापित करना प्रारंभ कर दें और उनकी गलतियों को उत्तल लेंस से देखें।हमने इन राष्ट्रीय प्रतीक पुरखों को भी दलगत राजनीति से बांध दिया है ।सरदार पटेल पर सिर्फ़ एक दल का अधिकार नहीं है और न ही इंदिरा गांधी को किसी एक पार्टी से जोड़कर देखा जा सकता है ।सरदार पटेल ने यदि राजे रजवाड़ों का विलय हिंदुस्तान में कराया तो इंदिरा गांधी आधुनिक भारत की बड़ी शिल्पी बन कर उभरी ।देश को पूरब और पश्चिम सीमाओं पर पाकिस्तान जैसे शत्रु देश का खतरा था।बांग्लादेश का निर्माण कर पूर्वी सीमा को हमेशा के लिए सुरक्षित करने वाली इंदिरा गांधी ही थीं ।सिक्किम अलग देश था और उसकी तरफ़ से चीन का खतरा बना हुआ था।इंदिरा गांधी की बदौलत ही वह आज भारत का अभिन्न अंग है।पंजाब को खालिस्तान आंदोलन के बहाने अपने देश में मिलाने का पाकिस्तानी षड्यंत्र इंदिरा गांधी ने ही नाकाम किया था ।अनाज और दूध उत्पादन में भारत को आत्मनिर्भर बनाने का श्रेय भी इंदिरा गांधी को ही जाता है ।देश को परमाणु शक्ति और अंतरिक्ष क्षेत्र की बड़ी ताक़त बनाने का काम इंदिरा गांधी के कार्यकाल में ही हुआ था।क्या आप भूल जाएँगे कि आज विदेश मंत्री जयशंकर जिस आक्रामक अंदाज़ में अमेरिका से बात करते हैं ,वह तो मूलतः इंदिरा गाँधी की देन है। भारत -पाक जंग के दरम्यान इंदिरा जी ने अमेरिका की पोटली बना कर रख दी थी। आपातकाल के एक फ़ैसले के कारण आप समग्र उपलब्धियों पर पानी नहीं फेर सकते।जो सियासी बिरादरी आपातकाल का विरोध लोकतंत्र की दुहाई देकर करती है, वह वर्तमान में सारे दलों में मर रहे लोकतंत्र पर विलाप क्यों नही करती ?
एक शिखर प्रतीक की उपलब्धियां केवल पार्टी की नहीं होतीं ।वे पूरे राष्ट्र की होती हैं ।खेद है कि इन दिनों राष्ट्रीय सफलताएँ भी दलगत राजनीति का हिस्सा बन गई हैं ।हमारे पुरखों ने देश के लिए काम किया था।संविधान की शपथ उन्होंने देश के लिए काम करने की ख़ातिर ली थी, अपनी पार्टी के लिए नहीं।मगर आज हमने उन प्रतिनिधि पूर्वजों को पार्टी की सीमाओं में बांधकर देखना शुरू कर दिया है। और तो और, अब हम राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की निंदा करने से नहीं चूकते। सारा संसार इस बात की गवाही देता है कि महात्मा गांधी ने हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए क्या किया है ? लेकिन अब उनके देश के ही लोग उन्हें सवालों के घेरे में खड़ा करने लगे हैं ,जो अपना पक्ष हमारे सामने रखने के लिए इस दुनिया में ही नहीं हैं । हममें से ही एक भारतीय ने उन्हें गोलियों का निशाना बना दिया। विडंबना है कि अपना इतिहास ज्ञान हम सुधारना नहीं चाहते और विकृत तथ्यों के सहारे अधकचरी राय बना बैठते हैं।अपने पूर्वजों के प्रति इससे बड़ी कृतघ्नता और क्या हो सकती है ? क्या आज आप सोवियत संघ के विघटन के लिए विघटित देशों को मिखाइल गोर्बाचौफ़ को गालियां देते कहीं सुनते हैं ? क्या जर्मनी के लोग हिटलर और इटली के लोग मुसोलिनी को या चीन के लोग माओत्से तुंग की निंदा उनके गुज़र जाने के बाद करते हैं ?हम यह कैसा साक्षर मुल्क़ बना रहे हैं,जो अपने पूर्वजों को गरियाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ता।उसे ख़्याल नहीं आता कि आने वाली नस्लें इसी आधार पर बरसों बाद उसको इसी तरह कोसेंगीं और उनकी उपलब्धियों को भी खारिज़ कर देंगीं।
विनम्र निवेदन है कि पुरखे सिर्फ़ वे ही नहीं होते ,जिनसे आपका ख़ून का रिश्ता रहा है अथवा जो आपके दादा, परदादा या नाना पड़नाना रहे हैं । हम हर साल इन पूर्वजों का पिंडदान या श्राद्ध करते हैं तो सिर्फ़ इसीलिए कि वे प्रसन्नता के साथ देखें ( यदि कहीं से सचमुच देख रहे हैं ) कि उनके वंशज अपना कर्तव्य कितनी पवित्रता के साथ निभा रहे हैं । इस दृष्टि से क्या हम अपने राष्ट्रीय पूर्वजों का सचमुच श्राद्ध कर रहे हैं ? क्या उन्हें याद करने में हमारा वह आदर झलकता है ,जो ग़ुलामी की ज़ंजीरों को तोड़कर इस महान मुल्क को आज़ाद कराने के बदले उन्हें देना चाहिए ? उनके आचरण, सिद्धांतों और गुणों से सबक लेकर अपने राष्ट्र का निर्माण ही सच्चा श्राद्ध है।लेकिन हमने ऐसा नहीं किया । पूर्वजों को तो छोड़ दीजिए ,भारत के प्रति अपने कर्तव्यों का अहसास भी हम नहीं कर पाए हैं । आहत होने वाले कृपया माफ़ करें , पर सवाल यह भी जायज़ है कि हमारे पारिवारिक पुरखों में से बड़ी संख्या क्या ऐसे लोगों की नहीं है ,जो सारी ज़िंदगी गोरी हुकूमत के प्रति वफादारी निभाते रहे । उन्हें आप क्या कहेंगे ?क्या यह सच नहीं है कि आज अपने परिचय संसार में ऐसे अनेक लोग पाते हैं ,जो इस बात को बड़े गर्व से बताते हैं कि उनके दादा या पड़दादा तो अंग्रेजों के ज़माने में कलेक्टर थे या ऊंचे ओहदे पर थे या उन्हें राय साहब अथवा सर की उपाधि मिली थी । क्या यह सच नहीं है कि हमारे देश के लोगों ने ही 1915 के ग़दर की पूर्व सूचना दी थी। वे कौन से लोग थे ,जो अंग्रेज़ों को हमारे क्रांतिकारियों के बारे में ख़ुफ़िया तौर पर सूचना देते थे और बदले में उनसे पैसे लेते थे। वे कौन थे ,जो गोरी सत्ता से चुपचाप पैसे लिया करते थे। क्या वे हमारे पुरखे नहीं थे ? यह हमारे कौन से राष्ट्रीय चरित्र का नमूना है ? क्या इस पर हम गर्व कर सकते हैं। कदापि नहीं।