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हॉट टोपिक
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Added on : 2024-05-09 16:21:55


राजेश बादल
हालिया दौर संसदीय लोकतंत्र के नज़रिए से बड़ा भारी बीता है।अलग अलग स्तर पर राजनेताओं के पार्टियाँ छोड़ने की ख़बरें आती रहीं।इनमें निर्वाचित जन प्रतिनिधि हैं,लोक सभा चुनाव के प्रत्याशी हैं और संगठन के नेता भी हैं। पचहत्तर साला लोकतंत्र के लिए इस तरह की घटनाएँ बड़े हादसों से कम नहीं हैं।इतनी लंबी अवधि के बाद अपने नुमाइंदों से यह अपेक्षा तो देश रख ही सकता है कि वे सरकार चलाने की प्रचलित शासन शैलियों के आधार पर ही अपना राजनीतिक सोच विकसित करें।हज़ार साल की ग़ुलामी के बाद यह तो तय था कि आज़ाद भारत में सामूहिक नेतृत्व की प्रजातान्त्रिक शैली के अलावा कोई अन्य प्रणाली कामयाब नहीं हो सकती। इसीलिए तो भारतीय संविधान निर्माताओं ने क़रीब तीन साल तक बारीक़ी से हर बिंदु पर बहस करने के बाद संसदीय लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को स्वीकार किया था। तब शायद उन्हें अंदाज़ नहीं था कि आने वाली पीढ़ियाँ सियासत को सेवा के माध्यम की जगह कारोबार बना देंगीं।एक ऐसी जम्हूरियत मुल्क़ के सामने होगी ,जिसमें राजनीति का कोई वैचारिक आधार नहीं होगा।निश्चित रूप से यह एक कड़वे सच के रूप में हमारे सामने है। 
सुनने में अटपटा लगता है कि चंद महीने पहले जो राजनेता विधानसभा के लिए किसी एक पार्टी के टिकट पर चुना जाता है,वह लोकसभा का चुनाव आते आते अपनी पार्टी छोड़कर प्रतिद्वंद्वी पार्टी में चला जाता है। मध्यप्रदेश में रविवार को कांग्रेस विधायक निर्मला सप्रे ने पार्टी छोड़कर भारतीय जनता पार्टी ज्वाइन कर ली।वे सागर ज़िले से इकलौती महिला कांग्रेस विधायक थीं। इस तरह बीते डेढ़ महीने में तीन नव निर्वाचित कांग्रेस विधायक बीजेपी में प्रवेश ले चुके हैं। मुरैना ज़िले से पार्टी के वरिष्ठतम विधायक रामनिवास रावत और छिंदवाड़ा ज़िले से ही निर्वाचित कांग्रेस विधायक कमलेश शाह भी अपनी पुरानी पार्टी छोड़ चुके हैं। इस तरह बुंदेलखंड ,चम्बल और महाकौशल से कांग्रेस को तगड़े झटके लगे हैं। रही सही कसर मालवा ने पूरी कर दी।वहाँ भी कांग्रेस के लोकसभा प्रत्याशी अक्षय बम ने ऐन वक़्त पर अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली और अगले दिन भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता ले ली। कुछ ऐसी ही ख़बर छत्तीसगढ़ से आई। कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता राधिका खेड़ा ने रायपुर में पार्टी कार्यकर्ताओं पर दुर्व्यवहार का आरोप लगाया और पार्टी ही छोड़ दी।इसी कड़ी में ओडिशा से एक कांग्रेस प्रत्याशी सुचरिता मोहंती ने पार्टी का टिकट ही लौटा दिया। उनका कहना था कि उनके पास चुनाव लड़ने के लिए पैसे नहीं हैं और पार्टी ने कोई सहायता नहीं की है।  
इंदौर की घटना पर कांग्रेस को झटका लगना स्वाभाविक ही था।पार्टी प्रत्याशी के चुनाव में हुई ग़फ़लत के लिए बगलें झाँक रही है। मगर इस घटनाक्रम की प्रतिक्रिया बीजेपी में हुई। आठ बार सांसद रहीं पूर्व लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इस तरह पार्टी में प्रवेश को ग़लत परंपरा बताया। उनका कहना था कि समझदार मतदाता यह सवाल करते हैं कि इसकी क्या आवश्यकता थी ? भारतीय जनता पार्टी के भीतर अब यह सवाल भी उठ रहे हैं कि संगठन में सदस्यता से पहले क्या किसी राजनीतिक कार्यकर्ता का वैचारिक आधार नहीं देखा जाना चाहिए। इन दिनों बड़ी संख्या में कांग्रेस से राजनेता बीजेपी में आ रहे हैं। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि उन्होंने अपनी विचारधारा छोड़ दी है ? यदि नहीं छोड़ी और छोड़ भी दी है तो इसका आकलन करने का क्या पैमाना है ?यदि वे अपनी विचारधारा के साथ पार्टी में शामिल हो रहे हैं तो इसका संगठन को नुकसान होना तय है।दूसरी बात यह है कि यदि भविष्य में उन्हें लगा कि उनका राजनीतिक हित फिर मूल पार्टी में है तो इस बात की क्या गारंटी है कि वे वापस अपनी पार्टी में लौटकर नहीं जाएँगे ? यदि वे वापस नहीं जाते तो दल के आंतरिक तंत्र में नए क़िस्म की अवसरवादी विचारधारा पनपेगी,जो राष्ट्रहित में नहीं होगा। 
असल प्रश्न यहाँ उत्पन्न होता है। कोई राजनेता एक पार्टी के चिह्न पर चुनाव मैदान में उतरता है और जीत भी जाता है तो स्पष्ट है कि मतदाताओं ने उसे पराजित प्रत्याशी की विचारधारा के ख़िलाफ़ मत दिया है। यही उस उम्मीदवार की सार्वजनिक पहचान होती है। लोकतंत्र में जनादेश का सम्मान इसी ढंग से होता है। लेकिन जीतने के बाद उस दल को छोड़ने का क्या किसी प्रत्याशी को कोई नैतिक अधिकार रह जाता है ? संभवतया नहीं। यह तो दरअसल उस मतदाता का भी अपमान है ,जो उस जन प्रतिनिधि के पक्ष में वोट करता है। मतदाता ठगा जाता है और जन प्रतिनिधि अपने निजी सियासी हित को साध लेता है। आज दल बदल क़ानून को कोई याद भी नहीं करना चाहता। यहाँ तक कि संसद और विधानसभाओं में  भी इस क़ानून का पालन करने से बचने की कोशिश होती है । अपने दल के हित सर्वोपरि हो जाते हैं और देश हाशिए पर चला जाता है।  
  लेकिन गंभीर चेतावनी यह है कि उस समय तो राजनेता अपने हित में दल बदल करने का फ़ैसला कर लेता है, पर दूरगामी नुकसान भी उसे ही उठाना पड़ता है। बरसों की मेहनत से अर्जित साख़ मिट्टी में मिल जाती है।भारत के सियासी इतिहास में अनेक उदाहरण हैं ,जब किसी राजनेता ने दल बदल करके तात्कालिक लाभ तो ले लिया ,मगर अपनी छबि को हमेशा के लिए क्षति पहुँचाने का सामान भी जुटा लिया। लगभग साढ़े तीन दशक पहले दल बदल क़ानून बनाए जाने का मुख्य उद्देश्य यह भी था कि भारतीय लोकतंत्र को ऐसी बीमारियों से बचाया जा सके। यह भी ध्यान रखने की ज़रुरत है कि इस क़ानून को पारित करते समय कमोबेश सभी दलों ने एकजुट होकर इसका समर्थन किया था।उन्होंने समझ लिया था कि दलबदल एक ऐसा ज़हर है ,जो किसी भी राजनीतिक दल की देह में फ़ैल सकता है।अफ़सोस यह है कि जब लग रहा था कि भारतीय प्रजातंत्र  परिपक्व हो रहा है और कई देशों के लिए प्रेरणा का प्रतीक बन रहा है ,तो दलबदल ने फिर फन उठाया और सियासत को डस लिया।

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