चंदर सोनाने
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि राज्य सरकारें किफायती चिकित्सा और बुनियादी ढाँचा देने में नाकाम रही है। इससे निजी अस्पतालों को बढ़ावा मिल रहा है। इसे रोकने के लिए केन्द्र सरकार को गाइडलाईन बनानी चाहिए।
जस्टिस श्री सूर्यकांत और श्री एन.के सिंह की पीठ ने सुनवाई करते हुए उक्त बातें कही। सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई करते हुए यह भी कहा कि यह जरूरी है कि राज्य सरकारें अपने अस्पतालों में अच्छी चिकित्सा दवाएं और मेडिकल सेवाएँ सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराएं, ताकि मरीजों का शोषण नहीं हो सके।
सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है। हमारे देश में कोरोना के बाद से निजी अस्पतालों ने लूट मचा रखी है। कोई देखने, सुनने वाला नहीं है। निजी अस्पताल में जब कोई मरीज पहुँचता है तो उसके परिवार के पास पर्याप्त राशि नहीं होने पर उसे अपना घर या खेत गिरवी रखना होता है, तब जाकर वे अपने परिवारजन का ईलाज करवा पाते हैं। इतना ही नहीं, हर एक निजी अस्पतालों ने अपने अस्पताल में ही दवाई खरीदने की दुकान लगा रखी है। अस्पताल द्वारा मरीज के परिजन को दवा लिखने के बाद अस्पताल की ही फार्मेसी से दवा खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है। अस्पताल की मेडिकल शाॅप मनमाने रेट पर दवाई देती है, जिसे खरीदना मरीज के परिजन की मजबूरी होता है।
सामान्यतः आमजन की रोजमर्रा की दवाई के लिए मेडिकल शाॅप वालों से परिचय रहता है। इस कारण अपने नियमित मरीज को वह 10 से 20%0तक छूट भी दे देता है। किन्तु ऐसा निजी अस्पतालों में नहीं होता है। कई बार तो यह भी देखने में आता है कि अस्पताल द्वारा लिखी गई दवाई उसी के मेडिकल शाॅप पर ही मिलती है। अन्य शाॅप पर वह दवाई उपलब्ध ही नहीं होती हैं।
कई बड़े निजी अस्पतालों द्वारा फार्मेसी से आर्डर देकर दवाईयाँ बनवाकर उसे अपनी दुकान के लिए बुला ली जाती है और उसमें मनमानी एमआरपी लिख दी जाती है। यह एमआरपी सामान्य मूल्य से कई गुना अधिक कीमत की होती है, जिसे खरीदना मरीज के परिजनों के लिए मजबूरी बन जाता हैं।
दवाईयों की एमआरपी पर केन्द्र सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। इस कारण निजी अस्पतालों के मेडिकल शाॅप से मिलने वाली दवाईयों की कीमत कई गुना बढ़ जाती है। जरूरी दवाईयों पर केन्द्र सरकार का नियंत्रण होना अत्यन्त आवश्यक है।
करीब डेढ़ साल पहले मध्यप्रदेश सरकार ने एक मनमाना आदेश निकाला। इस कारण प्रदेश के 13 सरकारी मेडिकल काॅलेजों की पैथालाॅजी लैब निजी संस्थाओं को सौंप दी है। इसके दुष्परिणाम यह हुए कि पैथाॅलाॅजी लैब की जाँचों की दरों में 14 से लेकर 1108 प्रतिशत तक की वृद्धि कर दी गई। इसका बोझ सीधे-सीधे आमजन पर ही पड़ा।
उसी प्रकार राज्य सरकार द्वारा अब सरकारी अस्पतालों को भी निजी हाथ में देने की गतिविधि शुरू कर दी गई है। मध्यप्रदेश में 51 सिविल अस्पताल है। 348 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं। इनमें से प्रथम चरण में राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग ने पीपीपी मोड पर 10 जिला अस्पतालों में निजी मेडिकल काॅलेज बनाने का फैसला कर लिया है। ये 10 जिला अस्पताल हैं- खरगोन, धार, बैतूल, टीकमगढ़, बालाघाट, कटनी, सीधी, भिंड, मुरैना आदि।
सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि निजी अस्पतालों की लूट और मेडिकल काॅलेजों की पैथालाॅजी लैब को निजी हाथों में सौंपने के कारण आमजन की कितनी फजीहत होती है। यदि प्रदेश के सरकारी अस्पतालों को भी निजी हाथों में सौंप देंगे तो आमजन सस्ती स्वास्थ्य सुविधाओं से पूर्णतः वंचित हो जायेगा।
सुप्रीम कोर्ट की चिंता को केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा अत्यन्त गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। यदि सरकारी अस्पतालों में ही सभी गंभीर बीमारियों का इलाज, जाँचें, चिकित्सा सुविधा, आॅपरेशन आदि की पर्याप्त सुविधाएँ मिल जाए, तो आमजन को निजी अस्पताल जाना ही नहीं पड़ेगा। कोरोना के बाद से तो निजी अस्पताल की बाढ़ सी आ गई है और सब निजी अस्पताल आमजन को लूटने में एक साथ है। इसलिए यह जरूरी है कि केन्द्र और राज्य सरकार अपने सरकारी अस्पतालों में ही पर्याप्त चिकित्सा सुविधाएं, विभिन्न प्रकार की जाँचें और अधोसंरचना के साथ ही पर्याप्त डाॅक्टर और स्टाफ की तैनाती कर दे तो आमजन को निजी अस्पतालों की लूट से बचाया जा सकता है।