राजेश बादल
हाल ही में एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया ने संसद के दोनों सदनों में प्रतिपक्षी नेताओं को एक ख़त लिखा है। इसमें गिल्ड ने कहा है कि बीते वर्षों में सरकार की ओर से मुद्रित,प्रसारण और डिज़िटल माध्यमों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने के प्रयास किए जा रहे हैं।कुछ आपत्तिजनक प्रावधान तो संसद में विधेयक की शक़्ल में पेश किए जा चुके हैं। सूचना तकनीक अधिनियम -2020 ( आई टी एक्ट -2020 ) में संशोधनों के ज़रिए भी ऐसे प्रयास किए जा रहे हैं ,जिनसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकारों पर आक्रमण होता है। एडिटर्स गिल्ड लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों की हिफ़ाज़त के लिए भी प्रतिबद्ध है और यह पाती है कि इसकी स्थापना के चार दशक में अभी तक ऐसी नौबत नहीं आई है।इन संशोधनों अथवा प्रावधानों का संसदीय प्रति परीक्षण भी नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में स्वतंत्र पत्रकारिता करने में इनके दुरूपयोग की आशंका है। पत्र में डिज़िटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट -2023 ,ब्रॉडकास्टिंग सर्विसेज रेगुलेशन एक्ट - 2023, प्रेस एंड पीरियडिकल्स अधिनियम 2023 ,आई टी रूल्स -21 और इसके संशोधन -23 पर ख़ास ऐतराज़ किया गया है।यह पत्र लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता और कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी समेत अन्य प्रतिपक्षी पार्टियों के नेताओं को भी भेजा गया है।
स्वतंत्र पत्रकारिता के अधिकार की रक्षा के लिए उठाया गया यह क़दम यक़ीनन क़ाबिले तारीफ़ है।हिंदुस्तान के पत्रकारों और संपादकों ने समय समय पर ऐसे ख़तरों को सूंघा है और उनका सामना किया है।आपातकाल के दौरान भी पत्रकारों का एक वर्ग डटकर सेंसरशिप के ख़िलाफ़ मोर्चे पर था।हालाँकि बहुत सारे पत्रकार और संपादक सरकार के उस आदेश पर सियासत के चरणों में नतमस्तक भी थे।इसके बाद 1983 में बिहार प्रेस बिल और 1987 में मानहानि विधेयक पर भी इस मुल्क़ की अख़बारनवीसी खुलकर सड़कों पर आई थी। आज भरपूर वेतन,सुविधाओं और सियासत से गठजोड़ के कारण प्रतिरोध की भावना क्षीण होती जा रही है।इन हालात में एडिटर्स गिल्ड के इस प्रयास को समाज के समर्थन की भी ज़रुरत है।अलबत्ता संपादकों का अपने पर ओढ़ा हुआ दबाव भी नज़र आता है।
भारत के संपादकों की शिखर संस्था जब सत्ता के शिखर प्रतिष्ठान से असहमत होने का स्वर मुखर करती है तो अधिकतर संपादक अपने ही चैनलों, डिज़िटल पोर्टलों और समाचारपत्रों में इस बयान को स्थान देने की ज़रुरत भी नहीं समझते।यह शर्मनाक है।क्या पिछले तीन चार दिनों में यह बयान आपको किसी समाचारपत्र अथवा चैनलों की सुर्ख़ियों में दिखाई दिया है ? इसी श्रेणी के रीढ़विहीन संपादकों ने पत्रकारिता के इतिहास में कई कलंकित कथाएँ भी लिखी हैं। लाल कृष्ण आडवाणी ने इन्ही पत्रकारों और संपादकों के लिए कहा था कि सरकार ने उन्हें झुकने का फ़रमान दिया था,लेकिन वे सियासत के चरणों में लेट गए।अब ऐसे ही पत्रकारों का एक वर्ग अपनी अभिव्यक्ति के अधिकारों पर ख़ामोश रहता है, लेकिन जब सत्ता के शिखर पुरुषों से प्रतिपक्ष या आज़ाद पत्रकारिता अपने सवालों के उत्तर माँगती है तो वे अपने चैनल के परदे पर सत्ता के पक्ष में दहाड़ने लगते हैं या अख़बार के पन्नों पर उनकी कलम आग उगलने लगती है।अपने हक़ के लिए वे चुप हैं ,मगर हक़ पर हमला करने वालों के साथ गलबहियाँ डालते हैं।यह कौन सी पत्रकारिता है ?
*दूर थे जब तक सियासत से तो हम भी साफ़ थे ,खान में कोयले की पहुँचे तो हम भी काले हो गए* /
दबाव में जीना भी कोई जीना है ? आज पत्रकारिता प्रोफेशनल्स को इसी तरह जीने पर मजबूर कर रही है।सियासत के हितों के ब्रह्माण्ड का ग्लोब ये पत्रकार - संपादक सिर पर उठाए हुए हैं।अपने मालिक के हितों की गठरी भी सिर पर धरे हुए हैं और अपने स्वार्थों की पोटली भी सिर पर लादे हैं।याने सिद्धांतों और सरोकारों की रीढ़ टूटी हुई है,सिर पर दबाव है और हर क़िस्म के समझौते के लिए उधार बैठे पत्रकारों का क्या किया जाए ?अगर समूची पत्रकारिता की जमात ने इस पर गंभीरता से अमल नहीं किया तो आपके घर में जब आग लगेगी तो कोई बचाने नहीं आएगा।अभी तो आप पड़ोसी के घर में आग लगने पर चुप बैठे हैं मिस्टर मीडिया !
*ताला लगा के आप हमारी ज़ुबान को ,क़ैदी न रख सकेंगे ,ज़ेहन की उड़ान को* /