राजेश बादल
विकट हाल है। दुष्कर्म की घटनाओं ने देश को दहला कर रख दिया है । संसार में भारत की पहचान महिलाओं के साथ अत्याचार करने वाले एक व्यभिचारी मुल्क की बनती जा रही है । जिस देश में हर घंटे तीन बलात्कार होते हों और प्रत्येक साल साढ़े चार लाख से अधिक महिलाओं पर अत्याचार के मामले दर्ज़ होते हों,उसकी पहचान औरतों के प्रति बेहद क्रूर और असंवेदनशील मानसिकता वाली ही होगी ।ऐसे में हमारी पत्रकारिता कितनी ज़िम्मेदार और ईमानदार है ।इसकी पड़ताल तो बनती ही है । अंतरराष्ट्रीय समाचार संस्थाएं भारत में महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों को लेकर अधिक संवेदनशील हैं और हम दुष्कर्म के मामलों को सनसनी खेज़ बना कर प्रस्तुत करते हैं । यकीनन भारतीय पत्रकारिता के लिए यह सामूहिक शर्म का विषय है ।
दिल्ली में 2012 में जब निर्भया मामला हुआ था और तब पत्रकारिता ने पूरे समाज में उठे प्रतिरोध के स्वर को धारदार ढंग से मुखरित किया था । एकबारगी लगा कि अब ऐसे अपराधियों को सख़्त संदेश मिल गया है । पर, ऐसा नहीं हुआ। निर्भया हादसे के बाद तो जैसे दुष्कर्म अपराधों की बाढ़ आ गई है ।बीते दस साल में आए राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान ब्यूरो के आंकड़े डराते और चौंकाते हैं और दहशत पैदा करते हैं । एक साल में महिलाओं के साथ साढ़े चार लाख से ज़्यादा अपराध होते हैं। हर घंटे तीन स्त्रियों के साथ दुष्कर्म होता है। इनमें 73 फ़ीसदी अपराधी सुबूतों के अभाव में बरी हो जाते हैं। सिर्फ 27 प्रतिशत सजा पाते हैं । यह सजा भी अक्सर उच्च न्यायालयों में कम हो जाती है। एक दशक पहले तक हर साल औसतन 25000 दुष्कर्म के मामले दर्ज़ होते थे।लेकिन अब आँकड़ा बढ़कर चालीस हज़ार के आसपास है। राजस्थान दुष्कर्म में सभी राज्यों से ऊपर है। इसके बाद उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश कमोबेश बराबरी पर हैं। फिर क्रमशः महाराष्ट्र ,हरियाणा ,ओडिशा , झारखण्ड ,छत्तीसगढ़ ,दिल्ली और असम हैं। ध्यान देने की बात यह है कि 96 प्रतिशत मामलों में जान पहचान के लोग ही अपराधी निकलते हैं। इस कारण सामाजिक और पारिवारिक दबाव के चलते न्यायालय में सुबूत कमज़ोर पड़ जाते हैं। मुज़रिम छूट जाता है।
एक अंतरराष्ट्रीय समाचार संस्था ने अपने सर्वेक्षण में पाया था कि भारत में अदालतें इसी से प्रावधान होते हुए भी दुष्कर्म के अपराधियों को सख़्त दंड नहीं दे पातीं। दुष्कर्म और उसके बाद महिला की हत्या करने के मामले लगभग हर दूसरे दिन आते हैं। पर , बीते चौबीस बरस में केवल पाँच अपराधियों को फाँसी की सजा दी गई। यह किसी भी जागरूक होते समाज के लिए शर्म का विषय है और हमारी पत्रकारिता के धंधे में इस सरोकार या चिंता की झलक नहीं दिखती। चाहे वह प्रिंट हो अथवा टीवी या फिर कोई अन्य माध्यम।
सवाल यह है कि भारतीय हिंदी पत्रकारिता में संवाददाता और संपादक इतने ग़ैर ज़िम्मेदार कैसे हो सकते हैं ? जिस तरह निर्भया के मामले में मीडिया एकजुट खड़ा था ,वैसा अब नज़र नहीं आता। अब वह सियासी चश्में के आधार पर कवरेज करता है। कोलकाता में प्रशिक्षु डॉक्टर के साथ दुष्कर्म और हत्या निश्चित रूप से घिनौनी और शर्मनाक है।मुजरिम को फाँसी की माँग करती है। पर एक पखवाड़े में बंगाल के ही फ़िरोज़पुर ,असम के लखीमपुर और नागाँव ,महाराष्ट्र में बदलापुर ,तमिलनाडु में एनसीसी के नक़ली शिविर में छात्राओं से सामूहिक दुष्कर्म, उत्तरप्रदेश में मुरादाबाद और देवरिया, ,प्रयागराज और बाराबंकी ,राजस्थान में धौलपुर और हिंडौन की घटना पर पत्रकारिता क्यों ख़ामोश रहती है -इसका जवाब किसके पास है ? हिंडौन में तो नाबालिग़ आदिवासी किशोरी को दुष्कर्म के बाद ज़िंदा जला दिया गया।मध्यप्रदेश में इंदौर ,ग्वालियर और शहडोल के जघन्य बलात्कारों पर पत्रकारिता क्यों चुप्पी साधे रहती है ? इसका उत्तर भी यह देश लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से चाहता है मिस्टर मीडिया !