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हॉट टोपिक
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Added on : 2023-05-30 07:22:47

विजयदत्त श्रीधरयह समय संसारीकरण का है। भूमण्डलीकरण का है। बाजारीकरण का है। उदारीकरण का है। ग्लोबल विलेज का है। मुक्त बाजार। मुक्त व्यापार। संवेदना, सहानुभूति, मान-मूल्य-मर्यादा से मुक्त, सिर्फ मुनाफा सत्य-जगत मिथ्या का समय। नीति के केन्द्र में अर्थ और पार्श्व में बाजार। बड़ी मछलियों को निर्बाध अधिकार कि छोटी मछलियों को निगलती रहें। सब दूर बजती पूँजी की दुन्दुभि ... पूरी दुनिया बाजार के तम्बू के नीचे आ जाए। शिक्षा, चिकित्सा, विज्ञान, प्रौद्योगिकी, अनुसंधान, आविष्कार, यहाँ तक कि सरकार भी बाजार के झण्डे के नीचे। बीसवीं शताब्दी ने इक्कीसवीं शताब्दी को यही विरासत सौंपी है। .... परंतु भूल कर भी इस कार्य-व्यापार को भारतीय संस्कृति और ज्ञान-परम्परा में वर्णित ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ से मत जोड़ बैठिए। यह मंत्र नारा नहीं, जीवन-दर्शन है, जिसके केन्द्र में मनुष्य है। जबकि बाजार के विद्यमान स्वरूप का मनुष्यता से नाता नहीं। इसीलिए व्यापार में अब ‘महाजन’ नहीं पाए जाते। वसुधा एक कुटुम्ब समान है, ऐसी अवधारणा के लिए बाजारवाद में कोई गुंजाइश नहीं। इस कड़वी सच्चाई की बुनियाद पर ही किन्हीं मुद्दों को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। संभव है, कोई ऐसा मार्ग निकल आए जो मनुष्य और मनुष्यता की पुनर् प्रतिष्ठा में सहायक हो।पहले कहा जाता था ज्ञान ही शक्ति है। अब कहा जाता है सूचना ही शक्ति है। सूचना का स्वरूप बहुआयामी है। सूचना के माध्यम भी बहुरंगी हैं। बोले हुए शब्द का लिखना और लिखे हुए शब्द का छपना ज्ञान के लोकव्यापीकरण की क्रान्ति ही कही जाएगी। ईसा की दूसरी सहस्राब्दी (सन 1001 से 2000 ईस्वी) की समापन-बेला में जब शोधार्थियों के एक समूह ने ऐसे एक हजार महापुरुषों की सूची तैयार की, जिन्होंने इस विशाल कालखण्ड पर अपने कृतित्व की महान छाप छोड़ी, उनमें सबसे ऊपर योहान गुटेनबर्ग का नाम लिखा गया। गुटेनबर्ग ने मुद्रण यंत्र की ईजाद की। इससे पुस्तकों का बड़ी संख्या में मुद्रण-प्रकाशन सुगम हुआ। चंद हाथों में कैद ज्ञान आजाद हुआ। सर्वसाधारण के लिए सुलभ हुआ। शुरू-शुरू में दसियों, फिर सैकड़ों-हजारों और अब लाखों की संख्या में पुस्तकों के मुद्रण-प्रकाशन का चमत्कार संभव बनाया गुटेनबर्ग की ईजाद ने, इसीलिए उन्हें महानों में महानतम माना गया। इसे हम ज्ञान-शक्ति का महत्वपूर्ण प्रस्थान बिन्दु भी कह सकते हैं। यह परिघटना 1450 के आसपास की है। इसके कोई 150 वर्ष बाद सन् 1605 में, ‘द रिलेशन’ नाम का पहला समाचार पत्र अस्तित्व में आ गया। तीन शताब्दियों तक साप्ताहिक, दैनिक, पाक्षिक, मासिक पत्र-पत्रिकाओं की धूम रही। जिस मुद्रित शब्द के पीछे सत्य और नैतिकता का बल था, वह ‘बम’ से भी ज्यादा शक्तिशाली माना गया। संचार साधन के रूप में तार, बेतारयंत्र, फोन प्रचलन में आए। फिर ‘रेडियो’ का जमाना आया। बीसवीं सदी में मुद्रित समाचार माध्यमों के बरअक्स रेडियो और टेलीविजन, दृश्य-श्रव्य माध्यमों के रूप में घर-घर पहुँचे। सुनने और देखने के लिए पढ़ाई-लिखाई के ज्ञान की भी आवश्यकता नहीं। सो प्रसार का भूगोल विस्तृत और प्रभावी भी। वेगवान संचार का तीसरा मोर्चा खुला सोशल मीडिया से जो सकारात्मक और नकारात्मक दोनों दृष्टि से ताकतवर है। इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, ब्लाग, वाट्सएप, एस एम एस इत्यादि तमाम प्रारूपों की गति और पहुँच का ओर-छोर नहीं। बदलाव की बयार बहा दें। झूठ का मायाजाल रच दें। सही सूचनाओं के संचार से जन जागरण में सहयोगी बन जाएँ। विध्वंसक ताकतों के हाथों में खेल जाएँ तो विनाश का ताण्डव मचा दें। भूमण्डलीकरण की आपाधापी ने मीडिया को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। परंपरागत ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। नया ढाँचा मनमानी को विशेषाधिकार मानता है। इन हालात ने नये सवाल, नई चुनौतियाँ, नये संकट और नये संभ्रम उपजाए हैं। यहीं आचार संहिता की आवश्यकता प्रतीत होती है।सवाल उठता है कि क्या अखबार निकालना भी वैसा ही धंधा है जैसे साबुन-शैम्पू बेचना? क्या खबरिया चैनल भी टीआरपी - विज्ञापन के फेर में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा लाँघ कर कैसी भी ऊल जलूल हरकतों का धंधा चला सकते हैं? क्या तिजोरी भरने के लिए उस भरोसे को दाँव पर लगाया जा सकता है जो लाखों-लाख पाठक/श्रोता/दर्शक समाचार माध्यमों पर करते हैं? पहले जब कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को खबर सुनाता था, तब सामने वाला आश्वस्त होने के लिए पूछता था - तुम्हें कैसे मालूम? जवाब मिलता था - फलाँ अखबार में पढ़ा है। खबर पक्की मान ली जाती थी। अब समाचार माध्यमों की खबरों पर संदेह किया जाने लगा है। दो सौ साल में जो भरोसा कमाया गया था, क्या लोभ-लाभ के लिए उसे दाँव पर लगाया जा सकता है? पैड न्यूज, फेक न्यूज की भरमार ने विश्वास की हत्या की है। खबरपालिका का एक कर्त्तव्य और दायित्व ‘अशुभ’ के विरुद्ध जनमत जाग्रत करना है। यदि खबरपालिका स्वयं लोभ की बीमारी पाल ले तो समाज में फैलती विकृतियों-व्याधियों पर किस मुँह से आवाज उठाएगी?कुछ आदतें ‘लत’ बन जाती हैं। ऐसी ही एक आदत है अखबार पढ़ना, बिना नागा, रोज सुबह सवेरे। कई अखबारों के एक पृष्ठ की शुरुआत पंचाँग से होती है। इसमें एक उपशीर्षक होता है - खरीदारी का समय, जिसमें बताया जाता है कि कितने बजे से कितने बजे के बीच कौन-सी वस्तु खरीदना शुभ होगा। पहले हिन्दुओं में पितृ पक्ष में कोई नया काम नहीं किया जाता था। नई वस्तु नहीं खरीदी जाती थी। अब अखबार कहते हैं कि परिवार जितनी जोरदार खरीदारी करेंगे, पुरखों की आत्माएँ उतनी ही प्रसन्न होंगी। सबसे ज्यादा मुसीबत बेचारे पुष्य नक्षत्र की है जिसे कभी कार, तो कभी हीरों का हार, कभी फ्रिज, तो कभी मकान खरीदने के शुभ मुहूर्त की मुनादी करने बार-बार आना पड़ रहा है। समाचार माध्यमों ने इस धन्धे में ऐसे ज्योतिषियों को लगा रखा है, जिनका अपना कोई भविष्य नहीं।अब जरा बाजारों में जुटने वाली भीड़ पर नजर डालिए! यह भीड़ आकर्षक विज्ञापनों के जरिये लुभाई-भरमाई गई है। जीवन को चलाते रहने के लिए जरूरी सामानों की दुकानों पर खरीदारों की मौजूदगी इतनी कम होती है कि कभी भीड़ नहीं बन पाती। समाचार माध्यमों में जिन वस्तुओं के लिए ललचाने वाले विज्ञापनों की भरमार होती है, जिन वस्तुओं के बिना जिंदगी आसानी से बसर की जा सकती है, भीड़ उन्हीं की दुकानों पर टूटी पड़ती है। बहुरूपिया बाजार ने हर उम्र के स्त्री-पुरुषों को फैशन, डिजाइन और नित-नये माडल के मोहपाश में ऐसा बाँधा है कि खरीदारी का ताँता टूटता ही नहीं। यह हवस है और हैसियत के प्रदर्शन का जरिया भी बन चुका है। थोड़े-थोड़े अन्तराल मेें विज्ञापनों की पंच लाइन बदलती रहती है, नये-नये दावों और छलावों के साथ। मीडिया को खुराक इन्हीं विज्ञापनों से मिलती है, सो वे भी बहे जा रहे हैं पूँजी के बहाव में।समाचार माध्यम विज्ञापनों में किए जाने वाले दावों की कतई पड़ताल नहीं करते कि उनमें किस हद तक सच्चाई है। सच्चाई है भी कि नहीं। कितनी ठगी-कितनी बाजीगरी-कितनी लूट है? विज्ञापनों के मानक पर नजर रखने वाली संस्था भी इस दिशा में पर्याप्त सचेष्ट नहीं है। कहीं गोरा बनाने का दावा है, तो कहीं बाल इतने मजबूत बन रहे हैं कि ट्रक खींच लें। कहीं डिटर्जेण्ट कीचड़ में फँसी एम्बुलेंस खींच निकालने की ताकत भर देता है और कहीं खास ‘जूते’ पहनते ही आदमी टार्जन बन जाता है। क्या कोई परखता है ऐसे दावों को? सवालों और दावों की फेहरिस्त लंबी है, परन्तु जवाबदेही का कठघरा खाली है। बाजार लूट में मशगूल है और खबरपालिका विज्ञापन वसूलने में।सवाल यह भी उठता है कि खबरपालिका इस बात की पड़ताल करे कि जिस तरक्की और विकास दर की धुन बजा-बजा कर सरकारें झूमती हैं, उनकी हकीकत क्या है? आम हिन्दुस्तानी के हिस्से में इस विकास से उपजी खुशहाली आई क्या? रोजगार से विकास-दर का क्या-कितना नाता कायम हुआ? कितनी खबरें बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों का पहले तो बम फोड़ती हैं, फिर फुस्सी बम साबित हो जाती हैं। आला नेताओं-अफसरों-कारपोरेटों के घोटाले छापों और दबावों तक क्यों सिमटे रहते हैं? अंजाम तक क्यों नहीं पहुँचते? खबरपालिका की असली ताकत होती है नीति और नीयत की नैतिकता! बिना नैतिक बल के लोकप्रहरी और लोकशिक्षक की जिम्मेदारी निभा पाना असंभव है।जरूरत इस बात की है कि खबरपालिका के सभी पक्षों और पहलुओं के वस्तुनिष्ठ अध्ययन के लिए तीसरा प्रेस (मीडिया) आयोग गठित हो। उसका गठन कमीशन आफ इन्क्वारी एक्ट के अंतर्गत हो, ताकि वह सम्बंधित पक्षों को सम्मन कर उनके बयान दर्ज कर सके। उनसे तथ्य माँग सके। निर्दिष्ट समय-सीमा में उसकी रिपोर्ट आए। रिपोर्ट तत्काल सार्वजनिक की जाए। उस पर खुली चर्चा हो, संसद में और सार्वजनिक भी। आयोग की सिफारिशों के क्रियान्वयन की भी समय-सीमा तय हो। मान-मर्यादा-दायित्व-बोध की लक्ष्मण रेखा खींचने में अधिक समय न गँवाया जाए। अन्यथा समाज का अक्स दिखाने वाला यह आईना इतना गंदा हो चुकेगा कि साफ शक्लें दिखना ही बंद हो जाएँगी। सब जानते हैं कि गंदा आईना घरों में नहीं रखा जाता, घूरे पर फेंक दिया जाता है।

 

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