राजेश बादल
उन दिनों सारे हिन्दुस्तान में आज़ादी की आहट सुनाई देने लगी थी । लगने लगा था कि दो चार महीने में अँगरेज़ हिंदुस्तान से दफ़ा हो जाएंगे । इसलिए मोहल्लों में आए दिन मिठाइयाँ बंटा करती थी , दिन रात लोग झूमते, नाचते,गाते नज़र आते । ऐसे ही माहौल में बनारस के पड़ोसी ज़िले गाज़ीपुर के पातेपुर गाँव में जगन्नाथ सिंह के आंगन से मिठाइयों के टोकरे निकले और बच्चों से लेकर बूढों तक सबने छक कर मिठाई खाई । जगन्नाथसिंह के घर बेटा आया था । नाम रखा गया सुरेन्द्र ।आगे चलकर इसी सुरेन्द्र ने भारतीय हिंदी पत्रकारिता को एक नई पहचान दी| प्रायमरी तक पढ़ाई पातेपुर स्कूल में हुई । ठेठ गाँव का माहौल | देसी संस्कार दिल और दिमाग़ में गहरे उतर गए । पिता जगन्नाथ सिंह रौबीले और शानदार व्यक्तित्व के मालिक थे । वैसे तो कारोबारी थे ,लेकिन पढाई लिखाई के शौक़ीन थे । कारोबार के सिलसिले में बंगाल के गारोलिया क़स्बे में जा बसे । पातेपुर के बाद गारोलिया स्कूल में सुरेन्द्र की पढ़ाई शुरू हो गई । पढ़ने का जुनून यहाँ तक था कि जेब खर्च के लिए जो भी पैसे मिलते,किताबें खरीदने में खर्च हो जाते । फिर अपने पर पूरे महीने एक पैसा खर्च न होता । बड़े भाई नरेन्द्र को भी पढने का शौक था।मुश्किल यह थी कि गारोलिया में किताबों की एक भी दुकान नहीं थी । दोनों भाई क़रीब तीन किलोमीटर दूर श्यामनगर क़स्बे तक पैदल जाते । किताबें खरीदते और लौट आते ।
सुरेन्द्र ने कोलकाता विश्वविद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर प्रथम श्रेणी में और सुरेन्द्रनाथ कॉलेज से क़ानून में स्नातक की डिग्री हासिल की । इसके बाद वो नौकरी की खोज में जुटे। दरअसल सुरेन्द्र के दोस्तों को यक़ीन था कि वो जहां भी अर्ज़ी लगाएँगे तो वो नौकरी उन्हें मिल जाएगी । इसलिए जैसे ही कोई विज्ञापन निकलता ,दोस्त सुरेन्द्र को घेर लेते और कहते कि वो आवेदन न करें क्योंकि इस नौकरी की ज़्यादा ज़रुरत अमुक दोस्त को है । उसके घर की हालत अच्छी नहीं है । बेचारे सुरेन्द्र ने दोस्तों पर दया दिखाते हुए चार पांच नौकरियाँ छोड़ी । एक दो बार तो ऐसा हुआ कि नौकरी के लिए आवेदन सुरेन्द्र ने दिया और दोस्तों ने सिफारिश लगवाई सुरेन्द्र के पिताजी से । उनसे प्रार्थना की कि वो सुरेन्द्र से साक्षात्कार में न जाने के लिए कहें। सुरेन्द्र भला पिताजी की बात कैसे टाल सकते थे।क्या आज के ज़माने में आप किसी नौजवान या उसके पिता से ऐसा आग्रह कर सकते हैं ? बहरहाल इतनी दया दिखाने के बाद भी सुरेन्द्र बैरकपुर के नेशनल कॉलेज में हिंदी के व्याख्याता बन गए ।
उन दिनों दिनमान देश की सबसे लोकप्रिय राजनीतिक पत्रिका थी । सुरेन्द्र को इसका नया अंक आने का बेसब्री से इंतज़ार रहता । आते ही एक बैठक में पूरा अंक पढ़ जाते । इन्ही दिनों दिनमान में प्रशिक्षु पत्रकारों के लिए विज्ञापन छपा । सुरेन्द्र ने आवेदन कर दिया । बुलावा आ गया । इन्टरव्यू के लिए रौबीले संपादक डॉक्टर धर्मवीर भारती सामने थे ।उनका खौफ़ ऐसा था कि दफ्तर में आ जाएं तो कर्फ्यू लग जाता ।
सुरेन्द्र पहुंचे तो उन्होंने सवाल दागा,
आप नौकरी में हैं तो यहाँ क्यों आना चाहते हैं ?
सुरेन्द्र का उत्तर भी उसी अंदाज़ में । बोले,
" ये नौकरी उससे बेहतर लगी "।
डॉक्टर भारती का अगला तमतमाता सवाल ,
" इसका मतलब कि अगली नौकरी इससे बेहतर मिलेगी तो ये भी छोड़ देंगे ?
सुरेन्द्र का उत्तर भी कड़क । बोले ,
" बेशक़ छोड़ दूंगा,क्योंकि मुझे पता नहीं था कि यहाँ नौकरी नहीं ग़ुलामी करनी होगी "।
धर्मवीरभारती ने उन्हें दस मिनट इंतज़ार कराया और नियुक्ति पत्र थमा दिया । ये अंदाज़ था सुरेन्द्रप्रताप सिंह का । प्रशिक्षु पत्रकार के तौर पर धर्मयुग में नौकरी शुरू हो गई । जाते ही धर्मयुग के माहौल में क्रांतिकारी बदलाव । कड़क और फ़ौजी अंदाज़ ग़ायब | ज़िन्दा और धड़कता माहौल । डॉक्टर भारती परेशान । उन्होंने सुरेन्द्र का तबादला जानी मानी फिल्म पत्रिका माधुरी में कर दिया।माधुरी में सुरेन्द्र क्या गए ,धर्मयुग में धमाल बंद ।सन्नाटा पसर गया । इन्ही दिनों सुरेन्द्र का लेख प्रकाशित हुआ - खाते हैं हिंदी का,गाते हैं अंग्रेज़ी का ।छपते ही सुरेन्द्रप्रताप सिंह की धूम मच गई । डॉक्टर भारती ने सुरेन्द्र को वापस धर्मयुग में बुला लिया । सुरेन्द्र सबके चहेते बन चुके थे । मित्र मंडली ने नाम रखा एसपी । इसके बाद से सारी उमर वो सिर्फ एसपी के नाम से जाने जाते रहे । उन दिनों एसपी को हर महीने चार सौ सड़सठ रूपए मिलते थे । किताबों के कीड़े तो बचपन से ही थे इसलिए आधी वेतन किताबों पर खर्च हो जाती और आधी शुरू के पंद्रह दिनों में । बाद के पन्द्रह दिन कड़की रहती। एक एक जोड़ी कपडे पन्द्रह से बीस दिन तक चलाते । छुट्टी होती तो दिन भर सोते । एक दोस्त ने वजह पूछी तो बोले," जागूँगा तो भूख लगेगी और खाने के लिए पैसे मेरे पास नहीं हैं ।
पत्रकारिता धुआंधार
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पत्रकारिता में पच्चीस बरस की पारी बहुत लंबी नहीं होती,लेकिन इस पारी में एस पी ने वो कीर्तिमान क़ायम किए, जो आइन्दा किसी के लिए हासिल करना मुमकिन नहीं । इन पचीस वर्षों में क़रीब सत्रह साल तक मैंने भी उनके साथ काम किया ।मेरा उनसे नाता बना था रविवार के दिनों में | वो इंदौर आए थे और मैं नई दुनिया में सह संपादक था | आमतौर पर एक मीडिया संस्थान के प्रोफेशनल को दूसरे मीडिया संस्थान में लिखने या रिपोर्टिंग की इजाज़त नहीं मिलती | लेकिन मेरे मामले में यह बंधन टूट गया | एस पी ने हमारे प्रधान संपादक राजेंद्र माथुर से मेरे लिए रविवार में भी रिपोर्टिंग की अनुमति देने का आग्रह किया | राजेंद्र माथुर ने अनुमति दे दी | इसके बाद में रविवार में भी नियमित रूप से लिखने लगा था | एसपी ने रविवार के ज़रिए पत्रकारिता का अदभुत रूप इस देश को दिखाया तो बाद में वो टेलिविजन पत्रकारिता के महानायक बन बैठे । सिर्फ बाईस महीने की टेलिविजन पारी ने एसपी को इस मुल्क़ की पत्रकारिता में अमर कर दिया ।
याद दिला दूँ कि जब आनंद बाज़ार पत्रिका से रविवार निकालने का प्रस्ताव उन्नीस सौ सतहत्तर में एसपी को मिला था तो उन्होंने प्रबंधन के सामने शर्त रखी थी - पूरी आज़ादी चाहिए | क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि आज कोई संपादक अपनी संपादकीय आज़ादी की शर्त रखता हो | यही वजह थी कि देश ने साप्ताहिक रविवार की वो चमक देखी कि सारी पत्रिकाएँ धूमिल पड़ गईं ।शानदार,धारदार और असरदार पत्रकारिता । क़रीब सात साल तक समूचे हिन्दुस्तान ने हिंदी पत्रकारिता का एक तेज़ तर्राट ,आक्रामक और खोजी चेहरा देखा था ।आपातकाल में सेंसरशिप लगी और उसके बाद जब चुनाव हुए तो देश में जनता पार्टी की सरकार बनी | इसके बाद ही भारत में आम आदमी के भीतर विचार की भूख जगी थी | इसको जगाने में रविवार और रविवार का बड़ा हाथ था |
रविवार के पहले अंक की कवर स्टोरी थी - रेणु का हिंदुस्तान । उस दौर की राजनीति,भारतीय लोकतंत्र की चुनौतियों और सरोकारों पर फोकस रविवार के अंक एक के बाद एक धूम मचाते रहे । ये मैगजीन अवाम की आवाज़ बन गई थी । बोलचाल में लोग कहा करते थे कि रविवार नेताओं और अफसरों को करंट मारती है। पक्ष हो या प्रतिपक्ष - एसपी ने किसी को नहीं बख्शा। खोजी पत्रकारिता का आलम यह था कि अनेक मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों की बलि रविवार की समाचार कथाओं ने ली । कई बार तो ऐसा हुआ कि जैसे ही नेताओं को भनक लगती कि इस बार का अंक उनके भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ कर रहा है तो सभी बुक स्टाल्स से मैगजीन ग़ायब करा दी जाती और तब एसपी दुबारा मैगजीन छपाते और खुफिया तौर पर वो अंक घर घर पहुँच जाता । जी हाँ हम बात कर रहे हैं आज़ादी के तीस -पैंतीस साल बाद के भारत की । एक बार मेरी कवर स्टोरी छपी -अर्जुनसिंह पर भ्रष्टाचार के आरोप और हमारी निष्पक्ष जांच । अर्जुनसिंह उन दिनों मध्यप्रदेश के मुख़्यमंत्री थे । जैसे ही रविवार का वो अंक बाज़ार में आया ,चौबीस घंटे के भीतर सारी प्रतियां प्रदेश के सभी जिलों से ग़ायब करा दी गईं । एसपी को पता चला तो दुबारा अंक छपा और गुपचुप बाज़ार में बँटवा दिया । अर्जुनसिंह सरकार देखती रह गई । इस तरह के अनेक उदाहरण आपको मिल जाएँगे |
यूँ तो एसपी भाषण देने से परहेज करते थे,लेकिन जब उन्हें बोलना ही पड़ जाता तो पेशे की पवित्रता हमेशा उनके ज़ेहन में होती । पत्रकारों की प्रामाणिकता उनकी प्राथमिकताओं की सूची में सबसे ऊपर थी। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा "आज पत्रकारों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं । छोटे शहरों में चले जाइए तो पाएंगे कि पत्रकार की इमेज अब पुलिस वाले की होती जा रही है । लोग उनसे डरते हैं । इस इमेज को तोड़ना पड़ेगा…आज पत्रकारिता के ज़रिए कुछ लोग अन्य सुविधाएँ हासिल करने में लगे हैं इसलिए पत्रकारों में चारित्रिक गिरावट आई है । पर यह गिरावट समाज के हर अंग में आई है …ऐसे बहुत से लोग हैं जो पत्रकार रहते हुए नेतागीरी करते हैं और नेता बनने के बाद पत्रकारिता…दरअसल पत्रकार कोई देवदूत नहीं होता उनमें भी बहुत सारे दलाल घुसे हुए हैं और ये भी सच है कि समाज के बाहर रहकर पत्रकारिता नहीं हो सकती । यह कैसे हो सकता है कि समाज तो भारत का हो और पत्रकारिता फ़्रांस की हो "
एसपी के तेवर और अंदाज़ ने नौजवान पत्रकारों को दीवाना बना दिया था । उन दिनों हर युवा पत्रकार रविवार की पत्रकारिता करना चाहता था। मेरे जैसे सैकड़ों नौजवान और नईदुनिया पढ़कर पत्रकारिता सीखे | इसी दौरान ही एसपी की मुलाक़ात राजेंद्र माथुर से हुई ,जो उन दिनों नईदुनिया इंदौर के प्रधान संपादक थे ।पत्रकारिता के दो शिखर पुरुषों की इस मुलाक़ात ने आगे जाकर भारतीय हिंदी पत्रकारिता में एक नया अध्याय लिखा । उन्नीस सौ पचासी में एसपी राजेन्द्र माथुर के सहयोगी बन गए । राजेंद्र माथुर उन्नीस सौ बयासी में नईदुनिया के प्रधान संपादक पद से इस्तीफ़ा देकर नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन गए थे । उन्नीस सौ पचासी में वो एसपी को मुंबई संस्करण का स्थानीय संपादक बना कर मायानगरी मुंबई ले आए । अगले ही साल राजेंद्र माथुर ने उन्हें दिल्ली बुला लिया | एस पी राजेंद्र माथुर के सहयोगी के रूप में कार्यकारी संपादक के तौर पर दिल्ली में काम कर रहे थे ,लेकिन मुंबई छोड़ने से पहले मायानगरी में बड़े परदे के लिए भी एसपी ने अदभुत काम किया । जाने माने फिल्मकार मृणाल सेन की जेनेसिस और तस्वीर अपनी अपनी फिल्मों की पटकथा लिखी।विजुअल मीडिया के लिए एसपी की यह शुरुआत थी। गौतम घोष की फिल्म महायात्रा और पार फ़िल्में भी उन्होंने लिखीं लेकिन सराहना मिली पार से । इस फिल्म को अनेक पुरस्कार मिले ।
पाँच साल तक माथुर - एसपी की जोड़ी ने हिंदी पत्रकारिता में अनेक सुनहरे अध्याय लिखे । अखबार की भाषा , नीति और ले आउट में निखार आया।एसपी की नई भूमिका और राजेंद्रमाथुर जैसे दिग्गज का मार्गदर्शन अखबार में क्रांतिकारी बदलाव की वजह बना । लखनऊ ,जयपुर ,पटना और मुंबई संस्करणों की पत्रकारिता से लोग हैरान थे । वो दिन देश के राजनीतिक इतिहास में भी उथल पुथल भरे थे ।एशियाड -82 ,गुट निरपेक्ष देशों का सम्मेलन ,पंजाब में आतंकवाद ,प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या ,राजीव गांधी की पारी ,प्रेस बिल का विरोध ,राजीव -लोंगोवाल समझौता ,श्रीलंका में शांतिसेना ,बोफोर्स विवाद ,जनतादल का गठन और कांग्रेस में टूटन | ज़ाहिर है पत्रकारिता भी इस राजनीतिक घटनाक्रम से अछूती नहीं थी । दोनों संपादक मिलकर रीढ़वान पत्रकारिता का नमूना पेश कर रहे थे। यह मेरे जीवन का भी यादगार समय था क्योंकि मैं तब इन दोनों के साथ नवभारत टाइम्स में मुख्य उप संपादक के तौर पर काम कर रहा था । इसी दौर में जाने माने पत्रकार और संपादक प्रभाष जोशी ने उन्नीस सौ तिरासी में जनसत्ता के ज़रिए एक नए क़िस्म की पत्रकारिता की मशाल जलाई थी । अखबार और पत्र पत्रिकाएँ पढने वाले लोग नवभारत टाइम्स और जनसत्ता की ही चर्चाएँ करते थे । उनके संपादकीय बहस छेड़ा करते थे ।पत्रकारिता की भाषा समृद्ध हुई ,मुद्रण तकनीक में क्रांतिकारी सुधार हुआ और सबसे बड़ी बात बाज़ार का दबाव हाशिए पर ही था | देश में संपादक के नाम पत्र लिखने वालों का आन्दोलन खड़ा हो गया था । तीन बड़े संपादक अपने अपने अंदाज़ में भारतीय हिंदी पत्रकारिता को आगे ले जा रहे थे । मेरी नज़र में वैचारिक पत्रकारिता का यह स्वर्णकाल था ।
सिंह और माथुर की जोड़ी लोकप्रियता के शिखर पर थी कि अचानक नौ अप्रैल उन्नीस सौ इक्यानवे को दिल का दौरा पड़ने से राजेंद्र माथुर का निधन हो गया। पत्रकारिता के लिए बड़ा झटका । एस पी अकेले हो गए | पत्रकारिता पर तकनीक और बाज़ार हावी होता दिखाई दिया । एसपी ने इन दबावों से मुक़ाबला जारी रखा । वो पत्रकारिता में बाज़ार के दखल को समझते थे लेकिन पत्रकारिता के मूल्य और सरोकार उनके लिए सर्वोपरि थे । नतीज़ा कुछ समय बाद नवभारतटाइम्स से उन्होंने त्यागपत्र दे दिया ।इसके बाद एसपी ने स्वतंत्र पत्रकारिता का फ़ैसला किया और फिर देश ने एसपी के गंभीर लेखन का नया रूप देखा। तमाम अखबारों में उनके स्तंभ छपते और चर्चा का विषय बन जाते।साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ उनके लेखों ने लोगों को झकझोर दिया ।
सिलसिला चलता रहा । एसपी लेखन को एन्जॉय कर रहे थे । इसी बीच कपिलदेव ने उनसे देवफीचर्स को नया रूप देने का अनुरोध किया। हालांकि यह पूर्णकालिक काम नहीं था ,मगर एसपी ने थोड़े ही समय में उसे शानदार न्यूज एंड फीचर एजेंसी में तब्दील कर दिया।बताना प्रासंगिक है कि मैं देव फीचर्स में भी उनका सहयोगी था । इसके बाद उन्होंने संक्षिप्त सी पारी टाइम्स टेलीविजन के साथ खेली । वहाँ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बुनियादी बातें जानने का मौका मिला । आलम यह था कि एसपी एक प्रस्ताव स्वीकार कर काम शुरू करते तो दूसरा प्रस्ताव आ जाता । इसी कड़ी में द टेलीग्राफ के राजनीतिक संपादक पद का न्यौता मिला । यहाँ भी एसपी ने निष्पक्ष पत्रकारिता की शर्त पर काम स्वीकार किया । आज के संपादकों के लिए यह समझने की बात है | आज के संपादक अपने वेतन और अन्य सुविधाओं की शर्त रखते हैं ,लेकिन निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकारिता की आज़ादी की बात नहीं करते । अपनी नीति और प्रतिभा के चलते ही एसपी को इंडिया टुडे के सभी क्षेत्रीय संस्करणों के संपादन का आफर मिला । हर बार की तरह यहां भी उनकी शर्तें मान लीं गईं । इंडिया टुडे में उनके - मतान्तर और विचारार्थ बेहद लोकप्रिय कॉलम थे । इसके अलावा बीबीसी पर भारतीय अखबारों में प्रकाशित खबरों की समीक्षा का कॉलम भी शुरू हुआ । यह कॉलम इतना लोकप्रिय हुआ कि अनेक अख़बारों में उनकी समीक्षा को सुनकर ख़बरों की नीति तय की जाने लगी । यह भी अपने तरह का अनूठा उदाहरण है ।
परदे पर पारी
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उन दिनों दूरदर्शन ही भारतीय टेलीविजन का चेहरा था । विनोद दुआ के लोकप्रिय समाचार साप्ताहिक परख और सिद्धार्थ काक की सांस्कृतिक पत्रिका सुरभि दर्शकों में अपनी पहचान बना चुकी थीं | अलबत्ता निजी प्रस्तुतकर्ताओं को दैनिक समाचार पेश करने की अनुमति अभी नहीं मिली थी । चंद रोज़ बाद विनोद दुआ को शाम का दैनिक बुलेटिन न्यूजवेब पेश करने का अवसर मिला । भारतीय टीवी पत्रकारिता के इतिहास में यह ऐतिहासिक क़दम था । कुछ दिनों बाद ये बुलेटिन बंद हो गया और इंडिया टुडे समूह को डीडी मेट्रो पर आजतक शुरू करने का प्रस्ताव मिला ।समूह की कंपनी टीवी टुडे के सामने सवाल यह था कि इस बुलेटिन को कौन एंकर करे ? संचालक मधु त्रेहान के सामने एसपी का चेहरा था,लेकिन वो संकोच कर रहीं थीं कि एसपी को कैसे मनाएँ ? जब एसपी के सामने बात आई तो उन्होंने कहा,चलो ! जब तक कोई दूसरा एंकर नहीं मिलता,तब तक कर देता हूँ | और इस तरह एसपी की एंकरिंग शुरू हो गई |एसपी की शुरुआती टीम में जो चंद लोग थे उनमें मैं भी एक सौभाग्यशाली था | मुझे उन्होंने रिपोर्टिंग का ज़िम्मा सौंपा था | फिर तो लोगों पर उनका जादू ऐसा चला कि थोड़े ही दिनों में आजतक ने लोकप्रियता के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए | एसपी दर्शकों की आदत बन गए | हालत यहाँ तक पहुँची कि जब कभी वो एक दिन के लिए भी अवकाश लेते तो दर्शक बेचैन हो जाते । पूरब,पश्चिम,उत्तर,दक्षिण-चारों तरफ उनकी लोकप्रियता समान थी ।एक दिन देश भर में ये ख़बर फ़ैली कि सारे गणेश मंदिरों में गणेशजी दूध पी रहे हैं । फिर क्या था दफ्तरों में सन्नाटा छा गया । अंधविश्वास के कारण लाखों लीटर दूध बह गया । एसपी ने इसकी वैज्ञानिक व्याख्या की और पोल खोल कर रख दी।उन्होंने यह भी साफ़ किया कि आखिर गणेश जी के दूध पीने का प्रोपेगंडा करने की योजना कहाँ बनी थी। हवाला कांड की समाचारकथाएँ एसपी ने निर्भीक और बेख़ौफ़ होकर दिखाईं | भले ही आजतक दूरदर्शन जैसे सरकारी माध्यम पर था,मगर एस पी के आजतक बुलेटिन से एक शब्द भी काटने से दूरदर्शन के अधिकारी बचते थे | उन्नीस सौ छियानवे के लोकसभा चुनाव और उसके बाद केन्द्रीय बजट पर अपने ख़ास सीधे प्रसारण के ज़रिए एसपी ने घर घर में अपनी जगह बना ली थी । उनकी बेबाक़ टिप्पणियाँ लोगों का दिल खुश कर देतीं ।उन्नीस सौ छियानवे के लोकसभा चुनाव में एसपी के मार्गदर्शन में हम लोगों ने दूरदर्शन के सरकारी मंच से कांग्रेस सरकार के होते हुए कांग्रेस की विदाई का एलान कर दिया था | अनेक बार तो दूरदर्शन के अधिकारी हैरान रह जाते कि कुछ ख़बरें उनके अपने बुलेटिनों में नज़र भी न आतीं और आजतक में हेडलाइन होतीं | दिलचस्प यह कि उन ख़बरों की विजुअल फीड भी दूरदर्शन केंद्र से आया करती थी | जबलपुर में जिस दिन भूकंप आया ,उस दिन सुबह उन्होंने मुझे फ़ोन किया | बोले ,राजेश ! हम आज ही यह खबर दिखाएँगे | तुम खुद जबलपुर जाओ | मैं उस दिन भोपाल में था | सुबह 320 किलोमीटर जाना और लौटना | स्टोरी भी कवर करना और चार बजे के पहले दूरदर्शन भोपाल से फीड दिल्ली भेजना थी | मैं आठ बजे अपनी एम्बेस्डर से कैमरा टीम लेकर भागा | ग्यारह बजे जबलपुर पहुंचा | एक घंटे काम किया | तीन बजे भोपाल पहुंचा और खबर भेज दी | उस दिन दूरदर्शन के अपने बुलेटिनों में इस भूकंप के विजुअल्स नहीं थे और आजतक ने हेडलाइन में हमने सारे विजुअल्स दिखाए | दूरदर्शन की उस दिन की मीटिंग में इस पर बड़ा बवाल मचा | यह था एस पी का नेतृत्व | उनके एक इशारे पर रिपोर्टर जान देने को तैयार थे |
अंतिम विदाई
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उस दिन की शक्ल बड़ी मनहूस थी । उपहार सिनेमा में लगी आग ने दिल्ली को झकझोर दिया था । मरने वालों की तादाद बढ़ती जा रही थी।कवरेज में लगे कैमरे एक के बाद एक दर्दनाक कहानियाँ उगल रहे थे । एसपी सहयोगियों को बुलेटिन के लिए निर्देश दे रहे थे ,लेकिन अंदर ही अंदर उन्हें इस हादसे ने हिला दिया था । सुरक्षा तंत्र की नाकामी से अनेक घरों में भरी दोपहरी अँधेरा छा गया था । हर मिनट ख़बर का आकार और विकराल हो रहा था।एसपी ने तय किया कि पूरा बुलेटिन इसी हादसे पर केन्द्रित होगा । बुलेटिन भी क्या था दर्द भरी दास्तानों का सिलसिला । एसपी अपने को संभाल न पाए । ज़िन्दगी की क्रूर रफ़्तार पर व्यंग्य करते हुए जैसे तैसे बुलेटिन खत्म किया और फूट फूट कर रो पड़े | उनके चाहने वालों के लिए एसपी का ये नया रूप था । अब तक उनके दिमाग़ में एसपी की छबि सख्त और मज़बूत संपादक पत्रकार की थी । वो सोच भी नहीं सकते थे कि एसपी अंदर से इतने नरम, भावुक और संवेदनशील होंगे । उस रात एसपी सो न पाए और सुबह होते होते उन्हें ब्रेन हेमरेज की ख़बर जंगल में आग की तरह देश भर में फ़ैल गई । अस्पताल में चाहने वालों का तांता लग गया । उनके फ़ोन अगले कई दिन तक दिन रात व्यस्त रहे। देश भर से एसपी के चाहने वाले उनकी तबियत का हाल जानना चाहते थे । सैकड़ों की तादाद में लोगों ने अस्पताल में ही डेरा डाल लिया था । हर पल उन्हें इंतज़ार रहता कि डॉक्टर अभी आएँगे और उनके अच्छे होने का समाचार देंगे । लेकिन ये न हुआ।एक के बाद एक दिन गुज़रते रहे ।एसपी होश में नहीं आए और आख़िर वो दिन भी आ पहुंचा,जब एसपी अपने उस सफ़र पर चल दिए,जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता । उनके देहावसान की खबर सुनते ही हर मीडिया हाउस में सन्नाटा छा गया । देश भर के पत्रकार, संपादक, राजनेता , अधिकारी, छात्र, प्राध्यापक , तमाम वर्गों के बुद्धिजीवी सदमे में थे । हर प्रसारण केंद्र ने एसपी के निधन की ख़बर को जिस तरह स्थान दिया,वो बेमिसाल है । राजेंद्र माथुर के अलावा किसी पत्रकार को समाज की तरफ से इस तरह की विदाई नहीं मिली ।
एसपी अब नहीं हैं ,लेकिन सिर्फ़ बाईस-तेईस साल की पत्रकारिता में उन्होंने जो कीर्तिमान रचे ,वो बेजोड़ हैं | भारत में तब टेलिविजन इंडस्ट्री नहीं थी | उनके निधन के क़रीब सात आठ साल बाद चैनल उद्योग पनपा | इसके बावजूद आज तक हिन्दुस्तान में टेलिविजन पत्रकारिता के वो पहले और आख़िरी महानायक हैं और हमेशा रहेंगे
अफ़सोस तो यह है कि ऐसे महानायकों के बारे में अगली पीढ़ी को बताने के लिए हमने आजतक कोई व्यवस्थित तंत्र विकसित नहीं किया है | यह शर्मनाक़ है |
समाप्त