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Added on : 2023-06-27 09:48:48

राजेश बादल
राक्षस,नामर्द,कुत्ते,सांप,बिच्छूऔर बंदर बोलना आज के नेताओं की भाषा है 
राजेश बादल 
तीन प्रदेशों के विधानसभा चुनाव ज्यों ज्यों क़रीब आ रहे हैं ,राजनेताओं की भाषा अभद्र और अश्लील होती जा रही है । गाँव का आम कार्यकर्ता यदि अमर्यादित भाषा बोले तो एक बार माफ़ किया जा सकता है, लेकिन जब यह शब्दावली मंत्री,विधायक,सांसद और मुख्यमंत्री तक बोलने लग जाएँ तो क्षोभ और निराशा स्वाभाविक है । राजनीति में जबसे बौद्धिक वर्ग हाशिए पर गया है और धन बल तथा बाहुबल प्रभावी हुआ है ,तबसे साफ़ सुथरी सियासत देखने को नहीं मिल रही है । यह स्थिति निश्चित रूप से सार्वजनिक जीवन में काम करने वालों पर सवाल खड़े करती है ।
बीते दिनों मध्यप्रदेश के विंध्य इलाक़े में ऐसा ही अप्रिय और स्तरहीन आरोप - प्रत्यारोप देखने को मिला ।मैहर के विधायक नारायण त्रिपाठी ने अपनी ही पार्टी के सांसद गणेश सिंह को सार्वजनिक तौर पर राक्षस कहा । उन्होंने कहा कि सांसद राक्षस हैं और उन्हें वे अपने निर्वाचन क्षेत्र मैहर में घुसने नहीं देंगे । विधायक महोदय यहीं नहीं रुके।उन्होंने आगे बढ़ते हुए कहा कि वे ऐसे ही राक्षसों का विनाश करने के लिए राजनीति में आए हैं । विधायक का आरोप था कि क्षेत्रीय सांसद विकास का हर काम रोकते हैं । सांसद महाशय ने भी उसी भाषा में उत्तर दिया । उन्होंने विधायक की तुलना कुत्ते से करते हुए कहा कि ऐसे लोग बेमतलब भौंकते ही रहते हैं । सांसद ने विधायक को यह उत्तर विधायक के क्षेत्र में पहुंचकर ही दिया । इस अपमान जनक संवाद पर पार्टी ने कोई अनुशासन कार्रवाई नहीं की । 
इस कड़ी में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के बीच चल रहे वाक युद्ध ने भी अपनी हद पार कर दी । मुख्यमंत्री ने उन्हें करप्ट नाथ कह डाला ।मुख्यमंत्री ने विपक्ष और उसकी एकता के प्रयासों की तुलना सांप, बंदर ,बिच्छू और मेंढक से कर डाली । उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री मोदी की बाढ़ से बचने के लिए प्रतिपक्ष के मेंढक,बंदर और सांप पेड़ पर चढ़ गए हैं।मुख्यमंत्री ने निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की तुलना सांप बिच्छू से की लेकिन वे भूल गए कि भारतीय जन मानस में बाढ़ को नकारात्मक अर्थ में लिया जाता है । बाढ़ की चपेट में सब कुछ नष्ट हो जाता है । प्रधानमंत्री की बाढ़ से तुलना उनके शाब्दिक ज्ञान का सुबूत है ।पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ के निर्वाचन क्षेत्र में एक सभा में उन्होंने कहा था कि वे गड्ढा खोदकर उसमें पूर्व मुख्यमंत्री को गाड़कर उनका राजनीतिक अंत कर देंगे।पूर्व मुख्यमंत्री के लिए उन्होंने करप्टनाथ जैसा शब्द प्रयोग किया तो पूर्व मुख्यमंत्री भी पीछे नहीं रहे।उन्होंने कहा कि ख़रीद फ़रोख़्त की सत्ता ने मुख्यमंत्री को मदांध कर दिया है। विनाश काले विपरीत बुद्धि। वैसे इस मुख्यमंत्री की ज़बान संवेदनशील मामलों में अक्सर फिसल जाती है।अधिकारियों और कर्मचारियों को लगभग अपमानित करने और धमकाने वाले अंदाज़ में अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल करना उनका पुराना शगल है।एक कलेक्टर को उन्होंने कहा ,"ऐ पिट्ठू कलेक्टर सुन ले ! हमारे भी दिन आएँगे। तब तेरा क्या होगा"।  बड़े आई ए एस अफसरों को सार्वजनिक मंच से अपमानित करना और बिना जाँच निलंबित करने की घोषणा कर देना उनकी आदत है। अजीब लगता है कि लोकतंत्र का एक स्तंभ विधायिका दूसरे स्तंभ कार्यपालिका के लिए अपमानजनक भाषा का प्रयोग करे। बीते दिनों इन्ही मुख्यमंत्री ने अपने निर्वाचन क्षेत्र में जवाहर लाल नेहरू के नाम पर बने एक पार्क का नाम हटाकर अपने बेटे के नाम पर कर दिया ।केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया को उन्ही के क्षेत्र के एक पूर्व विधायक ने सरे आम नामर्द कहा । सोचने वाली बात यह है कि ज़्यादातर उदाहरण वे हैं,जिनमें बीजेपी के लोग ही आपस में गरिया रहे हैं ।
अपनी रौ में बहकर राजनेता मतदाताओं को भी अपमानित करने से नहीं चूकते। हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल राजस्थान गए। वहाँ अपने पढ़े -लिखे होने की दुहाई देते हुए उन्होंने एक सभा में लोगों से अपील की कि वे अनपढ़ उम्मीदवारों को वोट नहीं दें। मुख्यमंत्री भूल गए कि भारतीय संविधान देश के हर नागरिक के लिए है। वह अनपढ़ और पढ़े लिखे प्रत्येक व्यक्ति को चुनाव लड़ने का अधिकार भी देता है। किन्ही सामाजिक हालातों के चलते यदि कोई मतदाता शिक्षा प्राप्त करने से वंचित हो जाता है तो सार्वजनिक रूप से उसके ख़िलाफ़ ऐसी कोई बात नहीं की जा सकती ,जिससे उसके सामाजिक सम्मान को चोट पहुँचती हो।ख़ास तौर पर मुख्यमंत्री के पद पर बैठा राजनेता ,जो संविधान की शपथ लेकर अपनी ज़िम्मेदारी निभाता हो।यदि वह कहे कि अनपढ़ को वोट मत देना तो निश्चित रूप से यह संविधान की भावना का अनादर माना जाएगा।अपने साक्षरपन पर गर्व करते हुए अनपढ़ों के प्रति हिकारत का भाव अहंकार ही माना जाएगा। एक जनसेवक के लिए यह घमंड ठीक नहीं है।
दरअसल नब्बे के दशक से भारतीय राजनीति में अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। क्षेत्रीय और प्रादेशिक पार्टियों का उदय हुआ। सत्ता के लिए गठबंधन बनने लगे ।इस कारण मतदाता भी बिखरे और अलग अलग पार्टियों के पाले में चले गए। यहीं से राजनीतिक दलों के भीतर अपने वोट बैंक को लेकर असुरक्षा का भाव पनपा। यही वह समय था ,जब सियासत में  मुहावरा चल पड़ा कि जीतने वाले को ही टिकट दिया जाएगा।इस मुहावरे ने ही बाहुबल और धनबल को प्रोत्साहित किया। नतीजा यह कि संसद और विधानसभाओं में गंभीर व प्रबुद्ध वर्ग का प्रतिशत घटता गया। जो लोग चुनाव मैदान में उतरे ,उनके मन में राजनीति के प्रति सेवा का नहीं ,बल्कि कारोबारी नज़रिया अधिक था। सत्ता कमाई का ज़रिया बन चुकी थी । चुनावी मुक़ाबले बारीक़ होने लगे। गलाकाट स्पर्धा ने ही बदज़ुबानी को बढ़ावा दिया और मर्यादा तार तार होकर बिखरने लगी।विडंबना यह कि गंदी तथा अश्लील भाषा सुन और देखकर नई पीढ़ी अपने मन में राजनीति के इसी रूप को असली मान बैठी और इसके अनुरूप आचरण करने लगी। इस पर अंकुश यक़ीनन बेहद कठिन है।नब्बे के दशक में ही महिलाओं के प्रति भी घटिया और बेहूदी टिप्पणियों की शुरुआत हुई। जबलपुर की एक दलित समाज की राज्य सभा सदस्य ने हाल ही में जिला कलेक्टर की निरंतर उपेक्षा से आहत होकर उनका पुतला जलाया। इससे अधिक शर्मनाक और क्या हो सकता है ? हम कैसे लोकतंत्र की रचना कर रहे हैं ?

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