भोपाल ।मध्यप्रदेश के मुरैना जिले मे पोरसा तहसील के लेपा- गाँव में दो दिन पहले हुई हिंसा में एक ही परिवार के छह लोगों की जान चली गई। दो लोग घायल हैं, अस्पताल में इलाज चल रहा है। यह गांव अपने ज़माने के चंबल घाटी के खतरनाक डाकू पान सिंह तोमर के गांव से सटा लेपा गांव है। पानसिंह तोमर पर एक फिल्म भी बन चुकी है। छह हत्याओं का कारण लगभग दस साल पहले हुई हिंसा के प्रतिशोध का परिणाम है। उस समय भी दो लोग मारे गये थे।जो लोग मारे गए थे उनके बेटों ने अपने पिताओं की हत्या का बदला लेने के लिए ये हत्याएं की हैं । दस साल पहले कचरा फेंकने पर दोनों पड़ोसियों में विवाद हुआ था । उसका परिणाम आठ हत्याओं के रूप में सामने आया ।
जमीन पर कब्जा इस तरह की घटना का बड़ा कारण होता है। यह जमीन घूरा डालने लायक छोटे से कोने से लेकर मेंड़ के एक कूंड़ या तालाब की भी हो सकती है। झगड़े के वैसे तमाम कारण हो सकते हैं, और झगड़े मुरैना में ही नहीं कहीं भी हो सकते हैं। होते भी हैं। अंतर यह है कि चंबल में गोली चलती है, बाकी जगह हाथापाई, लाठी -डंडे ,ईंट- पत्थर से काम चल जाता है। चंबल में लाइसेंसी हथियार सरकार ने इसलिए दिये थे जिससे लोग डाकूओं से खुद को बचा सकें। लेकिन ये बंदूकें एक दूसरे को ही मारने में काम आ रही हैं।
क्या वजह है कि झगड़े समय पर सुलझाये नहीं जाते? सुलझाने की जिम्मेदारी किसकी है ?
सरकार की ओर से जमीन संबंधी मामलों का निपटारा करने की जिम्मेदारी राजस्व विभाग की सबसे छोटी इकाई पटवारी की है। लेकिन मध्यप्रदेश में पटवारियों के यहाँ से करोड़ों में चल - अचल सम्पत्ति निकल रही है। पटवारियों के पास इतनी अनुपातहीन सम्पत्ति कहाँ से आती है?
सरकार ने तय किया था कि सभी मंत्री अपनी संपत्ति का ब्यौरा देंगे। कुछेक मंत्रियों को छोड़कर किसी ने नहीं दिया। जनता के बड़े से लेकर छोटे सेवकों की तो बात ही छोड़िये।
कानून व्यवस्था बनाये रखने और शांति बहाली की जिम्मेदारी पुलिस की भी है। हिंसा की जहाँ जहाँ आशंका है उसकी पूरी जानकारी के बावजूद पुलिस की शिथिलता ही सामने आती है।
हर गांव में एक कोटवार या चौकीदार होता है, जिसका काम है ,किसी भी अप्रिय घटना की आशंका होने पर ऊपर बैठे लोगों को तत्काल बताना। लेकिन फिर भी समय पर झगड़े सुलझते नहीं हैं और खून- खराबा होता रहता है।
समाज में एक ओर हिंसा है दूसरी ओर चुप्पी। ऐसा नहीं है कि गांवों में शांति की पहल करने वाले लोग नहीं हैं। ऐसे लोगों को यदि प्रोत्साहित और सम्मानित करके समाज में सक्रिय किया जाये तो गांवों के तमाम झगड़े सुलझ सकते हैं। कोर्ट- कचहरी पुलिस थाने जाने की किसी को बहुत कम ही जरूरत पड़े। लेकिन ऐसे लोगों को या तो अहिंसात्मक प्रतिरोध का तरीका सिखाया नहीं गया या उन्हें समाज, सरकार और प्रशासन ने किसी मतलब का नहीं समझा।
झगड़ा, मारपीट से लेकर खूनखराबे की हद तक पहुंचने वाले लोगों को बहुत अच्छे से यह पता है कि वे कुछ भी करें कोई उन्हें रोकने- टोकने वाला नहीं है। वे चाहते हैं कि लोग कम से कम बातचीत करें, संवाद बिलकुल न हो, जिससे लोगों को कोई राह ही न सूझे । यही कारण है कि लोग हर हिंसा का जवाब बदला लेकर देना चाहते हैं, क्योंकि उन्हें समझाने वाला और बीच बचाव करने वाला कोई है ही नहीं। उन्हें यह भी यकीन है कि कुछ दिन पुलिस की हवालात, कोर्ट कचहरी और जेल में रहकर वे छूट आयेंगे और वापस लौटने पर भी उनका आतंक कायम रहेगा।
आतंक में यकीन रखने वाले लोग हों या चुप्पी साधकर जीवन काटने वाले, उन्हें यह नहीं पता होता कि उनके इस बरताव से परिवेश कितना खराब हो जाता है।