राजेश बादल
तख्तापलट बांग्लादेश में हुआ और भारत का मीडिया यहाँ भी उसकी आशंका जताने लगा । उसके शो बनाए जाने लगे । नेताओं ने बयानों की दुकान खोल दी । सत्रह करोड़ के एक मुल्क जैसा बदलाव डेढ़ सौ करोड़ के भारत में खोजने वालों की अज्ञानता के बारे में क्या कहा जाए ? बिना गंभीर अध्ययन के ,भारतीय हिंदी पत्रकारिता भी नासमझ हरक़तें करती है तो दुःख होता है।
बात यहीं ख़त्म नहीं होती । इसमें संत महंत भी कूद पड़े ।वे मठाधीश,जिन्हें न कूटनीति आती है और न विदेश नीति की बुनियादी समझ है,वे भी बांग्लादेश के हिंदुओं और वहाँ के आंतरिक मसलों पर विद्वान पंडितों की तरह बोलने लगे । क्या संसार में कोई ऐसा देश है, जहाँ अंतरराष्ट्रीय मामलों को इतने मजाकिया अंदाज़ में लिया जाता हो और जहाँ का मीडिया तथा राजनेता गंभीर और संवेदनशील मामलों पर मसखरों की तरह व्यवहार करते हों ? कौन भरोसा करेगा कि संसार के सत्तर अस्सी फ़ीसदी साक्षर और सबसे पुराने लोकतांत्रिक राष्ट्र में एक देश में सत्ता परिवर्तन को इतने चलताऊ अंदाज़ में करोड़ों दर्शकों तथा पाठकों के लिए पेश किया जाता है।
क्या भारत में इतनी आसानी से यह संभव है ? जिस देश में विभिन्न दलों की प्रदेशों में निर्वाचित सरकारें हों ,मज़बूत प्रतिपक्ष हो ,तमाम भाषा -संस्कृति वाले लोग एक साथ रहते हों, हर भाषा,मज़हब और प्रांत की नुमाइंदगी विधानसभा और संसद से लेकर सेना में हो ,वहाँ तख़्ता पलट की कोई आशंका नहीं है। बांग्ला देश में भी जो कुछ हुआ ,वह विदेशी मदद से एक छोटे से गुट का षड्यंत्र था। शेख़ हसीना की अपनी गलतियाँ थीं। बेशक़ वे भारत के लिए भली थीं। भारत को दूसरा घर मानती थीं ,लेकिन उनकी ग़लतियों को भारत नहीं सुधार सकता था। ऐसे में मीडिया के तमाम रूपों कितने कठोर और भयानक शब्दों का इस्तेमाल दो बातें स्पष्ट करता है। एक तो यह कि हमारा मीडिया पढ़ना लिखना छोड़ चुका है इसलिए शब्दों का अर्थ जाने बिना वह सुई के स्थान पर तलवार का प्रयोग करता है और राइफल की जगह तोप का इस्तेमाल करता है। दूसरा यह कि वह दर्शक या पाठक को ख़ौफ़ में डालकर अपना कारोबार बढ़ाना चाहता है। दहशत फैलाने का यह बाज़ार निंदनीय है। इसे भारत का सभ्य समाज नकारता है।अफ़सोस कि इस मामले में अब सोशल और डिज़िटल मीडिया भी पटरी से उतरे हुए मुख्य धारा के मीडिया से कंधे से कन्धा मिलाकर चल रहे हैं।
कुछ नमूने देता हूँ। चैनलों और यू ट्यूब पर पत्रकारिता के इन अवतारों के कुछ गंदे और भौंडे शीर्षक देखिए - बांग्ला देश में तख़्ता पलट मोदी की कुर्सी हिला देगा ,बांग्लादेश में हिन्दू जागे ,कट्टर भागे ,अब रोएँगे हिन्दुओं को रुलाने वाले ,ये किसी के बाप का देश नहीं ,बांग्लादेश में हिन्दुओं पर अत्याचार , अयोध्या के साधू संतों ने भरी हुंकार ,शेख हसीना ख़ून का बदला ख़ून से लेगी ,बांग्ला देश हिंसा में कूदा अमेरिका ,काँप उठे ज़िहादी, हिंदुस्तान में हिंसा के सपने क्यों ?बांग्लादेश में तख़्ता पलट से भारत के लिए बजी ख़तरे की घंटी ,बांग्लादेशी तख़्ता पलट ,पाक रक्षामंत्री मौका मौका चिल्लाने लगे .......और भी तमाम घृणा पैदा करने वाले शीर्षक। शब्दों की मर्यादा का ख़्याल आज के भारत में अब किसी वरिष्ठ संपादक तक को नहीं है।पत्रकारिता का कोई शैक्षणिक संस्थान कुछ नहीं बोल रहा है। बांग्लादेश के बारे में संसार भर के टीवी चैनलों और यू ट्यूब मंचों पर इस तरह की भाषा नहीं बोली जा रही है।ऐसा लगता है कि हिंदी के हमारे संवाददाता - संपादक पत्रकारिता नहीं बल्कि जंग लड़ रहे हैं।भाषा के अपने संस्कार होते हैं।इन संस्कारों के बिना पत्रकारिता क्या है ? किसी को बताने की ज़रुरत नहीं है।रघुवीर सहाय ने इस हिंदी पर कभी लिखा था -
*हमारी हिंदी एक दुहाजू की नई बीवी है /बहुत बोलने* *वाली /बहुत खाने वाली /बहुत सोने वाली* /
*गहने गढ़ाते जाओ /सर पर चढ़ाते जाओ /वह मुटाती जाए / पसीने से गंधाती जाए* /
*एक नागिन की स्टोरी बमय गाने /खारी बावली में छपा* *एक कोक शास्त्र* /*खूसट महारिन है प्रपंच के लिए* /
*कहने वाले कुछ भी कहें* /*हमारी हिंदी सुहागिन है* /*सती है खुश है* / *उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे* /
*और तो सब ठीक है /पर पहले खसम तो उससे बचे /तभी वह अपनी साध पूरी करे*/
इसके आगे कुछ भी कहने की आवश्यकता नहीं। आप खुद इसमें छिपी चेतावनी को समझ सकते हैं मिस्टर मीडिया !