राजीव खंडेलवाल
मध्यप्रदेश की राजनीति में कर्नाटक के नतीजों ने खलबली मचा दी है । इन चुनाव परिणामों से उभरे समीकरणों का मध्यप्रदेश में होने वाले चुनाव पर प्रभाव पड़ना निश्चित है ।
कर्नाटक में नाटक (जैसा पिछले विधानसभा में किसी एक पार्टी का स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण हुआ था) पैदा न करने वाले चुनावी परिणाम से मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव पर क्या कुछ नाटकीय अथवा परिवर्तन देखने को मिलेगा? कर्नाटक चुनाव के परिणाम से तय हुए मुद्दे का सिलसिलेवार अध्ययन करते हुए उनके प्रदेश में है रोकने वाले परिणाम प्रभाव का आकलन करते हैं।
हिंदुत्व का मुद्दा कर्नाटक में परवान नहीं चढ़ा। बजरंगबली भाजपा के झंडे के बजाए कांग्रेस झंडे में दृष्टिगोचर होते हुए कांग्रेस के घोड़े की चुनावी समुद्र से वैतरणी पार करा दी। संघ, जनसंघ, भाजपा ‘हिन्दुत्व’ को मजबूत जमीन मध्यप्रदेश रही है, यहां पर वह हिन्दुत्व कितना प्रभावी होगा जो कर्नाटक में असफल हो गया। वास्तव में हिन्दुत्व के मुद्दे पर कमलनाथ स्वयं हार्ड हिंदुत्व की बजाय ‘‘सॉफ्ट हिंदुत्व’’ को अपनाते हुए दिख रहे हैं। इसलिए वे मध्यप्रदेश की चुनावी पिच पर इस मुद्दे पर भाजपा को गुगली फेकने का कोई मौका शायद ही देगें।
कर्नाटक में भाजपा ने लगभग 75 अपने पुराने उम्मीदवारों को बदला। परंतु उनमें से मात्र 17 उम्मीदवार ही विजय प्राप्त कर पाए। सत्ता विरोधी कारक से निपटने के लिए गुजरात से प्रारंभ होकर कमोबेश कर्नाटक में भी सत्ता विरोधी चेहरों को बदलकर नए चेहरे चुनावी पिच में उतारने की भाजपा की अभी तक की हुई सफल नीति के कर्नाटक में आशातीत परिणाम के नहीं आये। इस कारण क्या उक्त नीति का परीक्षण कर कर्नाटक उसके सफल न होने की कमियों को दूर कर संशोधित बेहतर परिणाम उन्मूलन नीति लागू की जाएगी? क्योंकि अब प्रदेश में उसी रूप में उक्त नीति लागू करना शायद अब उतना आसान नहीं होगा। विपरीत इसके प्रदेश की राजनीति में इसका यह प्रभाव अवश्य पड़ेगा कि जहां-तहां भाजपा के वरिष्ठ नेताओं में असंतोष है, और जो एक-एक करके पार्टी छोड़ रहे हैं, ऐसी स्थिति में वरिष्ठ नेताओं की अनदेखी, अवहेलना और उन्हें टिकट से वंचित करना पार्टी के लिए मुश्किल होगा। परिणाम स्वरूप ऐसा लगता है कि अनुभव और युवा दोनों के बेहतर समन्वय के साथ भाजपा आगामी होने वाले चुनाव में जिताऊ व्यक्तियों को टिकट देने की नीति अपनाई जायेगी।
भाजपा पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को टिकट देने के बजाय उनके पुत्र/पुत्री को टिकट देने की नई नीति बना कर वरिष्ठ नेताओं की टिकट काटे जाने की स्थिति में उत्पन्न असंतोष को रोकने के रास्ते पर जाने के लिए गंभीर रूप से विचार विमर्श मंत्रा कर मंथन कर रही है। इसमें शिव राज सिंह चौहान, जयंत मलैया, गोपाल भार्गव, नरोत्तम मिश्रा, नरेंद्र सिंह तोमर, प्रभात झा, गौरीशंकर बिसेन के पुत्र/पुत्री शामिल हो सकती है। साथ ही प्रदेश भाजपा नेतृत्व असंतुष्टों को कर्नाटक में कद्दावर नेता जगदीश शेट्टार की हुई दुर्दशा का चेहरा कांग्रेस के झंडे के साथ बार-बार दिखा कर विद्रोह को रोकने का प्रयास कर सकती है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री व लिंगायत समुदाय के बड़े नेता,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के खाटी स्वयंसेवक,जगदीश शेट्टार भाजपा छोड़कर अपनी परंपरागत सीट जहां से वे 6 बार से लगातार चुने जा रहे थे, इस बार कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़े। जहां भाजपा उम्मीदवार जो अपने को जगदीश शेट्टार का चेला कहते थे,उन्होंने जगदीश शेट्टार को 35000 से अधिक मतों से हरा दिया। बावजूद इस तथ्य के कि कर्नाटक चुनाव में सोनिया गांधी की एकमात्र चुनावी सभा जगदीश शेट्टार के विधानसभा क्षेत्र में हुई थी। ऐसी हार मध्यप्रदेश में भाजपा के उन नेताओं के लिए स्पष्ट संदेश है कि यदि पार्टी छोड़कर वे कांग्रेस में जाकर चुनाव लड़ते हैं, तो उनको भी एक बड़ा खतरा उठाना पड़ सकता है। क्योंकि तब भाजपा ऐसे भाजपाई फूल छाप कांग्रेसी उम्मीदवारों को हराने के लिए पूरी ताकत से जुड़ जाएगी, जैसा कि कर्नाटक में पूर्व मुख्यमंत्री शेट्टार के मामले में हुआ। इस प्रकार जगदीश शेट्टार की हार मध्यप्रदेश में भाजपा के लिए संजीवनी बन कर उन लोगों के विरुद्ध ढाल सिद्ध हो सकती है, जो पार्टी छोड़कर जाने की सोच रहे हैं या कगार पर है।
कर्नाटक के चुनाव परिणाम ने मध्यप्रदेश में भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी दुविधा की स्थिति में ला दिया है। केंद्रीय नेतृत्व और संघ के पास इस बात की ठोस विश्वसनीय रिपोर्ट विभिन्न स्त्रोतों, क्षेत्रों व अनुषांगिक संगठनों से बार-बार बल्कि निरंतर मिल रही हैं कि मध्य प्रदेश में एंटी इनकंबेंसी फैक्टर में सबसे बड़ा योगदान स्वयं शिवराज सिंह चौहान के चेहरे का है। अतः यदि शिवराज सिंह चौहान को बदला जाता है, तो जहां मध्यप्रदेश में भी कर्नाटक की तरह ही स्थानीय नेतृत्व एकजुट नहीं है, दूसरी ओर यदि असंतुष्ट नेताओं के कहने पर मुख्यमंत्री को हटा दिया जाए तो फिर एक नई असंतुष्ट लॉबी खड़ी हो जाएगी । ऐसी स्थिति को किस तरह से संभाला जाए? क्योंकि कर्नाटक चुनाव के बाद हाईकमान के उस दबाव और दबदबे में कहीं न कहीं कुछ कमी अवश्य आई है,जिसके रहते पहले हाई कमान ने दिल्ली, गुजरात में मुख्यमंत्री से लेकर मंत्रिमंडल और अधिकांश विधायकों तक की टिकट बेहिचक काट दी थी।