राकेश दुबे
सिंधिया नाम देश की राजनीति में नया नहीं है। मध्यप्रदेश राजस्थान और केंद्र में हमेशा शक्ति संतुलन साधता रहा है। कभी सत्तारूढ़ दल में शामिल होकर तो प्रतिपक्ष की प्रेरणा बनकर। आगमि चुनावों में सिंधिया परिवार और उसके सहारे राजनीति करते सिंधिया परिवार के नज़दीकी रिश्तेदार राजनीति से अरुचि दिखा रहे हैं, यह अरुचि क्यों? अभी इस प्रश्न का उत्तर आना बाक़ी है। जब भी आएगा चौकने वाला होगा।
ज्योतिरदित्य सिंधिया, यशोधरा राजे मध्यप्रदेश विधानसभा का चुनाव लड़ने से इनकार कर चुके हैं। दोनों के अपने -अपने तर्क है। देश के दो बड़े राजनीतिक दलों में इस परिवार के सदस्य मुख्य भूमिका निभा चुके हैं अब यह मोहभंग क्यों समझ से परे हैं।
वैसे भी राजनीति में विरोधाभासों की भरमार है। ऐसा ही एक है-क्या ऐसा भी होता है कि कोई राजनेता बहुत ज्यादा लोकप्रिय हो जाए? सिंधिया घराने की एक बेटी यानि राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता वसुंधरा राजे जब अपने आसपास नजर डालती हैं तो यही सवाल वह अपने आप से पूछ सकती हैं। राज्य विधानसभा के आगामी चुनावों के लिए जारी भाजपा उम्मीदवारों की सूची से उनके कई कट्टर समर्थकों के नाम क्यों गायब हैं/
इनमें पांच बार के विधायक और पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय भैरों सिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी का नाम भी शामिल है। इसके लिए आपको कोई बहुत दिमाग लगाने की जरूरत नहीं है कि यह ताकतवरों द्वारा वसुंधरा राजे के पर कतरने की साजिश है, लेकिन अगर पार्टी के भीतर आपका समर्थन आधार नहीं है तो आपका राजनीतिक वजन काफी घट जाता है।
जिस शख्स ने इसे गलत साबित किया वह थे राजस्थान की राजनीति में भाजपा के दिग्गज नेता भैरो सिंह शेखावत जिन्होंने किसी पार्टी में विभाजन किए बगैर आराम से बहुमत जुटा लिया। असल में शेखावत के बहुत कम, यूं कहिए कि कोई विरोधी नहीं थे। इसके बावजूद, उनके नेतृत्व में भाजपा अपने बूते कभी भी 100 का आंकड़ा पार नहीं कर पाई।
जरा राजस्थान के आंकड़ों को देखिए। शेखावत पहली बार 1977 में मुख्यमंत्री बने। जनता पार्टी को 200 में से 150 सीट मिलीं। 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 84 सीट मिलीं और वह जनता दल की मदद से सरकार बनाने में कामयाब रही। इसके बाद 1993 में भाजपा को 95 सीट मिलीं लेकिन उसने 124 सीट के साथ गठबंधन सरकार बना ली। इन चुनावों ने शेखावत को अदृश्य मित्रों का महत्त्व बता दिया। पार्टी आलाकमान अनुमान लगाता रहा और साथ ही साथ अपनी राजनीतिक सौदेबाजी का महत्त्व बढ़ाते रहे।
वसुंधरा राजे प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यालय-पीएमओ में राज्य मंत्री थीं। उनको 2002 में भाजपा का मुखिया बनाकर जयपुर भेजा गया लेकिन वह वहां जाने की इच्छुक नहीं थीं। उनके नेतृत्व में भाजपा ने वर्ष 2003 के चुनाव में 123 सीट के साथ सत्ता में शानदार वापसी की। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने पार्टी की सीटों की संख्या 163 तक बढ़ा दीं जो किसी भी पैमाने पर जबरदस्त थी। अब भाजपा को किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष दोस्त की जरूरत नहीं थी।
मध्यप्रदेश की वर्तमान सरकार कैसे बनी? किसी से छिपा नहीं है। ज्योतिरदित्य यदि साध नहीं देते तो मध्यप्रदेश विधानसभा के उपचुनाव हो गये होते। भाजपा को बहुमत जुगाड़ना तब टेडी खीर लग रहा था। प्रदेश में कांग्रेस का संगठन पिछले चुनाव में आज से ज़्यादा विभाजित था।ज्योतिरादित्य कांग्रेस में अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे थे, भाजपा ने अपनी युक्ति-भुक्ति लगाई और सरकार बना ली । तब उनके साथ आए सारे विधायक भाजपा का टिकट पाने में असफल दिख रहे और ज्योतिरादित्य असहज।