राजेश बादल
ब्रिक्स शिखर बैठक से ठीक पहले रुसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का बयान गंभीर इशारा करता है और वैश्विक समीकरणों की पड़ताल भी चाहता है। सर्गेई ने पश्चिमी देशों का नाम लिए बिना साफ़ साफ़ कहा है कि भारत ,चीन और रूस की दोस्ती मज़बूत हो रही है और यह बहुत आगे जाएगी। सर्गेई के इस कथन का सीधा सीधा अर्थ यही है कि अब आने वाला समय अमेरिकी चौधराहट के लिए शुभ संकेत नहीं है। पश्चिमी राष्ट्रों और यूरोपीय मुल्क़ों के लिए इसमें अनेक सन्देश छिपे हैं।आने वाले दिनों में इस बयान रुसी रवैए में छिपी हुई एक ख़ास नरमी की ओर इशारा करता है। जब सर्गेई लावरोव कहते हैं कि ब्रिक्स का उद्देश्य किसी से संघर्ष करना नहीं है। यदि इस अंतर्राष्ट्रीय संगठन में पश्चिम के राष्ट्र शामिल नहीं हैं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि हम उनके विरोधी हैं या फिर उनसे टकराव लेना चाहते हैं।हक़ीक़त तो यह है कि इसमें शामिल देश अपनी भौगोलिक निकटता और साझा विरासतों का बेहतर भविष्य के लिए लाभ उठाना चाहते हैं। यदि सर्गेई के कूटनीतिक सन्देश को हम पढ़ना चाहें तो सरल भाषा में कह सकते हैं कि पश्चिमी देशों की दादागीरी के दिन लद गए। अब एशिया की बारी है।
वैसे ब्रिक्स की जन्म गाथा बेहद दिलचस्प है। रूस ,चीन और भारत ने क़रीब चौंतीस साल पहले एक नया संगठन बनाया। उस दौर की अंतरष्ट्रीय परिस्थितियों के मद्देनज़र अमेरिका संसार का चौधरी बन बैठा था और आबादी , क्षेत्रफल तथा संसाधनों की दृष्टि से भारत ,चीन और रूस से कहीं पीछे था। यह स्थिति एशिया के इन उप सरपंचों को रास नहीं आ रही थी। इसलिए इन त्रिदेवों को एक मंच पर आना ही था। उस दौर में भारत तथा चीन के संबंधों में आज की तरह तनाव का ज़हर नहीं घुला था।इसके बाद इस तिकड़ी के साथ ब्राज़ील भी आ गया। इससे इन चार देशों ने नई शताब्दी में प्रवेश करते करते संसार को चौंका दिया। निवेशक बैंक गोल्डमैन सैक्स ने 2001 में इन चार देशों को सबसे तेज़ गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बताया था। अगले आठ साल में इन चार राष्ट्रों ने 2009 में ब्रिक्स नामक इस विराट संस्था को आकार दिया ,जब 2010 में दक्षिण अफ्रीका को प्रतिनिधित्व मिला और इस तरह अफ्रीकी देश भी इस संगठन के बैनर तले आ गए।मौजूदा साल में चार नए देश इसका अंग बने। मिस्त्र ,इथियोपिया ,ईरान और संयुक्त अरब अमीरात ने इस संस्था को इतना विराट आकार दिया कि यह यूरोपीय यूनियन को पछाड़कर संसार का तीसरा सबसे बड़ा आर्थिक संगठन बन गया।इन चार राष्ट्रों के ब्रिक्स का सदस्य बनने के बाद यह पहला शिखर सम्मेलन रूस में हो रहा है।
ब्रिक्स के आंतरिक ताज़ा समीकरण भारत की स्थिति को तनिक भारी बनाते हैं। रूस के साथ भारत के गहरे पारंपरिक रिश्ते हैं। ब्राज़ील और अफ्रीका के साथ भारत के ऐतिहासिक और कूटनीतिक संबंध चीन की तुलना में बेहतर हैं।भारत अकेला देश है ,जिसके ईरान से सदियों पुराने गहरे आध्यात्मिक और आर्थिक रिश्ते रहे हैं।ब्रिक्स की पिछली बैठक की अध्यक्षता कर रहे चीनी राष्ट्रपति ने ईरान पर डोरे डालने का प्रयास किया तो ईरानी राष्ट्रपति ने इशारों में स्पष्ट कर दिया था कि क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय टकरावों से विश्व शान्ति के लिए कई समस्याएँ खड़ी हो रही हैं।चीन की दाल तो नहीं गली ,पर यह साफ़ हो गया कि ब्रिक्स के अलावा वह अरब देशों में भी प्रभाव बढ़ाने का प्रयास कर रहा है।पेंच यह है कि सऊदी अरब खुलकर अमेरिका के पक्ष में है। इसलिए उसके पड़ोसी ईरान पर डोरे डालना चीन के अपने हित में है।तुर्की और मलेशिया से उसने पहले ही पींगें बढ़ा रखी हैं। सिर्फ़ भारत ही ऐसा देश है ,जिसके साथ चीन अपने को असहज पाता है।भारत एक तरफ ब्रिक्स में प्रभावी भूमिका में है तो दूसरी ओर क्वाड में वह अमेरिका , ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ है। चीन की उलझन का यह बड़ा कारण है। ब्रिक्स की पिछली बैठक से पहले ग्रुप -7 के शिखर सम्मेलन में चीन ने भारत पर सांकेतिक हमला बोला था। लेकिन उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया गया।चीन पाकिस्तान को वह छोड़ नहीं सकता और पाकिस्तान ने भारत से दोस्ती नहीं रखने की स्थायी क़सम खा रखी है।ऐसे में रुसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव का बयान संकेत देता है कि चीन और भारत आने वाले दिनों में दोस्ती का एक क़दम और बढ़ाते दिखाई दें। यदि ऐसा होता है तो यह पश्चिमी और यूरोपीय देशों को रास नही आएगा। क्योंकि इससे उनका आधार कमज़ोर होगा और वैश्विक धुरी एशिया के पाले की ओर खिसकती दिखाई दे सकती है।इसलिए भारत के लिए सर्गेई के बयान में दो सन्देश छिपे हैं। एक तो यह कि चीन समझ गया है कि भारत को साधे बिना वह अमेरिका की चौधराहट को चुनौती नहीं दे सकता और आने वाले दिनों में वह रूस की मध्यस्थता में भारत के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में गंभीर हो जाए। दूसरा यह कि चीन के सामने साफ़ हो गया है कि पाकिस्तान के लिए अमेरिका को छोड़ना संभव नहीं है।पाकिस्तान चीन और अमेरिका दोनों नावों की सवारी करे - यह चीन कभी नहीं चाहेगा।हो सकता है कि उसकी आँखें खुलें और वह अब शायद भारत से संबंधों की क़ीमत पर पाकिस्तान को पालना पोसना छोड़ दे।भारतीय विदेश सचिव विक्रम मिस्त्री की सोमवार को पत्रकारों से बातचीत इस ओर इशारा करती है।विक्रम मिस्त्री ने ऐलान किया है कि भारत और चीन नियंत्रण रेखा पर गश्त को लेकर एक समझौते पर पहुँच चुके हैं। इस तरह नियंत्रण रेखा पर तनाव घटाने की दिशा में एक क़दम आगे बढ़ा माना जा सकता है। उन्होंने यह भी कहा है कि ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में भारतीय प्रधानमंत्री और चीनी राष्ट्रपति के बीच द्विपक्षीय बैठक हो सकती है। भारत इस बैठक के होने पर एक सकारात्मक परिणाम की आशा कर सकता है।