राजेश बादल
सोमवार से संसद का शीतकालीन सत्र प्रारंभ हो चुका है और संविधान दिवस भी मंगलवार को है।संयोग है कि संविधान की रचना प्रक्रिया संपन्न होने के 75 साल भी पूरे हो रहे हैं।लोकतंत्र के इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान की हीरक जयंती पर यह सवाल तो बनता ही है कि क्या भारतीय लोकतंत्र वाकई संविधान और संसद को सलाम करने के लिए परिपक्व हो चुका है।आँकड़ों के लिहाज़ से देखें तो वाकई संसद और संविधान बुजुर्ग हो गए लेकिन दशकों बाद भी संसार के इस सर्वश्रेष्ठ संविधान को हम अपना नहीं पाए हैं।हमने उसे सिर्फ़ अदालतों का संचालन करने वाली नियमावली और सरकारी तंत्र का नियामक समझ लिया है।परिणाम यह कि आज हम लोकतंत्र की इस गीता से कट गए हैं।रोज़मर्रा की जिंदगी में संविधान की भावना या मंशा कहीं खो गई है।हमने ऐसे समाज का निर्माण किया है,जो अच्छे इंजीनियर,क़ाबिल डॉक्टर, ज्ञानवान शिक्षाशास्त्री, शोधी वैज्ञानिक,पूँजी से लदे-फदे उद्योगपति और कुशल अधिकारी पैदा करता है,लेकिन उन्हें ज़िम्मेदार भारतीय नहीं बनाता।विकृत शिक्षा प्रणाली का परिणाम है कि हमारे वैज्ञानिकों, राजनेताओं,प्रोफ़ेसरों,सर्जनों और कारोबारियों को संविधान का क ख ग भी नहीं आता।वे अपना काम कुशलता से कर सकते हैं। इस गर्व बोध से वे जीते हैं।लेकिन उन्हें मलाल नहीं है कि वे उस संविधान से परिचित नहीं हैं ,जिसने उन्हें संसार के सामने शान और सम्मान से जीने का अवसर दिया है।सदियों की ग़ुलामी के बाद आज़ाद भारत जिस नींव पर खड़ा है,उस नींव की शिलाओं से आज का हिन्दुस्तान परिचित नहीं है।हमने जम्हूरियत के लिए जो तंत्र खड़ा किया है,उसी से बग़ावत कर बैठे हैं।
महात्मा गांधी ने 7 मई 1931 को अपने अख़बार यंग इंडिया में लिखा था कि मनुष्य की बनाई किसी संस्था में ख़तरा नहीं हो - यह संभव नहीं है।संस्था जितनी बड़ी होगी,उसका दुरूपयोग भी उतना ही बड़ा होगा।लोकतंत्र बड़ी संस्था है।इसलिए उसका दुरूपयोग हो सकता है।लेकिन उसका इलाज़ लोकतंत्र से बचना नहीं,बल्कि दुरूपयोग की आशंका को कम से कम करना है।पर हम ऐसा नहीं कर पाए।हमने लोकतंत्र में दुरूपयोग होते रहने दिया।इसलिए कि हम संविधान के प्रति ईमानदार नहीं थे।डॉक्टर भीमराव आम्बेडकर ने इसका अनुमान पहले ही कर लिया था।उन्होंने देश को चेतावनी देते हुए लिखा था कि संविधान चाहे जितना अच्छा बना लिया जाए,अगर क्रियान्वयन करने वाले लोग बुरे हों तो वह संविधान किसी काम का नहीं रह जाता।आज भारत में हम कार्यपालिका,न्यायपालिका और व्यवस्थापिका में मूल्यों की गिरावट तथा ग़ैर ज़िम्मेदारी देख रहे हैं तो इसका कारण यही है कि हमने तंत्र में अच्छे लोगों की राह में रोड़े खड़े किए और सियासत के दरवाज़े धनबल,बाहुबल और छलबल से चुनाव जीतने वालों के लिए खोल दिए।ऐसे लोगों के लिए न तो संविधान की भावना का कोई मतलब था और न संसद की गरिमा से उनको लेना देना था।आज का नौजवान डॉक्टर, इंजीनियर या पुलिस वाला तो बनना चाहता है ,पर वह लोकतंत्र की मुख्यधारा में शामिल नहीं होना चाहता।जो युवा राजनेता के रूप में स्वयं को देखना चाहता है,उसमें बहुमत उन लोगों का है,जो राजनीति को धंधा समझकर आते हैं।
हमारे नागरिकों का बड़ा वर्ग संविधान के बारे में कपोल कल्पित कहानियों पर भरोसा कर लेता है।वह उन लोगों की जमात में शामिल हो जाता है जो संविधान का मख़ौल उड़ाने में संकोच नहीं करती।विश्व के डेढ़-दो सौ राष्ट्र यदि भारतीय संविधान को श्रेष्ठतम मानते हैं तो इसीलिए कि यह वास्तव में सारे मुल्कों के संविधानों से बेहतर है।अमेरिका में आधी आबादी को मताधिकार के लिए 130 साल तक संघर्ष करना पड़ा। भारत में संविधान लागू होने के पहले दिन से ही महिलाओं को मताधिकार प्राप्त है। भारतीय संविधान पहले दिन से नागरिकों के साथ भेदभाव नहीं करता। दूसरी ओर अमेरिका में अश्वेतों को वोट का हक़ पाने के लिए 80 साल संघर्ष करना पड़ा था।
संविधान को संरक्षण देने का काम सभी संसद का भी है।लेकिन संसद के कामकाज पर नज़र डालें तो निराशा ही हाथ लगती है।गंभीर कामकाज के घंटे कम हो रहे हैं। बहसों का स्तर गिर रहा है.राजनीतिक दल देशहित से अधिक अपने हित पर ध्यान देने लगे हैं। देश के सामने चुनौतियाँ बढ़ती जा रही हैं।पहली संसद के दौरान सामान्य कामकाज समिति ने 1955 में अपनी सिफारिशों में कहा था कि साल में कम से कम सौ दिन तो संसद को बैठकें करनी ही चाहिए।इसके बाद पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने विपक्ष का सहयोग लेते हुए सिफारिशों पर अमल किया।लोकसभा की 677 और राज्य सभा की 565 बैठकें हुईं।कुल 3784 घंटे काम हुआ।पहली संसद का औसत 135 दिन निकलकर आया।इंदिरागांधी के ज़माने में 1971-1977 तक लोकसभा की 613 बैठकें हुईं और 4071 घंटे काम हुआ।उस समय आबादी सिर्फ़ 41 करोड़ थी।आज आबादी लगभग डेढ़ सौ करोड़ है।समस्याओं-चुनातियों का पहाड़ विकराल है।ऐसे में संसद को कम से कम छह महीने तो काम करना ही चाहिए।सांसद पूरे महीने का वेतन लेते हैं तो मुल्क़ परिणाम की अपेक्षा भी करता है।
एक और बात। दो दिन पहले रविवार को सरकार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई थी।इसमें संसदीय कार्य मंत्री ने कहा कि सरकार सारे मुद्दों पर चर्चा के लिए तैयार है।वह नहीं चाहती कि सदन का समय बरबाद हो।संसदीय कार्य मंत्री के इस बयान का यक़ीनन स्वागत किया जाना चाहिए।पर ,अनुभव तो यह है कि सरकारें उन मसलों पर संसद में चर्चा से बचती हैं,जो उन्हें मुश्किल में डालने वाले होते हैं।सदन का बहुमूल्य समय, संसाधन और करोड़ों रूपए पानी में बह जाते हैं।संसद के सदनों में हंगामा, नारेबाज़ी और स्थगन के दृश्य आम हो गए हैं।न प्रतिपक्ष इसके बारे में सोचता है और न पक्ष।जो भी दल सत्ता में होता है,वह समय बरबाद नहीं करने की बात करता रहता है।जब वह विपक्षी बेंचों पर बैठता है तो समय बरबाद नहीं करने की बात भूल जाता है।