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Added on : 2024-12-28 11:22:14

डॉ. सुधीर सक्सेना 
'13' का अंक सारी दुनिया में अशुभ अंक के तौर पर ज्ञात और ख्यात है। इस मान से डॉ. मनमोहन सिंह ऐसी शख्सियत है; जिन्होंने तेरह के अंक को अलग महत्ता, द्युति और शुचिता प्रदान की। क्रमिक तौर पर डॉ. सिंह विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य के तेरहवें प्रधानमंत्री थे। तरेह का अंक उन्हें ऐसा फला कि उनके सन 2004 से सन 2009 के दरम्यानी पहले प्रधानमंत्रित्व काल ने उनके द्वितीय प्रधानमंत्रित्व काल का मार्ग प्रशस्त किया। इस तरह वह भारत के प्रथम और स्वप्नदृष्टा प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू के उपरांत दूसरे ऐसे राजनेता हुये, जिसने पहले पूर्णकाल के बाद दूसरे पूर्णकाल के लिए इस पद पर बने रहने का गौरव अर्जित किया। वह पूरी एक दहाई इस महादेश के प्रधानमत्री रहे और विनम्रता, विद्वता और मितभाषिता के त्रिगुण से उन्होंने पंत प्रधान के पद को अपूर्व और विरल गरिमा प्रदान की। इसे समकाल का दुर्भाग्य ही कहेंगे कि उनके इन मानवीय गुणों को लेकर उनके बड़बोले बैरियों ने उन पर तोहमतें मढ़ी और तंज कसे। 
लालकृष्ण आडवाणी की भांति डॉ. सिंह अविभक्त भारत में जनमे थे। उनका जन्म 26 सितंबर, सन 1932 को पंजाब में चमवाल के गांव गाह में हुआ था। विभाजन के बाद उनका परिवार भारत चला आया। पिता गुरूमुख और मां अमृत कौर की यह संतान बचपन से कुशाग्र बुद्धि थी। पंजाब विश्वविद्यालय से स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधियों के बाद उन्होंने प्रतिष्ठित कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी और ऑक्सफोर्ड से डीफिल हासिल की। भारत लौटने पर उन्होंने अध्यापन को चुना। वह आर्थिकी की प्रतिभा थे और आर्थिकी में उसकी पैठ और दक्षता ने उन्हें सोपान पर सोपान मुहैया कर सर्वोच्च राजनीतिक आसन तक पहुंचाया। वस्तुत: डॉ. सिंह 'अ-पॉलिटिकल' शख्सियत थे। न उनके पास राजनीतिक विरसा था, न राजनीतिक कलायें और न ही राजनीतिक आकांक्षा। फिर भी वह प्रधानमंत्री बने; एक नहीं, दो बार बने। उनके मीडिया - सलाहकार संजय बारू ने उन्हें "एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर" की संज्ञा दी। यदि सादगी सौम्यता और मितभाषिता दुर्गुण है; तो वे दुर्गणी थे और यदि नहीं तो वे मानवीय गुणों से विभूषित ऐसे बिरल राज नेता थे, जो सत्ता के सर्पिल और रपटीले गलियारे मं  दबे पांव चला। अपनी मितभाषिता से वह वाचाल नेताओं की भीड़ में अलग से चीन्हें गये, अलबत्ता मौनी बाबा कहकर उनका मखौल भी उड़ाया गया। पुरजोखिम राजनीति के बीहड़ में भी वह दबे पांव चलते रहे। छल-प्रपंच से दूर रहे। असहमति को ठौर दिया। पक्ष-विपक्ष के निदंक नियरे रखे। विश्वव्यापी मंदी के दौर में उन्होंने देश की नाव को इस तरह खेया की चप्पुओं की आवाज न हुई और नौका पार घाट लग गयी। वह चुनावी राजनीति से सर्वथा दूर रहे। बस, एक बार चुनाव लड़ा। दक्षिण दिल्ली से लड़े और हारे तो किसी को अचरज न हुआ। जब वह वित्त मंत्री बने तो संसद के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे। युक्ति के तहत वह असम से चुने जाकर राज्यसभा में पहुंचे। राज्यसभा यानि संसद का उच्च सदन। वह कम अर्सा गुरू (अध्यापक) रहे, लेकिन विद्वता से उपजा गुरूत्व उनमें ताउम्र कायम रहा। उनके कंधे दुर्बलता से नहीं, वरन दायित्वों से झुके रहे। उनकी गर्दन में कभी खम नहीं दिखे और लांछनों की तीखी बौछार में भी उनकी भृकुटि टेढ़ी न हुई। वस्तुत: वह भारत के उत्तर आधुनिक माल के नवाचारी और विजनरी पीएम थे। वित्त मंत्री भी नवाचारी थे; साहसिक नवाचारी।
राजीव गांधी का प्रधानमंत्रित्व काल राजनीति से इतर संकायों की प्रतिभाओं को चीन्हने और एंगेज करने का काल था। सैम पित्रोदा से लेकर डॉ. मनमोहन तक। सन 1985 में डॉ. सिंह योजना आयोग के उपाध्यक्ष बनाये गये। इस पद पर वह पांच साल रहे। इसी दशक में वह संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन के सचिवालय में सलाहकार, और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष भी रहे। सन 80 के दशक में उनके नाम से हमारी पीढ़ी की वाकफियत उन नोटों के जरिये हुई, जिन पर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर की हैसियत से उनके हस्ताक्षर होते थे। इसमें शक नहीं कि आर्थिक मसौदों पर उनके दस्तख्त मानीखेज होते थे, और उन पर गौर किया जाता था। अपनी किताब 'इंडिया' ज एक्सपोर्ट ट्रेंड्स एण्ड प्रॉस्पेक्टस फॉर सेल्फ स्टेंड ग्रोथ' से वह दुनिया भर के अर्थशास्त्रियों का ध्यान आकृष्ट कर चुके थे और उन्हें वैश्विक मान्यता मिली थी। केन्द्र सरकार के वित्त और वाणिज्य मंत्रालयों में बतौर सलाहकार उनकी सेवायें लेने का सिलसिला सन 70 की दहाई के शुरूआती वर्ष से ही शुरू हो गया था। 21वीं सदी की पहली दहाई में अमेरिका से न्यूक्लियर संधि उनके परिपक्व राजनय का परिणाम थी।
डॉ. सिंह को ऐसी सियासी शख्सियत माना जा सकता है जिसने प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब शायद ही कभी देखा हो। सियासत उनकी महत्वाकांक्षा का आसमान न था। बहरहाल, सच है कि समय अपना नायक स्वयं चुनता है। सन 90 का दशक उनके लिये नेमते लेकर आया। प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हाराव ने उन्हें वित्त मंत्री पद से नवाजा। पूरे पांच साल वह वित्त मंत्री रहे। वह बिना शोरशराबे या सियासी धौलधप्पे के कामों को अंजाम देते रहे। फलत: दुनिया ने उनका लोहा माना। पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की नजरों में वह चढ़े। देश की लद्धड़ इकोनामी पटरी पर आ गयी। उन्होंने वक्त के तकाजे को बूझा। युक्तियां आजमायीं। बंद दरवाजे खोले। वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण को तरजीह दी। नतीजे सामने थे। पहले राजीव गांधी और फिर नरसिम्हारव का भरोसा रंग लाया। नतीजे सामने थे। हाथ कंगन को आरसी क्या। डॉ. सिंह का नवाचार देश को फला। सन 2004 में बीजेपी का 'फील गुड' थोथा सिद्ध हुआ। डॉ. सिंह प्रधानमंत्री बने। पहले सिख प्रधानमंत्री। ऑपरेशन ब्लू स्टार और सिख विरोधी दंगों के परिप्रेक्ष्य में कांग्रेस की सत्ता में वापसी के दौर में उनका प्रधानमंत्री बनना मायने रखता था और उसके अपने निहितार्थ थे। प्रसंगवश उल्लेखनीय है कि सर्वश्रेष्ठ सांसद का पुरस्कार उन्हें सन 2002 में वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में मिला था और उन्हें पद्म विभूषण से सन 1987 में नवाजा जा चुका था। सन 1998 से सन 2004 तक वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता भी थे। 
डॉ. सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल की बहुतेरी बातें लोगों को ज्ञात हैं। उन्हें दोहराने का औचित्य नहीं। इस दहाई में भारत ने वैश्विक मंदी का सामना बखूबी किया लेकिन इस काल में कुछेक दूरगामी महत्व के कानून पारित हुये। मनरेगा अस्तित्व में आया। सूचना का अधिकार। शिक्षा का अधिकार। वनाधिकार अधिनियम/ कितनों को पता है कि सूचना के अधिकार में सामाजिक कार्यकर्त्री अरूणा राय और रोजगार गारंटी व भोजन अधिकार कानून में अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज से विमर्श की महत्वपूर्ण भूमिका थी। प्रधानमंत्री रहते वह सात बार मध्यप्रदेश आये थे और साल 2011 में उनहोंने बीना रिफायनरी का शुभारंभ किया था। सन 2019 में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ के विजन डॉक्यूमेंट का लोकार्पण भी किया था। भोपाल की मेट्रो परियोजना के पहले प्रस्ताव को मंजूरी उन्होंने दी थी। भोपाल में शामला हिल्स स्थित जनजातीय संग्रहालय का भी उन्होंने दौरा किया था। अभिभूत डॉ. सिंह ने विजिटर बुक में लिखा था - "यह संग्रहालय नयी पीढ़ी को लोककला और संस्कृति की जानकारी देने का अदभुत स्थान है। संग्रहालय में संस्कृति और परंपरा का संगम देखने को मिला है। इसे बचाकर रखने की जरूरत है।" 
मध्यप्रदेश का ही प्रसंग है। केन्द्र में कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान तब मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे। डॉ. सिंह प्रधानमंत्री एक साल पाले के कारण फसलों को गंभीर क्षति हुई। क्षतिपूर्ति की दस्तक पर केन्द्र सरकार का टके का उत्तर आया कि पाला प्राकृतिक आपदा की परिधि में नहीं आता। शिवराज हताश कि डॉ. सिंह का फोन आया। शिवराज दिल्ली पहुंचे। पीएम की पहल पर कमेटी बनी। उसमें प्रणब मुखर्जी थे, शरद पवार थे, पी. चिंदबरम थे और शिवराज भी। कमेटी ने पाले को प्राकृतिक आपदा मानने की संस्तुति की। फलत: मध्यप्रदेश को केन्द्र से 400 करोड़ रूपयों की मदद मिली। 
कन्नौज से एमएलए असीम अरूण मोदी सरकार में राज्यमंत्री है। पूर्व आईपीएस असीम 2004-07 में पीएम के बॉडीगार्ड रहे। पीएम हाउस में लकदक गाड़ियां थीं, मगर बकौल असीम डॉ. सिंह को पंसद थी अपनी मारूति 800। तो यकीनन डॉ. सिंह नामका शख्स औरों से अलग था। उसका पिंड अलग था। माली बदलने से चमन खाली नहीं होता, मगर जिसने 26 दिसंबर को 92 साल की वय में 'आंखें मूंदी' वह बागबां औरों से अलहदा था। उनके सिर झुकाकर चलने का शेर बार-बार यूं ही, उदधृत नहीं हो रहा है। मीडिया को डॉ. मनमोहन सिंह नामक आडंबरच्युत व्यक्तित्व को आदरपूर्वक इसलिये भी याद रखना चाहिये कि, प्रधानमंत्रियों की खुली प्रेसवार्ताओं की श्रंखला में सन 2014 में अंतिम प्रेसवार्ता का श्रेय देश के तेरहवें प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के खाते में दर्ज है। जो दोबार ओपन हार्ट सर्जरी से गुजरा था। सच तो यह इस कलुष दौर में हमें अधिक से अधिक डॉ. मनमोहन चाहिये।

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