राजेश बादल
डोनाल्ड ट्रम्प अब विधिवत अमेरिका के मुखिया बन गए हैं। हारकर जीतने वाले संभवतया वे पहले राष्ट्रपति होंगे।उन्होंने पद पर बैठते ही 78 फैसले लिए हैं।यह निर्णय इशारा करते हैं कि ट्रंप पिछले राष्ट्रपतियों से इस बार भिन्न पारी खेलने के मूड में हैं।यक़ीनन वे स्वयं को एक ऐसे चक्रवर्ती राष्ट्रपति के रूप प्रस्तुत करना चाहेंगे,जो अमेरिकी इतिहास में लंबे समय तक याद किया जाए।लेकिन क्या सब कुछ डोनाल्ड ट्रंप के अनुकूल है ? शायद नहीं। उन्हें सबसे पहले अपने ऊपर मंडरा रहे अतीत के प्रेत से मुक़ाबला करना होगा और यह काम कोई बहुत आसान नहीं है।उनके समक्ष गंभीर समस्याओं और चुनौतियों का एक विकराल गुच्छा है,जिसे सुलझाने के लिए उन्हें अपने आप को बदलना पड़ेगा। उमर के इस पड़ाव पर उनके लिए अपने आप को बदलना उतना ही कठिन है ,जितना अमेरिका को विश्व पंचायत का चौधरी बनाए रखना।
यह छिपा नहीं है कि ट्रंप बुनियादी तौर पर कट्टर पूँजीपति हैं।लोकतंत्र से उनका संबंध राष्ट्रपति निर्वाचित होने तक ही है। कारण यह भी है कि लोकतंत्र और पूँजीतंत्र के बीच आपस में नहीं बनती।लोकतंत्र जन कल्याण की बात करता है और पूँजी तंत्र में व्यक्ति सिर्फ़ अपने स्वार्थ साधता है।आपको याद होगा कि पहले कार्यकाल में भारत से संबंध मधुर होते हुए भी ट्रंप ने भारत की जन कल्याण योजनाओं का मख़ौल उड़ाया था। उन्होंने लोकतंत्र में लोक कल्याण को भी सिक्कों से तौला था और कहा था कि हिन्दुस्तान अफ़ग़ानिस्तान में अस्पताल ,पुस्तकालय और स्कूल खोलने पर ख़र्च करता है,उतना तो अमेरिका एक घंटे में उड़ा देता है।
जब ट्रंप विशुद्ध कारोबारी थे तो सियासत से घृणा करते थे। वे पहली पारी खेलने आए, तो बराक ओबामा की यश पूँजी अमेरिका के साथ थी। डोनाल्ड ट्रंप को उससे आगे देश को ले जाना था। लेकिन वे ऐसा कर नहीं पाए। ओबामा का सैद्धांतिक और नैतिक आधार डोनाल्ड ट्रंप से अधिक मज़बूत था। मुल्क़ के लोगों के बीच उनके कथन के सच की प्रतिष्ठा डोनाल्ड ट्रंप के झूठ के पहाड़ से भी बहुत ऊँची थी।इसलिए ट्रंप का क़द बराक ओबामा से अत्यंत निचले पायदान पर है। क्या यह वैश्विक मंच पर उपहास की बात नहीं है कि अमेरिका के सर्वाधिक प्रतिष्ठित अख़बार ने ट्रंप के असत्य कथनों पर कई पन्नों का प्रामाणिक दस्तावेज़ प्रकाशित किया था।रिकॉर्ड के मुताबिक़ डोनाल्ड ट्रंप ने पूरे कार्यकाल में प्रतिदिन 21 के हिसाब से 21500 से अधिक झूठ बोले।इस वजह से पत्रकार उनके कटु आलोचक बने रहे। कोई भी सुसंस्कृत लोकतंत्र सामूहिक नेतृत्व, सचाई और ईमानदारी के आवश्यक तत्वों से मिलकर बनता है। डोनाल्ड ट्रंप में इन तीनों का अभाव है। इसीलिए संसार के सबसे धनाढ्य गणतंत्र की जड़ें आठ बरस से निरंतर सूख रही हैं ।ट्रंप के झूठ के कारण बाद में यूरोपीय संघ के राष्ट्र ही उनसे कन्नी काटने लगे थे।
दूसरे कार्यकाल में वे प्रतिशोधी राष्ट्रपति के रूप में हैं। जो बाइडेन के 78 नीति विषयक निर्णयों को एक झटके में रद्द करना उनके इस रवैए का पारिणाम है।यह बहस का विषय हो सकता है कि अपनी पार्टी के पराजित होने के बाद जो बाइडेन ने गंभीर नीति विषयक निर्णय लिए थे। इनके पीछे की स्पष्ट मंशा यह थी कि डोनाल्ड ट्रंप जब सत्तानशीन हों तो उनके लिए सरकार चलाना कठिन हो जाए और अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में अमेरिका की किरकिरी हो। मसलन डोनाल्ड ट्रंप प्रचार अभियान में कह चुके थे कि गद्दी पर बैठते ही चौबीस घंटे के भीतर वे रूस और यूक्रेन के बीच जंग रोक देंगे।वे खुलकर रूस का समर्थन कर रहे थे और यूक्रेन विरोधी थे। वे तो यहाँ तक कह चुके थे कि यूक्रेन अब उन इलाक़ों को भूल जाए ,जो रूस ने जीत लिए हैं। इसके उलट बाइडेन ने पराजय के बाद यूक्रेन को ऐतिहासिक फ़ौजी और वित्तीय मदद बढ़ा दी।अब डोनाल्ड ट्रंप को राष्ट्रपति बने चौबीस घंटे बीत चुके हैं और वे जंग नहीं रोक पाए हैं। ज़ाहिर है बाइडेन काग़ज़ों पर कुछ ऐसा कर गए हैं ,जो ट्रंप के लिए पलटना मुश्किल है। हक़ीक़त यह भी है कि यूरोपीय संघ और नाटो के देश रूस की खुलेआम सहायता करने की ट्रंप की नीति से प्रसन्न नहीं होंगे। क्या डोनाल्ड ट्रंप यूरोपीय मित्रों को नाराज़ करने का जोख़िम मोल लेंगे ?
असल में ट्रंप ने पदभार सँभालते ही कूटनीतिक गलतियाँ शुरू कर दी हैं। क़ायदे से दूसरे कार्यकाल में डोनाल्ड ट्रंप को भारत को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी चाहिए थी।भारत रूस का पक्षधर रहा है।बाइडेन के तमाम दबावों के बावजूद रूस से कच्चा तेल खरीदना बंद नहीं किया। भारत ने अपने सामरिक हितों के मद्देनज़र यह निर्णय लिया था। वह चीन ,रूस और पाकिस्तान से एक साथ बैर मोल नहीं ले सकता था। रूस के साथ रहने पर चीन से तनाव होने की स्थिति में वह रूस के ज़रिए चीन पर दबाव बना सकता था।ऐसी स्थिति में ट्रंप को रूस के साथ साथ भारत की दोस्ती बोनस में मिल सकती थी। पर उन्होंने भारत को शपथ समारोह में न्यौतने तक की ज़रुरत तक नही समझी और उस चीन को निमंत्रित किया,जिसको उन्होंने कोविड फैलाने के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था। चीन के राष्ट्रपति ने अपनी जगह प्रतिनिधि को भेज दिया। क्या ट्रंप के लिए यह उचित नहीं होता कि वह अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी चीन की घेराबंदी के लिए भारत और रूस जैसे मित्र देशों का साथ लेता। लेकिन ट्रंप ने व्यक्तिगत अहं के चलते ऐसा किया। शायद उन्हें याद रहा कि क़्वाड की बैठक के लिए अमेरिका गए भारतीय प्रधानमंत्री उनसे मिले नहीं थे। इसका उन्हें बुरा लगा था। इसी कारण उन्होंने प्रचार अभियान में इस बार मोदी का सहारा नहीं लिया और हिन्दू कार्ड खेला।
अंतिम बात। पाकिस्तान से अमेरिकी पींगों का लंबा अतीत है।हरदम वह पाकिस्तान को परदे के पीछे सहायता करता रहा है।एकाध अपवाद को छोड़कर।जब अमेरिकी फौजों को अफ़ग़ानिस्तान से लौटना था तो तालिबान से गुपचुप वार्ताओं के दरम्यान भारत की उपेक्षा की गई थी और पाकिस्तान को ट्रंप ने सिर पर बिठाया था।इसीलिए कहा जाता है कि अमेरिकी किसी के सगे नहीं होते। भारत को यह ध्यान रखना होगा।