पांच सौ से भी अधिक वर्षों से रामलीला हमारे देश में रंगकर्म की रीढ़ रही है। बगैर किसी दिखावे के, बगैर किसी लोभ लालच और बगैर किसी लालसा के, लाखों-करोड़ों जन रामलीला नाटक के रंग में रंगें रहे ।
इस तरह रामलीला विश्व का सबसे अधिक चलने वाला, सबसे बड़ा और सबसे विशाल नाटक है । लेकिन दुर्भाग्य देखिए, आधुनिक भारत में (1947 के पश्चात ) रंगकर्म के क्षेत्र में सबसे अधिक विस्मृत ,सबसे अधिक अनदेखी , सबसे अधिक लापरवाही इस विशाल नाटक के साथ ही बरती गई । यह एक अक्षम भूल ही नहीं वरन एक सांस्कृतिक अपराध भी था।
मैं और मेरी उम्र के लोग, जब छोटे थे तब से रामलीला के दर्शक रहे हैं । मैं अपनी बुआ जी के साथ अपने शहर अलवर में होने वाली राजऋषि अभय समाज की रामलीला देखने जाता था । जो तकरीबन सवा सौ बरस पुरानी है। उस रामलीला के दृश्य आज भी मेरे स्मृति पटल पर अंकित हैं। मेरे छोटे से शहर अलवर में तीन बड़ी और कई छोटी रामलीलाएं होती थी। एक रामलीला रामचरितमानस के आधार पर हिंदी में ,दूसरी सब्जी मंडी में पंजाबी में, जिसे पुरुषार्थी जन करते थे और तीसरी तांगा स्टैंड पर सिंधी में ,जिसे मजदूर वर्ग करता था। लखनऊ में तो उर्दू भाषा में भी रामलीला होती है । इसके अलावा राजस्थान के अनेक नगरों में सैकड़ों रामलीला नाटक खेली जाती थी। कोटा ,भरतपुर ,जयपुर ,अलवर , बिसाऊं ,जुरहरा सरदार शहर के साथ-साथ पूरे देश में रामलीला खेली जाती थी।
क्या कारण है कि आधुनिक भारत के सत्ता प्रतिष्ठानों ने रामलीला को इग्नोर किया। पढ़े-लिखे आधुनिक रंगकर्मियों ने इस अद्भुत लोकनाट्य पर ध्यान ही नहीं दिया। इतने बड़े नाटक की अनदेखी की और क्रूरता पूर्वक उसे आम आदमी के खाते में डाल दिया।
लेकिन रामलीला भी सत्ता प्रतिष्ठानों, कला अकादमियों, सांस्कृतिक केंद्रों की रत्ती भर भी मोहताज नहीं रही। और जनभागीदारी से खूब चलती रही और चल रही है।
लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम रामलीला को विश्व का सबसे अधिक खेले जाने वाला, सबसे लंबा और सबसे अधिक समय तक चलने वाला नाट्य घोषित करें ।
मेरे मन में जब राम चरित् पर एक नाटक करने की अभिलाषा जागृत हुई तब मैंने रामलीला के बारे में कई पुस्तकों का अध्ययन किया । आदिकवि वाल्मीकि जी कृत रामायण, तुलसीदास जी की रामचरितमानस ,
मेहोजी गोदारा की रामायण, श्री राधेश्याम कथावाचक की रामायण, तेलुगु कवियित्रि मोल्ल की रामायण ,
प्रगतिशील आलोचक और जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष प्रो. जीवन सिंह जी की पुस्तक लोक में राम और जुरहरा की रामलीला , संस्कृत के महाविद्वान पं. राधावल्लभ त्रिपाठी जी की पुस्तक रामायण एक पुनर्यात्रा, हिंदुजा अवस्थी की अद्भुत पुस्तक रामलीला परंपराओं और शैलियां.... इन ग्रंथों व पुस्तकों का अध्ययन कर विचार किया तो समझ में आया कि रामलीला नाट्य की उपेक्षा करके हमने कितनी बड़ी भूल की है .....
और अब उस भूल को सुधारने का समय आ गया है।
इसी क्रम में हमने पिछले वर्ष (1 अक्टूबर से 5 अक्टूबर २०२२ ) देश के सुविख्यात सांस्कृतिक केंद्र जवाहर कला केंद्र के सहयोग से करीब 133 कलाकारों के साथ श्रीराम चरित नाट्य प्रस्तुत किया । 10 घंटे तक चलने वाले इस लोकनाट्य को इन पांच दिनों में तकरीबन 20000 लोगों ने देखा। इस लोकनाट्य में हमने राम के जीवन के लगभग 83 प्रसंगों का समायोजन किया था । ये जो तस्वीरें आप देख रहे हैं यह सब श्रीरामचरित्र नाट्य की ही हैं।
अब समय आ गया है कि हम सब रंगकर्मी अपने अपने कस्बे, गांव और शहरों में खेले जा रहे हैं रामलीला नाटक में आगे बढ़कर सहयोग करें औरअपने अनुभव से अपने नगर की रामलीलाओं को रंग संपन्न बनायें।
रंगकर्म के क्षेत्र में इसे ही हमारा सच्चा योगदान होगा।