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हॉट टोपिक
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Added on : 2023-08-09 09:53:54

 

राजेश बादल 

बेशक़ अँगरेज़ो ! भारत छोड़ो का आह्वान महात्मा गांधी का था,लेकिन उससे देश की देह में जो हरारत पैदा हुई थी,उसका श्रेय अनगिनत देशभक्तों को भी जाता है।महात्मा का वह रौद्र रूप हिन्दुस्तान ने पहले कभी नहीं देखा था।मगर जब तिहत्तर साल के इस युवक ने हुंकार भरी तो सारा मुल्क़ जैसे जोश और जज़्बे से भर गया।अस्सी साल बाद जब आज़ादी के पचहत्तर साल पूरे हो चुके हैं तो महाराष्ट्र से प्रारंभ होकर देश भर में फ़ैल गए सबसे बड़े अहिंसक आंदोलन का स्मरण प्रासंगिक है।यह भी विचार आवश्यक है कि 1942 में कौन सी परिस्थितियाँ थीं,जिन्होंने महात्मा गांधी को इस बड़े निर्णय के लिए बाध्य कर दिया था। करो या मरो जैसा नारा उन्होंने पहले कभी नहीं दिया था।वे जानते थे कि देश अब अभी नहीं तो कभी नहीं वाली मानसिकता में आ चुका है।   

महात्मा गांधी ने आठ अगस्त ,1942 को मुंबई के गवालिया मैदान में करो या मारो का नारा दिया । उसी रात वे गिरफ़्तार कर लिए गए।उनके साथ साथ अन्य शिखर नेता जवाहर लाल नेहरू ,सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद भी सींखचों के भीतर थे ।द्वितीय पंक्ति के नेताओं ने भी महात्मा जी के करो या मरो मंत्र को स्वीकार कर लिया था और वे भूमिगत रहते हुए,छद्म वेश में अपने अपने ढंग से आंदोलन संचालित कर रहे थे।यही इस आंदोलन की क़ामयाबी का बड़ा कारण था।जब गांधी जी क़ैद में नहीं होते थे,तो सारा देश उनकी ओर अगले क़दम या निर्देश के लिए टकटकी लगाकर देखा करता था। वे जैसा कहते,वैसा ही आंदोलन का स्वरुप बन जाता था। लेकिन इस आंदोलन के दरम्यान जैसे हिन्दुस्तान के करोड़ों नागरिकों में महात्मा गांधी का अंश दाख़िल हो गया था और फिर उन्हें महात्मा के निर्देशों की ज़रुरत नहीं रही थी।किसी भी वास्तविक जन आंदोलन की यही पहचान है।उस आंदोलन में किसी की अगुआई की आवश्यकता नहीं होती।अत्याचार के ख़िलाफ़ हर नागरिक अपने भीतर से आवाज़ निकलते देखता था।यही सुबूत था कि महात्मा गांधी ने अपना काम कर दिया था।जब आत्मा से तार जुड़ गए तो फिर गांधी दैहिक रूप से उपस्थित हैं या नहीं,इससे क्या अंतर पड़ता था।

यह सत्य है कि आंदोलन कहीं कहीं हिंसक भी हुआ मगर उसके मूल चरित्र पर कोई अंतर नहीं पड़ा।बक़ौल राजेंद्र माथुर,"1942 में भारत का मनोविज्ञान एक ऐसे आदमी का मनोविज्ञान था,जो अपनी मुर्दा,लाशनुमा ज़िंदगी से तंग आकर अपनी चिता स्वयं जलाने की आज़ादी चाहता था,जिससे वह जीवित नर्क की पीड़ा से किसी तरह छुटकारा पा सके।ब्रिटिश साम्राज्य में निष्क्रियता से सुरक्षित रहने के बजाय जापान के हाथों सक्रिय रूप से राख हो जाना हिंदुस्तान को मंज़ूर था।ग़ुलामी की ज़िंदगी के बजाए देश को इच्छित मृत्यु पसंद थी।भारत रस्सियों से बंधा दास था,जो डूबती नाव में मौत का इंतज़ार कर रहा था।नाव का मालिक तूफ़ान से लड़ने में व्यस्त था और कह रहा था कि इस समय आज़ादी की फ़िज़ूल माँग मत करो।ये बातें हम तूफ़ान के बाद देखेंगे।दूसरी तरफ ग़ुलाम देश कह रहा था कि आज और इसी पल रस्सियाँ तोड़ना ज़रूरी है क्योंकि नाव डूबी तो आप तो तैर कर निकल जाएँगे लेकिन यह देश रसातल में चला जाएगा।इसलिए आइए ! आप और हम साथ साथ तूफ़ान से लड़ें।यह इंग्लैंड को स्वीकार नहीं था।भारत को बांध कर वह जंगल की आग से लड़ रहा था।भारत बड़े से बड़े बलिदान के लिए तैयार था,लेकिन वह कहता था कि बलिदान से पहले आज़ादी का तिलक तो लगा दीजिए।स्वेच्छा से जान देना बलिदान है और अनिच्छा से या जबरन मौत के घाट उतारे जाना सिर्फ़ बूचड़खाने का नरसंहार है "।

उस दौर के भारत और गांधी के रूप में इस मुल्क की मानसिकता का इससे बेहतर विश्लेषण और नहीं हो सकता।दरअसल गांधी के तर्क को गोरों ने गंभीरता से समझने का प्रयास ही नहीं किया।इसीलिए दूसरे विश्वयुद्ध में उन्होंने भारत को गांधी विचार से जोड़ने का प्रयास नहीं किया।यदि वे ऐसा करते तो शायद बेहतर स्थिति में होते।गांधी जी ने यही तो कहा था कि अगर हमले में भारत जापान के क़ब्ज़े में आ गया तो क्या भारत के लोग अँगरेज़ों की ग़ुलामी बनाए रखने के लिए जापान की ग़ुलामी का विरोध करेंगे ? पर यदि आपने भारत को स्वतंत्र कर दिया तो उसमें नई जान आएगी। वह जान की बाज़ी लगाकर आज़ादी की रक्षा करेगा।महात्मा का तर्क वाजिब था।इसमें क्या अनुचित था,जब वह कहते थे कि भारत इन दिनों आपसे नाराज़ और काफी हद तक चिढ़ा हुआ है। यहाँ हर आदमी इंग्लैंड की हार पर खुशियाँ मनाता है।विचित्र है कि जापान के हाथों पराजय मिलने पर तुम हिन्दुस्तान, जापान को सौंपने के लिए तैयार हो लेकिन तुम भारत को भारतवासियों के हाथों में सौंपने के लिए तैयार नहीं हो।अगर भारत युद्ध में रौंदा गया तो तुम्हारे लिए सिर्फ़ ब्रिटिश साम्राज्य के एक सूबे का पतन होगा मगर हमारे हाथ से तो सारा देश निकल जाएगा।युद्ध में कौन दाँव पर लगा है ? साम्राज्य की नाक ज़्यादा वज़नदार है या भारत का अस्तित्व ? आज़ाद करने के बाद अगर किन्ही अप्रिय स्थितियों में मान लीजिए भारत जापान के क़ब्ज़े में चला गया तो आपका क्या नुकसान होगा ? लेकिन यदि ब्रिटिश सरकार के क़ब्ज़े से भारत छीना गया तो गोरी हुक़ूमत की शान में बट्टा लग जाएगा।आज़ादी की ताज़ी हवा में अगर हमारा दम घुटता है तो घुटने दीजिए क्योंकि ग़ुलामी की ज़हरीली हवा में भी तो दम घुट ही रहा है। 

ज़ाहिर है कि महात्मा गांधी की यह ऐसी बुद्धिमत्ता पूर्ण सलाह थी,जो गोरी सरकार को उनके बड़े से बड़े विशेषज्ञ भी नहीं दे रहे थे।जब इस तर्क को खारिज कर दिया गया तो गांधी का ग़ुस्सा लाज़िमी था।संभवतया यही कारण था कि महात्मा ने अगस्त 1942 में उनके जीवन का सबसे तीव्र और आक्रोश भरा आंदोलन छेड़ने का फ़ैसला किया।

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