राजेश बादल
भारतीय राजनीति में दलों के बीच गठबंधन अब कमज़ोर पड़ते दिखाई दे रहे हैं। क़रीब आधी सदी पहले इन गठबंधनों की शुरुआत हुई थी।राजनीतिक अस्थिरता इसके पीछे थी। उसके बाद लंबे समय तक राष्ट्रीय हित में लोकतांत्रिक ढाँचे को मज़बूत करने के लिए तमाम पार्टियाँ एक मंच पर उपस्थित रहीं और अपने तीव्र आवेग का प्रदर्शन करती रहीं। एक ज़माने में इन पार्टियों को वैचारिक आधार पर साथ काम करते देखना सुखद था ।लेकिन ,बाद के वर्षों में सिद्धांत और विचार सियासत से ग़ायब होते गए। गठबंधनों में शामिल छोटे -बड़े दलों की प्राथमिकताएँ गड्डमड्ड होती रहीं। उससे जम्हूरियत की भावना कमज़ोर पड़ी और व्यक्तिगत स्वार्थ तथा नव सामंत पनपते रहे। इसका एक कारण राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर ऐसे राज नेताओं की उपस्थिति थी,जो आज़ादी के बाद उभरे थे। उनके लिए आदर्श और सिद्धांत सर्वोपरि थे। वे राजनीति में नैतिक मूल्यों के हामी थे। खेद है कि उनके जाने के बाद ऐसे राजनेताओं का विलुप्त होना शुरू हो गया। सियासत का रंग बदल गया।देशहित हाशिए पर चला गया। राजनीति कारोबार में तब्दील होती गई। मुल्क़ का जहाज़ छोटे छोटे अनेक उप कप्तानों के सहारे बढ़ता गया। एनडीए और यूपीए दो दशक पहले तक अपने सर्वोत्तम स्वरूप और आकार में थे । गठबंधन -राजनीति का एक तरह से वह स्वर्ण युग कहा जा सकता है।
दरअसल किसी भी धड़कते हुए लोकतंत्र में मतभेद अत्यंत स्वाभाविक हैं।वे गठबंधनों में भी समय समय पर दिखाई देते रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले एनडीए तथा कांग्रेस के नेतृत्व में बने यूपीए के भीतर कई बार यह मतभेद सामने आए और आपसी तालमेल से सुलझाए जाते रहे। लेकिन एक स्थिति ऐसी भी बनी ,जब छोटे दलों के अंदर असुरक्षा बोध पनपा। उन्हें लगा कि बड़ी पार्टी उन्हें गठबंधन में साथ लेकर चल तो रही है ,मगर साथ रहने के ख़तरे भी हैं।उनके इस सोच का आधार भी था ।बड़े दल जब चुनाव मैदान में सामने आते तो छोटे दलों का वोट बैंक बड़ी पार्टियों के साथ तो चला जाता पर बड़ी पार्टियों के मतदाता छोटी पार्टियों को वोट देने से छिटकते रहे । कई चुनाव परिणाम इसका गवाह हैं । इससे छोटे दल और नाटे-बौने होते गए,जबकि बड़ी पार्टियां अपनी काया का विस्तार करती रहीं। लोकतंत्र का बगीचा इस भावना से नहीं चलता। भारतीय लोकतंत्र की इस बगिया में सभी किस्म के फूलों के लिए भरपूर संभावना है।वे अपनी हर तरह की विशिष्ट वैचारिक ख़ुश्बू बिखेरते हुए खिल सकते हैं। गेंदे से लेकर गुलाब तक सब भारतीय गुलशन को महका सकते हैं। ऐसे में कोई यह फूल दावा नहीं कर सकता कि वह बग़ीचे का राजा फूल है। पर , हुआ इसके उलट। पार्टियों में यह संक्रामक राजा बोध हमें नज़र आया।छोटे दलों में इसी तर्ज़ पर अपनी सुरक्षा में अधिनायकवाद विकसित हुआ। मौजूदा राजनीति किसी भी क्षेत्रीय दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं दिखाती। वहाँ एक शिखर पुरुष या शिखर महिला है ,जो पार्टी की गाड़ी को अपने अंदाज़ में खींच रहा है। इन दलों में संगठन चुनाव सिर्फ़ दिखावे के लिए होते हैं। अरसे से इन दलों में एक ही चेहरा सुप्रीम है। क्या इसका अर्थ यह लगाया जाए कि भारत जैसे विराट देश के नागरिक आज़ादी के सतहत्तर बरस बाद भी राजा -रानी युग की मानसिकता से उबर नहीं पाए हैं और वे अभी भी एक सुलतान अथवा महाराजा के अधीन रहना पसंद करते हैं।
देखा जाए तो छोटी पार्टियों का आकार और असुरक्षा बोध उनके ढाँचे में लोकतंत्र की अनुपस्थिति का कारण भी है। गठबंधन का बड़ा दल उनको आँखें दिखाता है तो उन्हें अपने अस्तित्व पर हमला लगता है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने जब बिहार में यह बयान दिया था कि अब भारतीय राजनीति में छोटे दलों का भविष्य नहीं रहा और आने वाले दिनों में वे समाप्त हो जाएँगे तो उसका संभवतया मतलब यही था। हम देखते हैं कि चुनाव दर चुनाव मंझोले दल सिकुड़ते जा रहे हैं। बेशक़ बंगाल या तमिलनाडु अपवाद हो सकते हैं ,लेकिन आने वाले दिन तो उनके लिए भी चेतावनी भरा सन्देश दे रहे हैं।
एक अनुभव यह भी है कि गठबंधन में प्रतिपक्ष तनिक ज़्यादा चुनौतियों का सामना करता है ।सत्ताधारी गठबंधन के सामने कम मुश्किलें पेश आती हैं । कारण यह कि सरकार के साथ रहने पर छोटे दल सुख सुविधाओं का भरपूर लाभ लेते हैं ।उनके काम होते रहते हैं और कार्यकर्ताओं का रौब बना रहता है। दूसरी ओर प्रतिपक्षी गठबंधन को अपने दलों या उनके विधायकों तथा सांसदों के शिकार का ख़तरा रहता है ।यह बीमारी हालिया दौर में ज़्यादा दिखाई दी है । ज़ाहिर है कि प्रतिपक्ष के बिखरने का लाभ सत्ताधारी दल को मिलता है ।इसलिए पक्ष यही कोशिश करता है कि प्रतिपक्ष टूटा फूटा रहे। विपक्षी गठबंधन इंडिया के साथ कुछ ऐसा ही नज़र आ रहा है । दिल्ली में आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी का गठबंधन इंडिया की बड़ी पार्टी कांग्रेस से दूर जाने का संकेत है ।महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के शिखर पुरुष शरद पवार का ताज़ा बयान इशारा कर रहा है कि वहां भी कांग्रेस की अगुआई उन्हें रास नहीं आ रही है ।बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी तो कई बार गठबंधन की अगुआई कांग्रेस को नहीं देने की बात कह चुकीं हैं ।जम्मू कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस के उमर अब्दुल्ला भी कुछ यही तेवर दिखा रहे हैं ।सबसे बड़ी बात आरजेडी के रुख़ में भी परिवर्तन का नज़र आना है। इन दलों के बदलते रवैए से साफ़ है कि उन्हें दुर्बल कांग्रेस तो स्वीकार है ,लेकिन जब कांग्रेस सौ सांसदों के साथ सदन में उपस्थित है तो उन्हें उसकी अगुआई पसंद नहीं है ।यह उन दलों की लोकतांत्रिक निरक्षरता नहीं तो और क्या है ? यह माँग ही बेतुकी होगी कि सौ सांसदों वाली पार्टी को छोड़कर दस बीस सांसदों वाली किसी क्षेत्रीय पार्टी को इंडिया का नेतृत्व सौंपा जाए ।