राजेश बादल
नीतीश कुमार ने चंद रोज़ पहले पाला बदला तो राजनीतिक गलियारों में भूचाल आ गया। इण्डिया गठबन्धन के भविष्य को लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म हो गया। राजनीतिक पंडितों का एक वर्ग विलाप सा करता दिखाई दिया। उनके विश्लेषणों से झलक रहा था ,मानो नीतीश कुमार के जाने से इण्डिया के हाथ से आई सत्ता निकल गई है और इण्डिया एक के बाद एक गलतियाँ करता जा रहा है। दूसरे वर्ग ने चुनाव से पहले इसे नीतीश कुमार की कूटनीतिक कामयाबी करार दिया। उसने तो यहाँ तक कहा कि बिहार में बीजेपी को प्राणवायु मिल गई है।यदि नीतीश भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में नहीं आते तो बिहार में पार्टी की मुश्किलें बढ़ जातीं। याने एक राजनीतिक घटना के अनेक रूप दिखाई दे रहे हैं। मुमकिन है कि सारी धारणाएँ सही हों और यह भी संभव है कि एक भी अनुमान सच साबित नहीं हो। कह सकते हैं कि मौजूदा सियासत सिर्फ इस बात के लिए होने लगी है कि कोई दल या गठबंधन सरकार में रहता है अथवा नहीं।सरकार में रहना किसी भी सियासी पार्टी के लिए निश्चित रूप से फ़ायदेमंद होता है। वह जनकल्याण की दिशा में अपनी पार्टी की नीतियों के अनुरूप कार्यक्रम बना सकती है और अपनी पार्टी की वित्तीय स्थिति भी सुधार सकती है।पर यह भी सच है कि बहुदलीय लोकतंत्र में सारे दल तो सरकार नहीं बना सकते।एक पार्टी या गठबंधन को तो प्रतिपक्ष के कर्तव्य का निर्वहन करना ही होता है।इस तथ्य को जानते हुए भी पार्टियाँ सत्ता हथियाने के लिए एड़ी चोटी का ज़ोर लगा देती हैं।
बहस का बिंदु यहीं से प्रारंभ होता है। जितनी आया राम - गयाराम की स्थिति भारत में बनती है ,संसार के किसी अन्य लोकतांत्रिक देश में नहीं दिखाई देती।अपवादों को छोड़ दें तो अमेरिका और यूरोप के अनेक देशों में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकारें अपना कार्यकाल पूरा करती हैं। चुनाव में बहुमत नहीं मिलने पर विरोधी दल सरकार बनाने वाली पार्टी के पीछे नहीं पड़ जाते और न ही निर्वाचित प्रतिनिधियों की ख़रीद फ़रोख़्त का सिलसिला शुरू होता है।सत्ता हथियाने की मंडी भारत में चौबीस घंटे खुली रहती है। अब तो पॉलिटिकल पार्टियाँ चुनाव संपन्न होते ही पराजय को भूलकर इस जुगाड़ में लग जाती हैं कि क्या वे जनादेश नहीं होते हुए भी सरकार बना सकती हैं। इसीलिए हम पाते हैं कि बहुमत छूने वाली राजनीतिक पार्टी भी कभी कभी सत्ता से दूर रह जाती है और पराजित दल आपस में मिलकर सरकार बनाने का दावा पेश कर देते हैं। यह ताज्जुब की बात है कि मुल्क के मतदाता भी इसे ख़ामोशी से देखते रहते हैं और अपने अधिकार के अपमान पर भी कुछ नहीं बोलते।
वास्तव में किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र में यही बेहतर होता है कि जिस दल या गठबंधन को बहुमत नहीं मिले ,वह प्रतिपक्ष में बैठे और अगले चुनाव आने का इंतज़ार करे। इस दरम्यान वह ज़िम्मेदार विपक्ष की भूमिका का निर्वाह करे। क्या कोई लोकतंत्र विपक्ष के बिना चल सकता है ? हम किसी भी राजनीतिक तंत्र में इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। इतना ही नहीं ,पक्ष और प्रतिपक्ष की ताक़त में अनुपातिक संतुलन होना आवश्यक है।यदि विपक्ष बेहद कमज़ोर है तो वह सरकार या सत्ताधारी पार्टी पर दबाव बनाने में असफल रहता है।दूसरी ओर पक्ष यदि आवश्यकता से अधिक ताक़तवर हो जाए तो उसके भीतर अनेक राजरोग पनपने की आशंकाएँ बढ़ जाती हैं। इनमें भ्रष्टाचार ,भाई भतीजाबाद ,कुनबापरस्ती ,अधिनायकवादी प्रवृतियों के उभरने जैसी अनेक बीमारियाँ शामिल हैं। मान लीजिए प्रजातंत्र की गाड़ी का एक पहिया ट्रैक्टर का हो और दूसरा साइकल का हो तो वह स्थिति बहुत अच्छी नहीं मानी जाएगी।दुर्बल और दीनहीन प्रतिपक्ष प्रजातंत्र में किसी काम का नहीं है। ऐसे में यह बात कोई मायने नहीं रखती कि नीतीश कुमार के जाने या आने से क्या हो जाएगा। महत्वपूर्ण यह है कि मौजूदा भारतीय राजनीति की लोकतान्त्रिक सेहत पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
पिछले दिनों जिस तरह से राजनीतिक ध्रुवीकरण हुआ था ,उससे यह आशा बंधी थी कि अब भारतीय लोकतंत्र में सियासत के दो वैचारिक ध्रुव बन रहे हैं। एक भारतीय जनता पार्टी की वैचारिक धारा का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा कांग्रेस की विचार शैली के साथ है।भारतीय राजनीति में यह स्थिति पहली बार बनी थी। यह ठीक ठाक सी स्थिति थी।लेकिन अब गठबंधनों का वैचारिक आधार खिसकता दिखाई दे रहा है। नेताओं और दलों के अपने हित गठबंधन पर हावी हो रहे हैं। गठबंधन में शामिल पार्टियाँ विपक्ष में रहना पसंद ही नहीं करतीं। यह अनेक आशंकाओं को जन्म देती है। उधर , जब मतदाताओं को आभास होने लगता है कि उसके वोट का सैद्धांतिक उपयोग नहीं हो रहा है,उसकी उपेक्षा हो रही है तो वह अपमानित और ठगा हुआ महसूस करता है। एक वोट का दुरूपयोग केवल सत्ता की मलाई खाने के लिए हो या फिर किसी को सत्ता से उतारने के लिए हो रहा हो तो उसे कोई भी अच्छा नहीं मानेगा। भारतीय राजनीतिक दलों को समझना होगा कि आज का मतदाता चालीस -पचास साल पहले का मतदाता नहीं रहा है। अब वह अधिक जागरूक और ज़िम्मेदार है। वह जानता है कि जिन प्रतिनिधियों को वह लोकतांत्रिक पद्धति से चुनकर भेज रहा है ,वे असल में जनतांत्रिक आधारों पर नहीं टिके हैं। उनके प्रादेशिक और क्षेत्रीय दल भी सामंती मिजाज़ से काम कर रहे हैं तो उसका मोहभंग स्वाभाविक है। इस मोहभंग में छिपी चेतावनी भी राजनीतिक पार्टियों और नुमाइंदों को ध्यान में रखनी चाहिए।