राजेश बादल
पाकिस्तान की शाहबाज़ शरीफ सरकार को अंततः इमरान खान और उनके समर्थकों से संवाद के लिए तैयार होना पड़ा।उनकी पार्टी पाकिस्तान तहरीक़े इंसाफ़ को अपने आंदोलन में जिस तरह जनता का व्यापक सहयोग मिल रहा था,वह सत्तारूढ़ गठबंधन के लिए चिंता का सबब बनता जा रहा था। हालाँकि इमरान ख़ान के पार्टी कार्यकर्ताओं के दमन का उसने कोई अवसर नहीं छोड़ा था।फ़ौजी हुकूमत के इशारे पर इमरान सरकार का पतन तथा शाहबाज़ शरीफ़ की सरकार बनने के बाद ही पक्ष और प्रतिपक्ष के बीच संवाद का सिलसिला टूट गया था।इसके बाद इमरान ख़ान को जब जेल में डाला गया तो उनकी पार्टी और भड़क उठी थी।तबसे राष्ट्र की जनता भी लगातार इमरान का साथ दे रही थी।पर,सचाई तो यही है कि दोनों पक्ष थकने लगे थे और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार की छबि अलोकतांत्रिक तथा सेना के साए में काम करने वाली कठपुतली सरकार की बनती जा रही थी।सोमवार को राष्ट्रीय असेंबली के स्पीकर अयाज़ सादिक़ ने चर्चा के लिए सरकारी समिति का ऐलान किया।समिति में प्रधानमंत्री के राजनीतिक सलाह कार राणा सनाउल्लाह खान,विदेशमंत्री मोहम्मद इशाक डार और पाकिस्तान तहरीक़े इन्साफ के कार्यकारी अध्यक्ष बैरिस्टर गौहर अली खान सदस्य के तौर पर शामिल हैं।इमरान की ग़ैर मौजूदगी में गौहर अली ख़ान ने पार्टी के आंदोलन का शानदार नेतृत्व किया है और इमरान ने उन्हें सभी फ़ैसलों के लिए अधिकृत किया है।गौहर ने दो दिन पहले ही बयान दिया था कि सरकार और विपक्ष के बीच बातचीत के ज़रिए ही समाधान निकल सकता है।यह इस बात का सुबूत है कि इमरान का दल अब नरम रुख अपना रहा है।इसका एक कारण यह भी था कि कुछ समय पहले इमरान ने पार्टी के राजनीतिक कैदियों की रिहाई और पिछले साल के सियासी घटनाक्रम की जाँच के लिए न्यायिक आयोग के गठन की माँग की थी।उन्होंने कहा था कि 14 दिसंबर से देश भर में सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा जाएगा।इस आंदोलन को जनता का समर्थन तो मिला,लेकिन यह स्पष्ट हो गया कि आने वाले दिन इमरान के लिए भी मुश्किल भरे होंगे।क्योंकि आंदोलन में निरंतर साथ देने वाले लोगों को सताने का सिलसिला भी तेज़ हो गया था। इसे देखते हुए ही इमरान और गौहर अली ख़ान ने अपने तेवर ठंडे किए।
सूत्रों की मानें तो राष्ट्रीय असेंबली के अध्यक्ष अयाज़ सादिक़ ने परदे के पीछे से भूमिका निभाई है और गौहर को बातचीत की मेज़ पर लाने का काम किया।इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ को मनाया।इसके अलावा उन्होंने सैनिक नेतृत्व को समझाया कि विपक्ष के लगातार उत्पीड़न से मुल्क़ की साख़ को बट्टा लगा है।उन्होंने बांग्लादेश का उदाहरण दिया कि प्रधानमंत्री शेख हसीना ने विपक्ष की नेता और पूर्व प्रधानमंत्री ख़ालिदा जिया को लगातार क़ैद में रखा।इससे उनकी छबि बिगड़ी और अवाम के भीतर असंतोष बढ़ता गया था।परिणाम यह कि शेख़ हसीना को तख्तापलट का सामना करना पड़ा।सूत्र बताते हैं कि शाहबाज़ शरीफ़ बेमन से माने।वे इमरान की पार्टी पर प्रतिबन्ध लगाने के पक्ष में थे।बलूचिस्तान असेंबली इमरान की पार्टी पर बंदिश लगाने का प्रस्ताव पारित कर चुकी थी और पंजाब विधानसभा में भी इसी किस्म का प्रस्ताव लाया गया।इसके बाद शाहबाज़ सरकार को समर्थन दे रही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने प्रतिबन्ध के प्रस्ताव का विरोध किया।पीपुल्स पार्टी ने कहा कि इमरान की पार्टी को बतौर मुख्य विपक्षी दल के रूप में अवसर मिलना चाहिए।प्रतिबन्ध लगाने से आम जनता भड़क सकती है तथा पाकिस्तान की छबि पर भी आँच आएगी।पंजाब पीपुल्स पार्टी के महासचिव सैयद हसन मुर्तजा ने कहा कि उनकी पार्टी पीटीआई पर प्रतिबंध के पक्ष में नहीं हैं,बल्कि,सरकार को पीटीआई को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाने की पहल करनी चाहिए।मुर्तजा ने पत्रकारों से कहा था कि पीटीआई पर प्रतिबंध के संबंध में कोई चर्चा नहीं हुई है।जब वे हमसे संपर्क करेंगे,तो हम कोई विचार करके ही निर्णय लेंगे। उन्होंने दोहराया कि सरकार को नकारात्मक रुख़ छोड़ना चाहिए। इससे पहले तक शाहबाज़ शरीफ़ अड़े हुए थे।उन्होंने कैबिनेट बैठक में कहा कि पीटीआई के आंदोलन और राजधानी इस्लामाबाद में अराजकता ने पाकिस्तान की छवि को धूमिल किया है।इसके बाद शाहबाज़ शरीफ को असेंबली अध्यक्ष अयाज़ सादिक़ ने मनाया।
दरअसल शाहबाज़ शरीफ़ का रवैया कुछ दिनों से बदला हुआ है।वे सेना के इशारे पर न केवल प्रतिपक्ष,बल्कि पत्रकारों को लेकर भी सख़्त होते जा रहे हैं।इस साल प्रधानमंत्री ने अभिव्यक्ति की आज़ादी को कुचलने का कोई अवसर नहीं छोड़ा।इस साल पाकिस्तान में 7 पत्रकारों ने आज़ाद पत्रकारिता के लिए संघर्ष करते हुए जान गँवाई है।कई टीवी एंकर्स फ़र्ज़ी मामलों में जेल के भीतर हैं। डेढ़ सौ से ज़्यादा पत्रकारों और डिज़िटल अवतारों पर राय रखने वालों के ख़िलाफ़ मुक़दमे चल रहे हैं।इनमें मुल्क़ के इकलौते सिख पत्रकार हरमीत सिंह भी हैं।डिजिटल मंचों पर भी ऐसी ही सख्ती बरती जा रही है।इंस्टाग्राम और व्हाटसअप जैसे माध्यम तक फौजी निगरानी में हैं।विडंबना यह कि जिस पोस्ट या सूचना को सरकार ग़लत मानती है,उससे जुड़े पत्रकार अथवा आम नागरिक को पाँच साल की क़ैद और दस लाख रूपए का जुर्माना लगाने का फ़रमान जारी कर सकती है।पाकिस्तान के वरिष्ठ पत्रकार हामिद मीर ने बीते दिनों सरकार को चेतावनी तक दे डाली थी।उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र स्वतंत्र मीडिया के बिना ज़िंदा नहीं रह सकता।अगर लोकतंत्र मर गया तो पाकिस्तान का ज़िंदा रहना मुश्किल हो जाएगा।तानाशाह जनरल याह्या ख़ान ने बंगालियों का अलग देश बनवा दिया था।आज नक़ली लोकतंत्र पश्तूनों और बलूचों को अलग थलग कर रहा है।हामिद मीर के मुताबिक़ कि सेंसरशिप लोकतंत्र के लिए ज़हर है।मैंने ख़ुद देशद्रोह से लेकर ईशनिंदा तक के मुक़दमों का सामना किया है।फ़र्ज़ी ख़बरों से लड़ने के लिए तो मैं स्वयं तैयार हूँ।लेकिन मैं अपनी आज़ादी किसी भी ख़ुफ़िया एजेंसी को नहीं सौंपूँगा ,जो सियासत में दख़ल देकर पहले से ही संविधान का उल्लंघन कर रही है।