राजेश बादल
पाँच विधानसभाओं के परिणाम सामने हैं।प्रतिपक्ष की निर्बल काया जीतोड़ मेहनत के बाद एक बार फिर चुनावी मंच पर उपस्थित है।पिछले आम चुनाव में कांग्रेस ही नहीं,समूचे विपक्षी दल अपने कुपोषित चेहरे को लेकर सामने आए थे।ज़ाहिर है कि चार वर्षों में किसी पार्टी ने कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं किया है।बंगाल में ममता बनर्जी,हिमाचल और कर्नाटक में कांग्रेस तथा पंजाब में आम आदमी पार्टी ने ताक़त बढ़ाई है।बंगाल में ममता बनर्जी ने जब आकाश पाताल एक किया,तब कहीं वे तृण मूल कांग्रेस का क़िला बचा पाईं,लेकिन पंजाब में कांग्रेस यह करिश्मा नहीं कर सकी।उसने अपनी ग़लतियों से आम आदमी पार्टी को उपहार में सत्ता दे दी।अलबत्ता वह बीजेपी से हिमाचल और कर्नाटक तथा तेलंगाना में भारतीय राष्ट्र समिति से सरकारें छीनने में क़ामयाब रही।लेकिन वह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपने मज़बूत क़िले गँवा बैठी।इन सबका क्या सन्देश और संकेत है ? स्वस्थ्य लोकतांत्रिक परंपरा तो यही कहती है कि निर्वाचित सरकारों को बदबूदार पोखरों की शक्ल में नहीं,बल्कि बहती हुई नदी के निर्मल पानी की बहती हुई धारा के समान होना चाहिए।इस नज़रिए से राजस्थान ने पच्चीस बरस से हर चुनाव में पार्टी को बदल देने की परंपरा बना ली है।जब किसी राज्य या केंद्र सरकार को केवल पाँच साल के लिए हुक़ूमत मिलती है तो उसमें काम करने की जिजीविषा बनी रहती है,भ्रष्टाचार कम होता है और चुनाव जीतने के लिए अनैतिक रास्ते नहीं अपनाए जाते।दूसरी ओर विपक्ष को भरोसा रहता है कि उसे अगली बार सत्ता संभालनी है इसलिए वह अपने कार्यक्रमों और नीतियों की धार निरंतर तेज़ रखता है। यही एक संवैधानिक लोकतंत्र की परंपरा है।इस परंपरा में विपक्ष और पक्ष के बीच कोई बहुत अधिक फ़ासला नहीं रहता।दोनों एक गाड़ी के पहिए हैं।मगर यदि पक्ष के पहिए का आकार ट्रैक्टर के आकार के बराबर हो और प्रतिपक्ष के पहिए का आकार किसी स्कूटर के पहिए के बराबर हो तो फिर जम्हूरियत की गाड़ी का ईश्वर ही मालिक है। अब ऐसे में पक्ष तो कभी नहीं चाहेगा कि विपक्ष के पहिए का आकार बड़ा होता रहे और सशक्त प्रतिपक्ष उसके लिए हरदम मुसीबत कड़ी करता रहे। इसीलिए वह प्रतिपक्ष को दुर्बल ,निर्बल और बारीक़ बनाए रखने के लिए निरंतर कोशिशें या प्रपंच करता रहता है। बीते दो -तीन चुनावों से उसके यह प्रयास क़ामयाब होते रहे हैं।
तो पक्ष की इन तिकड़मों के मुक़ाबले के लिए आज का विपक्ष कितना तैयार है ?वह चुनाव दर चुनाव अपना बिखरता हुआ जनाधार कैसे एकत्रित करेगा और क्या उसके लिए हालिया चुनाव कोई गंभीर सन्देश ,संकेत या चेतावनी देते हैं।यक़ीनन सबसे बड़ा विपक्षी दल होने के नाते कांग्रेस को गहरा आघात लगा है।नतीज़े कहते हैं कि छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश में आमने सामने का मुक़ाबला था और भारतीय जनता पार्टी तथा कांग्रेस क़रीब क़रीब चालीस फ़ीसदी वोटों के ढेर पर बैठी थी। इन प्रदेशों में सिर्फ़ दो -चार प्रतिशत मतों के अंतर पर हार जीत होती है।ऐसे में कांग्रेस ने इतना छोटा फ़ासला घटाने के प्रयास क्यों नहीं किए ? कांग्रेस जानती थी कि थोड़े समय पहले ही इण्डिया नाम से एक गठबंधन का एक ताक़तवर चेहरा बना है। इस गठबंधन में शामिल सभी पार्टियों की निग़ाहें उस पर लगीं हैं। लेकिन शायद कांग्रेस का स्थानीय नेतृत्व ही अपने आप में गंभीर नहीं था। उसने पंजाब,गुजरात और उत्तरप्रदेश जैसे प्रदेशों में हार से सबक़ नहीं सीख़ा क्योंकि कमोबेश उन राज्यों में हार के जो कारण हैं, मध्यप्रदेश ,छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भी वही वजहें हैं।उम्मीदवारों के चुनाव में ग़लतियाँ और तीनों क्षत्रपों कमलनाथ,अशोक गेहलोत और भूपेश बघेल पर ज़रुरत से ज़्यादा निर्भरता इसका बड़ा कारण है।इसके अलावा भले ही दो - चार फ़ीसदी मत बहुजन समाज पार्टी ,समाजवादी पार्टी,आम आदमी पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के रहे हों ,कांग्रेस को उनकी उपेक्षा करने का अधिकार नहीं था। ख़ासतौर पर उस स्थिति में ,जबकि वे दल कांग्रेस के साथ मिलकर काम करना चाहते थे। पर,कांग्रेस के स्थानीय क्षत्रपोँ ने उनकी अपमान करने की हद तक उपेक्षा की।बदले में उन्होंने कांग्रेस को हार सौंप दी।
दरअसल ,कांग्रेस में पर्याप्त शोध और मुद्दों के बारे में ज़मीनी अध्ययन की कमी भी पार्टी की देह में बीमारी की तरह फ़ैल गई है। संगठन की गाँव गाँव में काम कर रहीं इकाइयाँ अब नज़र नहीं आतीं।कांग्रेस सेवा दल ,युवा कांग्रेस,महिला कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन जैसे पार्टी के आनुषंगिक संगठन आज भारतीय जनता पार्टी के आवरण में छिपे दिखाई देते हैं।अध्ययन के लिए यह एक दिलचस्प आँकड़ा हो सकता है कि जब 1980 में भारतीय जनता पार्टी का गठन हुआ ,तब उसका मतदाता प्रतिशत दस से पंद्रह प्रतिशत के बीच था और कांग्रेस का मत प्रतिशत लगभग चालीस से पैंतालीस फ़ीसदी था।इसके बाद साल दर साल चुनाव होते रहे और भारतीय जनता पार्टी धीरे धीरे अपना जनाधार बढ़ाती रही।आज उसका मत प्रतिशत चालीस फ़ीसदी से ऊपर है। दूसरी तरफ़ कांग्रेस तैंतालीस साल पहले के जनाधार पर ठहरी हुई है।आज भी उसका मत प्रतिशत चालीस - बयालीस पर ही ठहरा हुआ है। यह सवाल पूछा जा सकता है कि जब बीजेपी अपना नया जनाधार 1980 से क़रीब तीस प्रतिशत बढ़ा सकती है तो कांग्रेस में ऐसा क्या हुआ ,जो वह आधी सदी के बाद भी मतों के उसी चार दशक पुराने ढेर पर बैठी हुई है।आत्ममंथन के लिए कांग्रेस को यहाँ से एक बिंदु मिलता है। यदि लोकसभा चुनाव में प्रतिपक्ष को अपने पहिए का आकार बड़ा करना है और इंडिया की अगुआई करना है तो उसे अपने मतों का ढेर ऊँचा करना होगा।उसे सहयोगी दलों को दादागीरी के साथ नहीं ,समान व्यवहार से जोड़ कर रखना होगा। मध्यप्रदेश के चुनाव में इंडिया के सहयोगी दल कमलनाथ से चुनाव पूर्व समझौते के लिए अनुरोध करते रहे ,लेकिन कमलनाथ ने उन्हें कोई अहमियत दी। गोंडवाना गणतंत्र पार्टी सहयोग चाहती थी। कांग्रेस ने उन्हें महत्त्व नहीं दिया। विंध्य जनता पार्टी तभी बनी ,जब उसके मुखिया को कांग्रेस ने टिकट देने से इंकार कर दिया।संसार की एक पुरानी पार्टी कांग्रेस के लिए यह कोई शुभ संकेत नहीं है।