-विजयदत्त श्रीधर-
भाषा केवल संवाद और अभिव्यक्ति का माध्यम नहीं है। किसी भी समाज की संस्कृति की संवाहक होती है भाषा। यह मनुष्य को जड़ों से जोड़ने का दायित्व निभाती है। मनुष्य को स्वयं को पहचानने और परिभाषित करने का माध्यम होती है। भाषा का प्रश्न राष्ट्र की अस्मिता का भी है। महात्मा गांधी ने भाषा के संबंध में स्पष्टोक्ति की है-‘‘जिस राष्ट्र की अपनी कोई भाषा नहीं होती, वह राष्ट्र गूँगा होता है।’’ मूर्धन्य संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी का मत और अधिक मुखर एवं प्रखर रहा है- ‘‘मुझे देश की आजादी और भाषा की आजादी में से किसी एक को चुनना पड़े तो मैं निस्संकोच भाषा की आजादी चुनूँगा। देश की आजादी के बावजूद भाषा की गुलामी रह सकती है, लेकिन अगर भाषा आजाद हुई तो देश गुलाम नहीं रह सकता।’’
भाषा के संदर्भ में व्यापक परिप्रेक्ष्य में विचार करना अधिक उपयुक्त रहेगा। ये परिप्रेक्ष्य हैं- मातृभाषा, राष्ट्रभाषा और राजभाषा। वस्तुतः एक हजार से अधिक भाषाएँ जिस भारत की संस्कृति को विशिष्ट बनाती हैं, उसे भाषायी स्वराज की सर्वाधिक आवश्यकता है। क्योंकि अंग्रेजी की गुलामी ने भारतीय मानस को मर्माहत कर रखा है, हीन भावना से भरा है। स्वत्व और स्वाभिमान को खण्डित किया है। जब तक भारत में भाषायी स्वराज अस्तित्व में नहीं आता तब तक स्वाधीनता को संपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
जिन तीन परिप्रेक्ष्य का उल्लेख मैंने किया है, उनसे पहले इस समय देश के कुछ राज्यों में हिन्दी की जगह अंग्रेजी को स्थान देकर जो विषम स्थिति पैदा की गई है, उसकी चर्चा करना आवश्यक लगता है। यह स्थिति दुखद है कि आजादी के इतने वर्षों बाद भी, जब हम भारतीय भाषाओं के उत्थान और राजकीय कार्यों में उनके उपयोग के प्रयास करते रहे हैं, देश के चार राज्यों ने विदेशी भाषा अंग्रेजी को अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में बनाए रखा है। ये राज्य- अरुणाचल, मेघालय, नगालैंड और सिक्किम हैं। तमिलनाडु, जहाँ राजनीतिक कारणों से हिन्दी विरोधी आंदोलन होते हैं, उसने तमिल को तो अपनी राजभाषा बनाया, किंतु उसकी दूसरी आधिकारिक भाषा अंग्रेजी है। तमिलनाडु तीसरी भाषा के रूप में हिन्दी को स्वीकार नहीं करना चाहता। मणिपुर ने मैतेयी अथवा मणिपुरी को अपनी प्रथम भाषा बनाया लेकिन दूसरे स्थान पर अंग्रेजी को रखा है। यही ओडिशा ने भी किया है, जहाँ पहली भाषा ओडिया तो दूसरी अंग्रेजी है। खेद की बात यह है कि हिमाचल प्रदेश और राजस्थान जैसे हिन्दी भाषी राज्यों ने हिन्दी को तो प्रथम आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाया है परंतु यहाँ भी दूसरी भाषा के रूप में किसी अन्य भारतीय भाषा की जगह अंग्रेजी को बैठाया गया है। मिजोरम ने अपनी आधिकारिक भाषाओं में मिजो और अंग्रेजी के साथ हिन्दी को भी स्थान दिया है।
राजभाषा
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में प्रावधान किया गया है- ‘‘देवनागरी में लिखित हिन्दी भारतीय संघ की राजभाषा होगी और संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय होगा।’’ भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को प्रभावशील हुआ। इसमें हिन्दी को राजभाषा की मान्यता प्रदान की गई। परंतु 15 वर्ष तक अंग्रेजी में भी राज-काज चलाते रहने का प्रावधान किया गया। वस्तुतः संकल्प का विकल्प नहीं होता। परंतु हिन्दी को राजभाषा की मान्यता प्रदान करने के संकल्प का विकल्प अंग्रेजी के रूप में बनाए रखा गया। यह स्वीकार करने में कतई संकोच नहीं होना चाहिए कि अंग्रेजी के विकल्प ने हिन्दी के संकल्प को कमजोर किया और एक सीमा तक अर्थहीन भी बनाया। मूल संकल्प के अनुसार सन् 1965 में भारत को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति मिल जानी थी। परंतु इसके पहले ही राजभाषा हिन्दी राजनीतिक षड्यंत्रों का शिकार हो गई। तमिलनाडु में उठे विरोध के बवंडर में संविधान सभा के सदस्यों की भावनाएँ और संकल्प ढह गए। हिंसक विरोध और राजनीतिक स्वार्थों के दबाव में राजभाषा अधिनियम में संशोधन कर दिया गया। संशोधित अधिनियम में यह प्रावधान किया गया कि ‘‘संविधान के प्रारंभ से पन्द्रह वर्ष की कालावधि समाप्त होने के बाद भी संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए और संसद में कार्य के संव्यवहार के लिए हिन्दी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा प्रयोग में लाई जाती रहेगी।’’ व्यवहार में इन संशोधनों का परिणाम यह निकला है कि अंग्रेजी ही राजकाज, संसदीय व्यवहार और न्यायालय की मुख्य भाषा बनी हुई है।
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास और वर्चस्व के युग में अंग्रेजी रोजगार की भाषा के रूप में भी सशक्त हुई है। अंग्रेजियत भरी मानसिकता के कारण हिन्दी के विकास की दिशा में ठोस कदम नहीं उठ पा रहे हैं। भविष्य पर तो यह संकट भी मँडरा रहा है कि नई पीढ़ियाँ भारत, भारतीयता, भारतीय संस्कृति और परंपराओं से कटकर न रह जाएँ। हिन्दीतर भाषी राज्यों के साथ-साथ हिन्दी राज्य भी अंग्रेजी वर्चस्व के बहाव में बह रहे हैं। अंग्रेजी को ज्ञान का पर्याय मान लिया गया है। अंग्रेजी रोजगार के लिए भी अनिवार्य मानी जाती है। सत्ता के प्रभाव में अंग्रेजी रौब-दाब की भाषा बनी हुई है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति (वर्ष 2020) में मातृभाषा और हिन्दी भाषा विषयक प्रावधान के विरोध में अंग्रेजी गुलामी की मानसिकता ने जैसे प्रहार और प्रतिरोध किए, उन्हें स्वतंत्रता के 77 वर्ष और भारत का संविधान लागू होने के 75 वर्ष की कालावधि के बाद भी सर्वथा नकारात्मक ही माना जाएगा। परंतु भाषा का सवाल विधान और नियमों के सहारे हल नहीं किया जा सकता। इसके लिए सामाजिक पहल, जागरूक नागरिक चेतना, राष्ट्रीय स्वाभिमान और स्वराज के संकल्प की आवश्यकता है। उसका स्वरूप भी बहुआयामी होना चाहिए। हिन्दी साहित्य सम्मेलन इस दिशा में युगांतरकारी अनुष्ठान का मंच सिद्ध हो सकता है।
मातृभाषा/लोकभाषा
हम मध्यप्रदेश में इस दिशा में कुछ पहल और प्रयास कर रहे हैं और वह है भारतीय भाषा सत्याग्रह। इसमें पहले स्थान पर मातृभाषा को रखा गया है। महात्मा गांधी और सभी शिक्षा आयोगों का स्पष्ट मत रहा है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही दी जानी चाहिए। पराई भाषा में शिक्षा देना नौनिहालों पर अत्याचार है। बच्चे जो भाषा माता-पिता, परिजनों और समाज से सीखते हैं उसी में शिक्षा देना सीखने का सबसे सुचारु माध्यम है।
हिन्दी राज्यों के संदर्भ में यह तथ्य रेखांकित किया जाना चाहिए कि उनके जनपदों में लोकभाषाएँ विद्यमान हैं। हमारा आशय भोजपुरी, बृज, अवधी, कौरवी, बुंदेली, बघेली, मालवी, निमाड़ी, राजस्थानी, छत्तीसगढ़ी, कुमाऊँनी, गढ़वाली, हिमाचली, हरियाणवी आदि लोकभाषाओं से है। इनकी समृद्ध संस्कृति और प्रचुर साहित्य है। इन लोकभाषाओं के श्रेष्ठ साहित्य ने हिन्दी का कलेवर परिपूर्ण किया है। सूर, तुलसी, मीरा, जायसी, प्रभृति हिन्दी साहित्याकाश के जगमग सितारे मूलतः अपने जनपद की लोकभाषा के महान साहित्यकार हैं। अपने-अपने अंचल में इन लोकभाषाओं का प्रचलन बना रहे और उनसे हिन्दी का साहित्य भण्डार भरता रहे, यह समन्वित सोच हिन्दी की आवश्यकता है। सभी लोकभाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन पर ध्यान दिया जाए।
भारतीय भाषाएँ
मातृभाषा के पश्चात हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं का स्थान आता है। भारत भाषायी बहुलता वाला राष्ट्र है। देश के 10 राज्य- उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और दिल्ली हिन्दी भाषी राज्य हैं। गुजरात में गुजराती, महाराष्ट्र में मराठी, पंजाब में पंजाबी, तमिलनाडु में तमिल, कर्नाटक में कन्नड, केरल में मलयालम, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में तेलुगु, ओडिशा में ओडिया, पश्चिम बंगाल में बांग्ला, असम में असमिया, जम्मू-कश्मीर में डोगरी और कश्मीरी, गोवा में कोंकणी, मणिपुर में मणिपुरी आदि भाषाएँ अष्ठम अनुसूची में सम्मिलित हैं। इस सूची में संस्कृत, नेपाली, बोडो, सिंधी, संथाली, उर्दू और मैथिली का भी समावेश है। व्यावहारिक और राष्ट्रहितैषी भाषानीति तो यही हो सकती है कि हिन्दी भाषी राज्यों में राजकाज, शिक्षा और न्यायालय की भाषा केवल हिन्दी हो। अन्य राज्यों में, जिस राज्य की जो भाषा है उसी में समस्त कामकाज किया जाए। तात्पर्य यह कि राजकाज, शिक्षा और न्यायालय में अंग्रेजी का प्रभुत्व ही नहीं, अपितु प्रचलन भी नहीं होना चाहिए। दो टूक और सच्चा सिद्धांत यह है कि जिस जनता की खून-पसीने की कमाई से राज्य का खजाना भरता है और कामकाज चलता है; उसमें अन्नदाता का दर्जा जनता का होता है। बाकी सब सेवक की श्रेणी में आते हैं। ऐसी स्थिति में उस भाषा का प्रचलन जो एक-दो प्रतिशत लोगों को छोड़कर, अधिकांश जनता को नहीं आती हो, किसी भी रूप में लोकतांत्रिक मान्यता और नैतिकता की दृष्टि से उचित नहीं है। स्वीकार्य भी नहीं होना चाहिए।
सामंजस्य और समन्वय
अब सवाल आता है भारत की विभिन्न भाषाओं के बीच सामंजस्य और समन्वय का। यह परस्पर सौहार्द्र और आदान-प्रदान के माध्यम से सुचारु हो सकता है। इसमें सबसे बड़ा दायित्व और भूमिका हिन्दी की है। समूचा देश हिन्दी को अपनाए और हिन्दी वाले अन्य भारतीय भाषाओं को अपनाने में रुचि न लें, तब सौहार्द्र कदापि संभव नहीं। अंग्रेजी साम्राज्यवाद के स्थान पर हिन्दी साम्राज्यवाद का राजनीति प्रेरित आक्षेप भी ध्वस्त नहीं किया जा सकता। आवश्यक हो जाता है कि हिन्दी भाषी राज्यों के शासकीय विश्वविद्यालयों में किसी एक (हिन्दीतर) भारतीय भाषा के अध्ययन-अध्यापन का प्रावधान किया जाए। इन भाषाओं के लिए संबंधित भाषा के सर्वमान्य/बहुप्रतिष्ठित साहित्यकार के नाम से पीठ स्थापित की जानी चाहिए। डिप्लोमा और उपाधिस्तर के पाठ्यक्रम अनुवाद जैसे रोजगार के नए अवसर उपजा सकते हैं। अधिक महत्वपूर्ण यह कि हिन्दी भाषी राज्यों की ओर से अन्य भारतीय भाषाओं के लोगों तक अपनेपन का संदेश पहुँचेगा। भाषायी सौहार्द्र बढ़ेगा जो अंततः राष्ट्रीय एकता की महत्वपूर्ण कड़ी सिद्ध होगा। हिन्दी राज्यों में विश्वविद्यालय स्तर तक शिक्षा का माध्यम हिन्दी ही हो। माध्यमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक पूरे देश में हिन्दी का पठन-पाठन हो।
भारतीय भाषाओं के बीच शब्दों का आदान-प्रदान बढ़ना चाहिए। हिन्दी को अपना शब्द भण्डार बढ़ाने के लिए अन्य भारतीय भाषाओं से उपयुक्त शब्द ग्रहण करना चाहिए। इसी तरह अन्य भारतीय भाषाएँ भी हिन्दी से शब्द ग्रहण करें। संस्कृत के शब्द तो लगभग सभी भारतीय भाषाओं में प्रचलित हैं। हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच अनुवाद के माध्यम से उत्कृष्ट साहित्य का आदान-प्रदान बढ़े। बांग्ला, मराठी, गुजराती एवं अन्य भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ पुस्तकों का हिन्दी में अनुवाद हुआ है और वे वृहत् हिन्दी पाठक समाज तक पहुँची भी हैं। बींसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान, नवनीत, सारिका, कल्पना आदि हिन्दी की बहु प्रसारित पत्रिकाओं ने अन्य भारतीय भाषाओं के अनेक साहित्यकारों की रचनाओं का से हिन्दी भाषियों को आस्वादन कराया है। पहले सरस्वती, विशाल भारत, माधुरी आदि पत्रिकाएँ यह काम करती रही हैं। विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों के पुस्तकालयों में सभी भारतीय भाषाओं की श्रेष्ठ पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद संजोया जाना चाहिए। इन ग्रंथों के आधार पर विद्यार्थियों के लिए विविध प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाएँ और विजेताओं को समुचित पुरस्कार प्रदान किए जाएँ।
राज्यों में त्रिभाषा सूत्र का निष्ठापूर्वक पालन आवश्यक है। हिन्दी राज्यों में दूसरी भाषा के रूप में किसी अन्य भारतीय भाषा को सम्मिलित किया जाए और अन्य भारतीय भाषाओं वाले राज्यों में हिन्दी दूसरी भाषा हो ।
रहा सवाल ज्ञान-विज्ञान की भाषा का, उसका इकलौता दारोमदार अंग्रेजी पर नहीं हो सकता। अंग्रेजी के अलावा फ्रेंच, जर्मन, जापानी, रूसी, स्पेनिश, मंदारिन आदि भाषाएँ भी ज्ञान-विज्ञान का माध्यम हो सकती हैं। लेकिन विदेशी भाषाओं का दर्जा ‘स्क्लि’ के रूप में ही स्वीकार किया जा सकता है। विदेशों में रोजगार के अभिलाषियों के लिए विदेशी भाषा का ज्ञान सहायक होता है। यह शिक्षार्थियों पर छोड़ दिया जाए कि वे किस विदेशी भाषा के माध्यम से अपना ज्ञान बढ़ाना चाहते हैं। ये उन्नत भाषाएँ जिन देशों की हैं उन्होंने प्रगति के लिए अंग्रेजी का प्रभुत्व नहीं स्वीकारा। परंतु प्रगति में वे अंग्रेजी वाले देशों से कतई पीछे नहीं हैं।
हिन्दी को राष्ट्रभाषा जिन्होंने निरूपित किया, उनकी मातृभाषा हिन्दी नहीं थी
हिन्दी वालों को यह तथ्य हृदयंगम करना आवश्यक है कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा की लोकमान्यता नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन के दौरान मिली। इसका श्रेय भी उन महापुरुषों को जाता है जो मूलतः हिन्दी भाषी नहीं थे। स्वामी दयानंद सरस्वती और महात्मा गांधी की मातृभाषा गुजराती थी। रवीन्द्रनाथ टैगोर, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय, केशवचन्द्र सेन, सुभाषचन्द्र बोस की मातृभाषा बांग्ला थी। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की मातृभाषा तमिल थी। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, आचार्य विनोबा भावे, पं. केशव वामन पेठे, विष्णु सखाराम खांडेकर की मातृभाषा मराठी थी। इन सभी का उद्घोष था कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा हो सकती है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक पूरे देश में हिन्दी भाषा के माध्यम से कार्य व्यवहार सहज संभव है। माधवराव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराडकर, लक्ष्मणनारायण गर्दे, सिद्धनाथ माधव आगरकर जैसे मराठी मातृभाषी मनीषियों ने हिन्दी पत्रकारिता को शिक्षर तक पहुँचाया। काका कालेलकर, गुणाकर मुले, जयंत विष्णु नार्लीकर ने हिन्दी लेखन में मानक रचे। कन्नड भाषी नारायण दत्त हिन्दी के सर्वाधिक गुणी संपादक रहे हैं। यह महात्मा गांधी ही थे जिन्होंने सन 1918 में इन्दौर में संपन्न हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्षीय संबोधन में हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित किया था। दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए जो टोली उन्होंने भेजी थी, उसमें देवदास गांधी, स्वामी सत्यदेव, मोटूरि सत्यनारायण, पट्टाभि सीतारामय्या, भालचन्द्र आपटे सदृश भिन्न-भिन्न भाषा-भाषियों का समावेश किया गया था।
हिन्दी का दायित्व
यह प्रकट तथ्य है कि खड़ी बोली हिन्दी के विकास में हिन्दी पत्रकारिता का महत्वपूर्ण योगदान है। हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता ने हिन्दी गद्य का परिमार्जन किया। हिन्दी के शब्द भाण्डार को बढ़ाने में हिन्दी के संपादकों की उल्लेखनीय भूमिका रही है। इस गर्वीली पृष्ठभूमि से उलट वर्तमान हिन्दी पत्रकारिता में जिस तरह अंग्रेजी शब्दों की घुसपैठ की जा रही है, वह सोचनीय है। भाषाओं में दूसरी भाषाओं के शब्दों की आवाजाही स्वाभाविक है। इसे स्वीकार भी किया जाता है। हिन्दी में भी दुनियाभर की भाषाओं के सैकड़ों शब्दों का प्रचलन हुआ है। परंतु उन्हें हिन्दी के रूप-रंग में ही आत्मसात किया गया है।
राजभाषा हिन्दी में प्रशासनिक शब्दावली में एकरूपता के लिए अभी बहुत काम किया जाना है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में जिस भौगोलिक इकाई को ‘संभाग’ कहा जाता है, वह उत्तरप्रदेश में ‘मंडल’ है। यही स्थिति ‘जिले’ की है जिसे उत्तरप्रदेश में ‘जनपद’ कहा जाता है। किसी राज्य में ‘अभियंता’ तो किसी में ‘यंत्री’ शब्द प्रयुक्त होता है। जिलाधीश, जिलाधिकारी भी ऐसे पदनाम हैं। सभी हिन्दी राज्यों में नामावलियों की एकरूपता इसलिए भी जरूरी है ताकि अन्यत्र यह उपहास का विषय न बने।
हिन्दी शिक्षण, विशेष रूप से प्राथमिक और माध्यमिक स्तर पर, उच्चारण और वर्तनी की परिशुद्धता और मानक प्रयोग पर ध्यान केन्द्रित किया जाना चाहिए। शुद्ध वर्तनी से लेखन की गुणवत्ता में अभिवृद्धि होगी। शुद्ध उच्चारण से संभाषण भाषा के दोष से मुक्त होगा। इससे अभिव्यक्ति प्रभावी और आकर्षक होगी। पहले हिन्दी के अध्यापक अपने विद्यार्थियों से शुद्ध वर्तनी और उच्चारण के प्रयोग के लिए नियमित अभ्यास कराते थे। सुलेख पर भी ध्यान दिया जाता था। अब ऐसा नहीं होता।
यहाँ मध्यप्रदेश की 4 अप्रैल, 2018 की ऐतिहासिक परिघटना का उल्लेख विशेष संदर्भ में करना चाहता हूँ। चिंतक, कवि, संपादक ‘एक भारतीय आत्मा’ माखनलाल चतुर्वेदी के जन्मस्थान बाबई का नामकरण ‘माखननगर’ किया गया। दूसरी ओर यह अनुभव पीड़ादायी है कि हिन्दी जगत में इस परिघटना पर गर्व और गौरव की जैसी अनुभूति होनी चाहिए थी, वह दिखी नहीं।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि हिन्दी को उसका अपेक्षित स्थान दिलाने में हिन्दी साहित्य सम्मेलन जैसी संस्थाओं और हिन्दी सेवियों का महत्वपूर्ण योगदान है। सरकारों की ओर देखे बिना यह यत्न किए गए। जन सामान्य के बीच हिन्दी के प्रचार-प्रसार से स्थिति में सुधार हुआ है। आशा है कि हमारे यत्न से सरकारें भी हिन्दी के लिए आगे बढ़ने को प्रेरित होंगी।
अपनी बात का समापन इस आग्रह के साथ करना चाहूँगा-
‘अपनी भाषा पर अभिमान,
सब भाषाओं का हो सम्मान।’
किसी भारत प्रेमी ने अपनी भावना इस तरह व्यक्त की है-
‘अपनी माटी अपना देश,
अपनी भाषा अपना वेश।’
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का आह्वान स्मरण कीजिए-
‘मानस भवन में आर्यजन जिसकी उतारें आरती,
भगवान भारत वर्ष में गूँजे हमारी भारती।’
हम सबका स्वर इस स्वर में मिले और वह भाषा-स्वराज का शंखनाद बने, यही कामना है।
( हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग के 76 वें अधिवेशन, आणंद, में 22 मार्च को ‘राष्ट्रभाषा परिषद’ के अध्यक्षीय संबोधन का संपादित अंश )
(विजयदत्त श्रीधर)
संस्थापक-संयोजक
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