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Added on : 2025-04-29 20:05:24

डॉ. सुधीर सक्सेना 

परकाला प्रभाकर किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य की सुपरिचित शख्सियत हैं। वह जाने-माने राजनीतिक अर्थशास्त्री, लेखक और सामाजिक टिप्पणीकार हैं। उन्हें संजीदगी से पढ़ा और सुना जाता है। उन्होंने जेएनयू, दिल्ली और लंदन स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में अध्ययन किया, सन 2014 से 2018 के दरम्यां आंध्रप्रदेश सरकार के काबीना मंत्री का दर्जा प्राप्त संचार सलाहकार रहे और संप्रति हैदराबाद के राइटफोलियो नामक थिंक टैंक के एमडी हैं। ‘मिडवीक मैटर्स’ उनका लोकप्रिय और प्रतिष्ठित यू ट्यूब चैनल है और वे अपने सुरोकारों के कारण उत्सुकता से सुने जाते हैं। उनकी पत्नी श्रीमती निर्मला सीतारमण भारत की विदेश मंत्री हैं और बेटी परकाला वांग्मयी पत्रकार।

इन्हीं परकाला प्रभाकर की अंग्रेजी में एक किताब आई थी : ‘द क्रुक्ड टिंबर ऑफ न्यू इंडिया। किताबों के शनै: शनै: विलोपित होने के इस दौर में इस किताब की एक साल में 12 हजार प्रतियां बिकी थीं। कह सकते हैं कि इसे लोगों ने हाथों-हाथ लिया था। इसी किताब का हिन्दी अनुवाद हिन्दी के अग्रणी प्रकाशन राजकमल ने ‘नये भारत की दीमक लगी शहतीरें’ शीर्षक से गत वर्ष छापा है। समकाल के ज्वलंत मुद्दों और प्रसंगों से जुड़ी इस दास्तावेजी कृति का अनुवाद किया है जेएनयू में ही शिक्षित वरिष्ठ और सचेत मीडियाकर्मी व्यालोक पाठक ने। 

किताब में संकलित संकटग्रस्त गणराज्य के आलेखों से गुजरना आधुनिक कालखंड् के गुजिश्ता बरसों और वर्तमान दौर से गुजरना है। यह इस पेचीदा और लगभग अनसोचे समय की गलियों, सड़कों और कुल्हियों, ढलानों और चढ़ाइयों, खंड् और शिखरों और राजमार्गों से गुजरना तो है ही, इसमें आगत और अनागत समय की आहटों को बूझने की कोशिश इस बेबाक अंदाज में की गयी है कि सचेत पाठक उन्हें सुन सकता है। करीब ढाई सौ पन्नों की यह किताब हमारे वक्त के पड़ताल की निर्भीक और ईमानदार कोशिश है। बड़ी बात यह है कि परकाला के शब्दकोश में डर या हिचक जैसा कोई शब्द नहीं है। वह साहसपूर्वक अभिव्यक्ति के खतरे उठते हैं। वह लिहाज नहीं बरतते और बहुधा शल्य चिकित्सक या जर्राह नज़र आते हैं। जो कहना होता है, वह दो टूक कहते हैं। एक और अहम बात परकाला को लेखन की यह है कि वह फौरी या तात्कालिक टिप्पणी नहीं करते, बल्कि संदर्भों में धँसते हैं और प्रसंगों के जरिये प्रवृत्तियों की शिनाख्त कर आशंका अथवा संभावना व्यक्त करते हैं। वह चुहलबाजी से परे एक संजीदा लेखक हैं। रसायन की भाषा में कहें तो उनके आलेख परखनली में रासायनिक क्रियाओं के बाद उभरे अवक्षेप की मानिंद हैं, जिनमें घटनायें या इवेन्ट्स उत्प्रेरक व घटकों की भूमिका निभाते हैं। वैसे परकाला की शख्सियत को जानने के लिये संजय बारू की साढ़े पांच पेज की प्रस्तावना बड़ी सूचनाप्रद और प्रभावी है। यह किताब यूं भी सत्य और सत्ता के द्वंद्व का कथानक है। यह किताब सत्ता तक सत्य पहुंचाने की, बिना किसी झिझक या पछतावे के कोशिश का नतीजा है। यहां हमें बरबस महात्मा गांधी याद आते हैं जो दोनों बांह उठाकर न सिर्फ ‘सत्य ही ईश्वर है’ कहते हैं, बल्कि विश्व इतिहास में सत्य की लाठी से धरती को मुक्ति की ओर ठेलने का अपूर्व और क्रांतिकारी यत्न भी करते हैं। बहरहाल, बारू सगर्व कहते हैं कि प्रभाकर का लेखन हैदराबाद से निकला है और इसे देश-दुनिया के उन लोगों को जरूर पढ़ना चाहिये, जो भारत के वर्तमान को लेकर चिंतित हैं और भविष्य को लेकर गंभीर। क्या यह कथन हैदराबाद की शान और महत्ता को नहीं बढ़ाता है? 

किताब का प्रारंभ ख्यात दार्शनिक इमैनुअल कांट के उद्धहरण ‘मानवता की सड़ी हुई शहतीरों में कोई भी सीधी वस्तु कभी नहीं बनी’ से होता है। शीर्षक इसी उद्धरण से ग्रहीत है और बरबस कंटेंट का आभास भी देता है। अपने 22 विषयों पर एकाग्र आलेखों में परकाला शहतीरों में दीमकें लगने की कहानी को परत दर परत बयां करते हैं और शहतीरों के संभावित हश्र के बारे में आगाह करते हैं। इन आलेखों का साझा-प्रस्थन बिन्दु है – भारत का वह विनाशकारी झुकाव, जो इसे बेहद कम धर्मनिरपेक्ष, कम उदारवादी, कम बहुलतावादी, कम प्रजातांत्रिक गणराज्य बनाने पर आमादा है। लेखक की चिंता और आलेखों का प्राथमिक विषय है कि हमारे असाधारण गणराज्य के आधारभूत मूल्य खतरे में हैं। लेकिन आशा का यह तृण अभी शेष है कि नये भारत के दावानल ने अभी सब कुछ नहीं लील लिया है। 

अपने विविध आलेखों में परकाला सत्ता के कपट, छल, शोर, जुमलों, प्रोपेगैंडा वगैरह को बेनकाब करते हैं और कहते हैं कि हमारा प्रजातंत्र संकट में है, सामाजिक तानाबाना छिन्नभिन्न और आर्थिकी तबाह है। परकाला के शब्दों में ‘हमें अंधेरे युग में धकेला जा रहा है।‘ वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी में सन 2014 से 2024 के दरम्यान आये ‘विचलन’ की बात करते हैं। क्या सन 2014 के मोदी अब विलुप्त हो गये हैं? क्या स्वतंत्रता से अधिक विभाजन की विभीषिका और सांप्रदायिक घृणा का विष मायने रखता है? क्या यह देश ‘ऑर्वेलियन हिन्दू अधिनायकवाद’ की ओर अग्रसर है? 

परकाला के विश्लेषण, व्याख्याओं और तर्कों से तो यही लगता है। वह भाजपा के उदय और महाविस्तार, भाजपा और आरएसएस के अंतर्सम्बंधों, आरएसएस की मजबूत मौजूदगी और उसके अपरिवर्तनीय सोच, आबादी के मसले और टीआरएफ, भारत में धर्म सहिष्णुता और अलगाव पर प्यू की रपट, हिन्दु-हिन्दी-हिन्दुस्तान के रूपक, हिन्दु होने और भारतीय होने के घालमेल, मोदी संप्रदाय (कल्ट) विरसे की छापामारी, उच्च शिक्षा के अंधकारमय परिदृश्य, जेएनयू आदि की बातें करते हैं। वह मुद्देवार चीजों को टटोलते, उघाड़ते और रेशा-रेशा सामने रखते हैं। ये मुद्दे हैं : हिजाब, बनाम भगवा पटका, विजाग स्टील संयंत्र, फादर स्टेन स्वामी की हत्या, कृषि-कानून, लखीमपुर खीरी-काण्ड, कोविड-प्रकोप आदि। खरगोश और बत्तख के भ्रम के बहाने भाजपा आरएसएस की अंतर्सम्बंधों पर उनका आलेख विचारोत्तेजक है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर एकाग्र उनका अगला आलेख इसी की अगली कड़ी है और आरएसएस के असली चेहरे की तस्दीक करता है। वे बताते हैं कि हिन्दु खतरे में है के हौव्वे का मकसद क्या है? उनकी निष्पत्ति है कि आरएसएस आजादी की लड़ाई में भ्रामक रिकार्ड और संविधान के प्रति अवज्ञा के बावजूद खुद की देशभक्त संगठन के तौर पर स्थापना में सफल रहा है। उनकी दिलचस्प टिप्पणी, जिससे बहुतेरे असहमत हो सकते हैं, है कि आरएसएस जितना मजबूत होता जा रहा है, उसका दर्शन उतना घटिया और गलत होता जा रहा है। 

इस आलेख-संचयन की एक और दिलचस्प बात है कि इसके अंत में मार्च, 2023 में लिखा उपसंहार भी है, जो शायद इसे अद्यतन करने के प्रयोजन से है। बिलाशक यह समापन-अध्याय पठनीय है। परकाला पूछते हैं कि सांसद और अनेक असेंबलियों के विविधता से न्यून होते हुये हम ‘लोकतंत्र की जननी’ होने का दावा कैसे कर सकते हैं? वह इस प्रश्न से भी जूझते हैं कि मोदी-शाह युगल का हश्र वैसा होने की संभावना क्यों नहीं है, जैसा सन् 2004 में वाजपेयी-नीत राजग सरकार का हुआ था? परकाला की मान्यता है कि मौजूदा सरकार को ताकत उनके प्रदर्शन नहीं, अपितु भावाकुल विभाजनकारी एजेंडे से मिल रही है। लोगों के लिये विकास नहीं, वरन ‘उन लोगों को सबक सिखा दिया’ ही असल मुद्दा है। 

परकाला ने अपनी विचारोत्तेजक शाब्दिक प्रस्तुतियों का समापन जोसेफ स्तालिन के बारे में नीना पाब्ले जोवा के इस कथन से किया है : “वह बाल्कनी में खड़ा होता है और झूठ बोलता है। हर व्यक्ति ताली बजाता है, पर हरेक आदमी जानता है कि वह झूठ बोल रहा है और वह जानता है कि हम जान रहे हैं। फिर भी वह लगातार झूठ बोलता है और खुश है कि हर कोई ताली बजा रहा है। परकाला की खरी-खरी को समेटती इस किताब पर बातों के क्रम में प्रसंगवश कहना जरूरी है कि व्यालोक पाठक का अनुवाद उनकी दक्षता का परिचायक है। परकाला के आलेखों को पढ़ते हुये फैज़ की पंक्तियां बरबस याद आती हैं : ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल जुबां अब तक तेरी है।’

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