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Added on : 2019-02-20 18:25:42

नामवरजी की हंसी-ठिठोली का भी एक विशिष्ट अंदाज था, उनका योगदान बहुत अमूल्य था, उन्होंने हिन्दी आलोचना को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया वह मृत्यु के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है| उनका चले जाना सारी साहित्य प्रेमियों की भारी क्षति है जो उनको सुनने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में रहते थे |

एक बार बनारस में आलोचक डॉ. बच्चन सिंह के यहां—नामवर सिंह, विजयशंकर मल्ल, केदारनाथ सिंह आदि ‘संध्या वंदन’ के लिए बैठे थे. नामवरजी शाम के बैठने-बिठाने के कार्यक्रम को ‘संध्या वंदन’ कहते हैं. बच्चन सिंहजी के यहां संपन्न उस ‘संध्या वंदन’ में विजयशंकर मल्ल कुछ इधर-उधर की बात ले आए. मल्लजी विद्वान् अध्यापक थे. उनकी विद्वता का हम पर आतंक था. वे संवेदनशील इतने कि बड़ी ट्रेन दुर्घटना और सड़क पर साइकिल से किसी का गिरना उन्हें समान कष्ट पहुंचाते थे. बात हिंदी अखबार और उसकी बदलती भाषा की हो रही थी. मल्लजी कहने लगे—भाई पटना से एक अखबार निकलता था. नाम था—‘प्रदीप' | यह कहते हुए वे नामवरजी की ओर मुखातिब हुए और थोड़ा टेढ़े होकर वायु मुक्त की. नामवरजी ने तुरंत कहा—हां, हां निकलता था, अभी-अभी निकला है, और फिर निकलेगा. बाकी लोग आनंद की मुद्रा में थे. नामवरजी गंभीर. आशय कि वे गंभीर रहकर आनंद लेते हैं.

जीवन परिचय

नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को बनारस के जियनपुर गांव में हुआ था. 1951 में काशी विश्वविद्यालय से एम ए तत्पश्चात 1953 में वहीं लेक्चरर के अस्थायी पद पर नियुक्ति | 1956 में पीएचडी और 1959 -60 सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में व्याख्याता के पद पर कार्य किया| 1965 से 1967 तक नामवर जी जनयुग और आलोचना में संपादक और साहित्यिक सलाहकार के रूप में अपना योगदान दिया. साल1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय में विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति और 1974 से 1987 तक देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय में अध्यापन.

सम्मान:-

साहित्य अकादमी पुरस्कार - 1971 में “कविता के नये प्रतिमान” के लिए
शलाका सम्मान- हिंदी अकादमी की ओर से  दिल्ली सरकार द्वारा
‘साहित्य भूषण सम्मान’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से
शब्दसाधक शिखर सम्मान - 2010
महावीरप्रसाद द्विवेदी सम्मान - 21 दिसम्बर 2010

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ऐसा कभी नहीं देखा कि नामवर सिंह बोल रहे हों और कोई साहित्यिक प्रेमी  वहां. से उठकर गया  हो. उनके धुरविरोधी भी उनकी प्रतिभा के ऐसे  कायल हैं कि उन्हें सम्मानित करने में अपना अहोभाग्य समझते हैं. कलम और जुबान दोनों का बेहतरीन इस्तेमाल कर उन्होंने  हिंदी साहित्य में अपना सम्मानित स्थान और रुतबा कायम किया.नामवर सिंह ने मार्क्सवादी आलोचना की,  जिसे वे  ‘वाद विवाद संवाद’ कहते थे. शानदार परंपरा कायम की. आधुनिक साहित्य कि प्रवृत्तियां ,इतिहास और आलोचना ,छायावाद ,कविता के नए प्रतिमान ,दूसरी परंपरा कि खोज ,वाद विवाद संवाद उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं जिनको पढ़ने का एक अलग ही महत्व है.

इसका एक  बड़ा कारण उनकी बेहतरीन भाषा है. उनकी  भाषा  शुष्कता एवं पंडिताऊ पन से मुक्त  , उनके विचारों से कदमताल मिलाती  है. शब्दों ,मुहावरों ,लोकोक्तियों ,शेरों -शायरी तक का विषयोचित्त सटीक प्रयोगकर नामवर सिंह नेअपनी  मार्क्सवादी  भाषा को जीवंत ,सरस, प्रवाहमय और आकर्षक बनाया.

नामवर सिंह के बारी में जितनी बाटी करो उतनी कम है , आलोचना संसार विस्तृत और भविष्योमुखी है, जिसमें बहुत कुछ  सीखने योग्य है तो बहुत कुछ आगे ले जाने योग्य| आज इनकी अंतिम विदाई देते हुए यह केह सकते है के मेरे प्रिय आलोचक आप हिंदी आलोचना के इतिहास की धारा में विद्युत छटा थे सदा अमर रहेंगे |

कर्टसी : Quint

नामवरजी की हंसी-ठिठोली का भी एक विशिष्ट अंदाज था, उनका योगदान बहुत अमूल्य था, उन्होंने हिन्दी आलोचना को जिस ऊंचाई तक पहुंचाया वह मृत्यु के प्रभाव से सर्वथा मुक्त है| उनका चले जाना सारी साहित्य प्रेमियों की भारी क्षति है जो उनको सुनने के लिए अवसर की प्रतीक्षा में रहते थे |

एक बार बनारस में आलोचक डॉ. बच्चन सिंह के यहां—नामवर सिंह, विजयशंकर मल्ल, केदारनाथ सिंह आदि ‘संध्या वंदन’ के लिए बैठे थे. नामवरजी शाम के बैठने-बिठाने के कार्यक्रम को ‘संध्या वंदन’ कहते हैं. बच्चन सिंहजी के यहां संपन्न उस ‘संध्या वंदन’ में विजयशंकर मल्ल कुछ इधर-उधर की बात ले आए. मल्लजी विद्वान् अध्यापक थे. उनकी विद्वता का हम पर आतंक था. वे संवेदनशील इतने कि बड़ी ट्रेन दुर्घटना और सड़क पर साइकिल से किसी का गिरना उन्हें समान कष्ट पहुंचाते थे. बात हिंदी अखबार और उसकी बदलती भाषा की हो रही थी. मल्लजी कहने लगे—भाई पटना से एक अखबार निकलता था. नाम था—‘प्रदीप' | यह कहते हुए वे नामवरजी की ओर मुखातिब हुए और थोड़ा टेढ़े होकर वायु मुक्त की. नामवरजी ने तुरंत कहा—हां, हां निकलता था, अभी-अभी निकला है, और फिर निकलेगा. बाकी लोग आनंद की मुद्रा में थे. नामवरजी गंभीर. आशय कि वे गंभीर रहकर आनंद लेते हैं.

जीवन परिचय

नामवर सिंह का जन्म 28 जुलाई 1926 को बनारस के जियनपुर गांव में हुआ था. 1951 में काशी विश्वविद्यालय से एम ए तत्पश्चात 1953 में वहीं लेक्चरर के अस्थायी पद पर नियुक्ति | 1956 में पीएचडी और 1959 -60 सागर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में व्याख्याता के पद पर कार्य किया| 1965 से 1967 तक नामवर जी जनयुग और आलोचना में संपादक और साहित्यिक सलाहकार के रूप में अपना योगदान दिया. साल1970 में जोधपुर विश्वविद्यालय में विभागध्यक्ष के पद पर नियुक्ति और 1974 से 1987 तक देश के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय में अध्यापन.

सम्मान:-

साहित्य अकादमी पुरस्कार - 1971 में “कविता के नये प्रतिमान” के लिए
शलाका सम्मान- हिंदी अकादमी की ओर से  दिल्ली सरकार द्वारा
‘साहित्य भूषण सम्मान’ उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान की ओर से
शब्दसाधक शिखर सम्मान - 2010
महावीरप्रसाद द्विवेदी सम्मान - 21 दिसम्बर 2010

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय हो या महात्मा गांधी अंतर राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ऐसा कभी नहीं देखा कि नामवर सिंह बोल रहे हों और कोई साहित्यिक प्रेमी  वहां. से उठकर गया  हो. उनके धुरविरोधी भी उनकी प्रतिभा के ऐसे  कायल हैं कि उन्हें सम्मानित करने में अपना अहोभाग्य समझते हैं. कलम और जुबान दोनों का बेहतरीन इस्तेमाल कर उन्होंने  हिंदी साहित्य में अपना सम्मानित स्थान और रुतबा कायम किया.नामवर सिंह ने मार्क्सवादी आलोचना की,  जिसे वे  ‘वाद विवाद संवाद’ कहते थे. शानदार परंपरा कायम की. आधुनिक साहित्य कि प्रवृत्तियां ,इतिहास और आलोचना ,छायावाद ,कविता के नए प्रतिमान ,दूसरी परंपरा कि खोज ,वाद विवाद संवाद उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियां हैं जिनको पढ़ने का एक अलग ही महत्व है.

इसका एक  बड़ा कारण उनकी बेहतरीन भाषा है. उनकी  भाषा  शुष्कता एवं पंडिताऊ पन से मुक्त  , उनके विचारों से कदमताल मिलाती  है. शब्दों ,मुहावरों ,लोकोक्तियों ,शेरों -शायरी तक का विषयोचित्त सटीक प्रयोगकर नामवर सिंह नेअपनी  मार्क्सवादी  भाषा को जीवंत ,सरस, प्रवाहमय और आकर्षक बनाया.

नामवर सिंह के बारी में जितनी बाटी करो उतनी कम है , आलोचना संसार विस्तृत और भविष्योमुखी है, जिसमें बहुत कुछ  सीखने योग्य है तो बहुत कुछ आगे ले जाने योग्य| आज इनकी अंतिम विदाई देते हुए यह केह सकते है के मेरे प्रिय आलोचक आप हिंदी आलोचना के इतिहास की धारा में विद्युत छटा थे सदा अमर रहेंगे |

कर्टसी : Quint

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