राजेश बादल
संसद का शीतकालीन सत्र बड़े शर्मनाक दौर से गुज़र रहा है। हमने सोचा था कि इस बरस लोकसभा चुनाव के परिणाम पक्ष और प्रतिपक्ष के लिए कुछ सन्देश लेकर आए हैं। पक्ष बैसाखी पर टिका है और प्रतिपक्ष भी बराबरी से आँखें दिखाकर सरकार से सवाल करेगा तथा संसद में सकारात्मक दृश्य उपस्थित होंगे।लेकिन, ऐसा कुछ न हुआ. राजनीति उसी ढर्रे पर चल रही है. नेताओं ने अपनी ज़िम्मेदारियों को नहीं निभाया. विधान तैयार होने के 75 वें साल में हम और फूहड़ तथा बेशर्म सियासत का मुज़ाहिरा दुनिया के सामने प्रस्तुत कर रहे हैं।बांग्लादेश भारत के दुश्मनों से हाथ मिला चुका है। नेपाल चीन की गोद में जाकर बैठ गया है।पाकिस्तान और चीन दोनों मित्र देश नहीं हैं।म्यांमार चीन के प्रभाव में भारत से कुट्टी कर चुका है।भूटान बेबस और कातर है और हमारे राजनेता 50000 रूपए की गड्डी एक सांसद की सीट से मिलने पर हाय तौबा मचा रहे हैं।एक पूंजीपति के मसले से ध्यान हटाने की साज़िश कामयाब हो गई।किसी को भारत की अंतरराष्ट्रीय घेराबंदी नहीं दिखाई देती।इस अंधत्व पर क्या कहा जाए ?अफ़सोस ! हमारी पत्रकारिता के बड़े बड़े धुरंधर संपादकों की कलम और टीवी के स्वनामधन्य संपादकों की ज़बान पर ताला लगा है।यह कैसी पत्रकारिता है,जो घर के चारों ओर आग लगने पर भी ख़ामोश बैठी है।एक भी संपादकीय इस मुद्दे पर मुझे तो कहीं नहीं दिखाई दिया।अपवादस्वरूप एकाध कहीं छपा हो तो छपा हो।मगर इक्का दुक्का संपादकीय भारतीय भाषायी पत्रकारिता का समूचा प्रतिनिधित्व नहीं करते।संसद को अब कोई संपादक गंभीरता से नही लेता।
लोकतंत्र के तीनों स्तंभों की दुर्बलता का अंजाम हम देख रहे हैं।रही सही कसर मीडिया की मंडी में बिक रही पत्रकारिता ने पूरी कर दी।पत्रकारिता पढ़ाने वाले संस्थान डिग्रियाँ बॉंटने का धंधा चमका रहे हैं।उनके मालिक न कभी अपने पाठ्यक्रमों को देखते हैं और न अपने शिक्षकों को,जो सिद्धांत और सरोकारों की शिक्षा नहीं देते।मानता हूँ कि सारे शिक्षक संजीव भानावत या देविंदरकौर उप्पल नहीं होते।फिर भी नाक़ाबिल शिक्षक अधिक संख्या में आ जाएँ तो वे पत्रकारों के नाम पर ऐसे उत्पाद परोसते हैं,जिनके हाथ में वह उस्तरा होता है जो नहीं देखता कि उससे देश का गला कट रहा है या समाज का।
संसद की कार्रवाई पर हर सत्र में इस मुल्क की गरीब जनता के करोड़ों रुपए ख़र्च होते हैं.अवाम आस लगाती है कि संसद उसकी समस्याओं का हल निकालेगी,पर ऐसा नहीं होता.न बेरोज़गारी दूर होती है न भ्रष्टाचार कम होता है और न मंहगाई से मुक्ति मिलती है.महंगाई के अनुपात में मध्य वर्ग और कम आय वाले वर्ग की आमदनी नहीं बढ़ती.मगर उनका यह दर्द न अख़बारों के पन्नों में दिखाई देता है न टीवी चैनलों में और न अभिव्यक्ति के किसी मंच पर.फिर भी हम पत्रकार अपने को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहते हैं.पत्रकारिता के सरोकार अब मीडिया की मंडी में बिक रहे हैं.
मान कर चलिए कि जिस तरह आईपीएल में हम क्रिकेट के खिलाड़ियों को बिकते देखते हैं,वही दृश्य अब मीडिया मंडी में आने वाला है।संपादकों की बोलियाँ लगेंगीं.जिस पार्टी या फिर उद्योगपति को जैसा संपादक चाहिए,वह बोली लगाएगा।इसी तरह अखबारों और टीवी चैनलों की बोलियाँ लगेंगीं.इस नीलामी में वे बिक जाएँगे।एक तयशुदा मियाद के लिए।उस मियाद तक वे बीजेपी के भौंपू बने रहेंगे,उसके बाद अगले साल तक बड़ी बोली लगाकर कांग्रेस या अन्य कोई दल उनको खरीद लेगा ( वैसे तो अब भी बिके हुए हैं।पर,अभी संकोच का झीना परदा बीच में है ) शर्म करो संपादको ! ऐसे रीढ़विहीन संपादकों को अपने बीच से निकाल फेंकिए मिस्टर मीडिया !