भारत की पुलिस जिस क़ानून पर चलती है ,वह गोरी हुकूमत ने बनाया था। गोरे तो 77 बरस पहले ही इस मुल्क़ से दफ़ा हो गए। लेकिन ,वे यहाँ की पुलिसिया देह में ऐसा ज़हर घोल कर गए ,जिसका असर अभी तक बरक़रार है। यह पुलिस आज भी अँगरेज़ों की तरह ज़ुल्म करती है ,हिरासत में अवाम को मारती है , अपराधियों को पकड़ती नहीं और बेकसूरों को जज बनकर सजा भी दे देती है।गुज़िश्ता 77 साल में कोई सरकार पुलिस के इस उत्पीड़न तंत्र को नहीं तोड़ पाई है और न जाने कब तक यह चलता रहेगा।पत्रकार बिरादरी के लोग भी अक्सर इस जाल में अक्सर फँस जाते हैं या फंसा दिए जाते हैं।
ताज़ा मामला जमशेदपुर का है।डिज़िटल मीडिया के एक पत्रकार आनंद कुमार को कुछ दिन पहले राज्य के स्वास्थ्य मंत्री के बारे में एक समाचार मिला। उन्होंने प्राथमिक जाँच के बाद इसे अपने प्लेटफॉर्म-जन मन की बात पर पोस्ट कर दिया। थोड़ी देर में ही आनंद को पता चला कि ख़बर पूर्ण सत्य नहीं है। उन्होंने तुरंत उस समाचार को अपने प्लेटफॉर्म से हटा लिया। उसके स्थान पर खंडन पोस्ट किया और खेद भी प्रकट किया। आनंद कुमार ने इसके बाद संबंधित मंत्री को फ़ोन पर सन्देश भेजा। उसमें भी उन्होंने इस ग़लती को स्वीकार करते हुए माफ़ीनामा भेजा। इसके बाद भी झारखण्ड पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज़ किया और मंत्री के दबाव में परेशान करना शुरू किया। घबराए आनंद कुमार ने तब रांची प्रेस क्लब की शरण ली।प्रेस क्लब उनके समर्थन में सामने आया और समूचे मामले की निंदा की।क्या आजकल ऐसे उजले नैतिक पक्ष वाले पत्रकार मिलते हैं ?
जब इंटरनेट और टीवी के मार्फ़त समाचार नहीं मिलते थे,तो केवल अख़बार ही ख़बरों के इकलौते माध्यम थे। रेडियो तो सरकारी था। उन दिनों अख़बार में प्रकाशित ग़लत ख़बर की सुनवाई के लिए प्रेस कौंसिल ऑफ़ इण्डिया नामक अर्ध न्यायिक संस्था सरकार की ओर से बनाई गई थी। इसके मुखिया आम तौर पर पूर्व न्यायाधीश होते थे।यह संस्था संबंधित समाचारपत्र को खेद या खंडन प्रकाशित करने का उच्चतम दंड देती थी। चूँकि उन दिनों प्रत्येक अख़बार अपने समाचारों की प्रामाणिकता और सचाई के प्रति इतना संवेदनशील होता था कि अपने अख़बार में अपनी ही ख़बर का खंडन करना चुल्लू भर पानी में डूब कर मरने जैसा होता था ।याने उस त्रुटि का सर्वोच्च दंड खेद प्रकट करना ही होता था,जिसे संपादक को अपने ही समाचारपत्र में प्रकाशित करना पड़ता था । आनंद कुमार के इस मामले में कोई अन्य विरोध करता ,उससे पहले आनंद कुमार ने स्वतः प्रेरणा से खेद प्रकट कर दिया और ख़बर भी हटा ली।यही नहीं ,उन्होंने स्वास्थ्य मंत्री को प्रेषित लिखित सन्देश में भी खेद प्रकट किया। जब किसी पत्रकार ने स्वयं ही सजा भुगत ली हो ,उसके बाद भी पुलिस परेशान करे तो उसका क्या अर्थ लगाया जाए ?
सीधा सा अर्थ यही है कि पत्रकारिता में अब नैतिकता के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं बची है। निष्पक्ष और ईमानदार पत्रकारिता तो पहले ही दम तोड़ है। समाज अब लोकतंत्र के चौथे स्तंभ से कोई अपेक्षा नहीं करे तो बेहतर। मीडिया के लिए भी यह एक तक़लीफ़देह सबक़ है। इस सबक़ को याद रखिए मिस्टर मीडिया !