राजेश बादल
भारतीय पत्रकारिता ने लगता है,सवाल उठाना छोड़ दिया है।यह मशीनी पत्रकारिता इस देश के लोकतंत्र का कितना भला करेगी ?
अठारहवीं लोकसभा का पहला सत्र शुरू हो गया है । केवल नौ दिन चलेगा । सत्र की आयु इतनी कम क्यों है,किसी ने इस पर सवाल नही उठाया । सत्रहवीं लोकसभा का पहला सत्र लगभग चालीस दिन चला था । इस बार क्या हो गया ? किसी चैनल ने सवाल नही उछाला।किसी अख़बार ने संपादकीय नही लिखा।डिजिटल मीडिया की सुर्खियों में भी यह नहीं दिखाई दिया।किसी ने जानने की ज़रूरत महसूस नहीं की कि इस सत्र में तीन दिन तो शपथ ही चलेगी ।दो दिन शनिवार और रविवार की छुट्टी के होंगे।याने मानसून सत्र का बिजनेस केवल चार दिन चलेगा ।डेढ़ सौ करोड़ की आबादी वाले देश के लिए यह कितना उचित है ।यह भी किसी पत्रकार की कलम से यह नहीं निकला कि इस सत्र में विपक्ष का आकार चूंकि बहुत विराट हो चुका है और लंबा सत्र होने से विपक्ष को सरकार की नाकामियों पर सवाल उठाने का भरपूर मौका मिलने जा रहा था।इसलिए ही सत्र छोटा किया गया ? पिछली लोकसभा में प्रतिपक्ष का आकार अत्यंत दुर्बल और महीन था इसलिए सरकार ने मानसून सत्र चालीस दिन चलाया ।
क्या किसी बड़े संपादक या पत्रकार ने सत्रहवीं लोकसभा के बारे में लिखा कि यह इतिहास की सबसे कम दिन तक काम करने वाली लोकसभा थी ।इसने सिर्फ़ 274 दिन बैठकें कीं।संदर्भ के लिए बता दूं कि पहली लोकसभा ने 677 दिन काम किया था।तब आबादी लगभग छत्तीस करोड़ थी।इसके बाद 1971 से 1977 के बीच इंदिरा गांधी की सरकार के दौरान लोकसभा की 613 बैठकें हुईं।आज देश डेढ़ सौ करोड़ की जनसंख्या लेकर चल रहा है।हज़ार समस्याएं हैं,चुनौतियां हैं और अंतरराष्ट्रीय हालात हैं,जिन पर संसद में चर्चा ज़रूरी है।पर,बैठकें घटती जा रही हैं।क्या किसी समाचार पत्र या चैनल में लिखा या दिखा कि 1952 के बाद पहली बार सत्रहवीं लोकसभा में लोकसभा उपाध्यक्ष नहीं चुना गया।अनुच्छेद 93 के तहत यह अनिवार्य है। परंपरा है कि यह पद प्रतिपक्ष के पास रहता है।संसद के कामकाज से गुणवत्ता भरी चर्चाएँ कम होती जा रही हैं और हमारे संपादकों को इसका कोई मलाल ही नहीं है।विधानसभाओं के मामले में भी ऐसी ही स्थिति है।
संसदीय पत्रकारिता के मुद्दों और कामकाज को समझने वाले आज कितने पत्रकार हैं ? हम पाते हैं कि बीस - पच्चीस बरस की पत्रकारिता का अनुभव रखने वालों को भी संसदीय और विधायी पत्रकारिता की बुनियादी समझ नहीं होती। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की कड़वी हक़ीक़त है कि नब्बे प्रतिशत पत्रकार संसद और विधानसभा के काम की बारीकियों को नहीं जानते। पत्रकारिता शिक्षा की डिग्री देने वाले अधिकतर संस्थान संसदीय पत्रकारिता नहीं पढ़ाते।हमारी नई नस्ल इस लोकतंत्र के बारे में कैसे समझेगी ? एक स्वयंसेवी संस्थान प्रतिवर्ष कुछ पत्रकारों को संवैधानिक मूल्यों को केंद्र में रखकर एक फ़ैलोशिप देती है। मैं इस फैलोशिप का एक जूरी - सदस्य और शोध मार्गदर्शक हूँ।अफ़सोस के साथ कह सकता हूँ कि बड़ी संख्या में आवेदन आते हैं। जब हम उन्हें साक्षात्कार के लिए बुलाते हैं तो वे संविधान की बुनियादी बातें तक नहीं बता पाते। हम नए पत्रकारों की यह कौन से फसल तैयार कर रहे हैं मिस्टर मीडिया !